हमारी आकाशवाणी के खाते में तमिल विदेशी भाषा है। सिंधी और नेपाली विदेशी भाषाएं हैं। पुड्डुचेरी में फ्रेंच को राजभाषा जैसी मान्यता प्राप्त है, लेकिन आकाशवाणी को इस बारे में कोई जानकारी नहीं है। एक नियम के रूप में वह इन सभी भाषाओं को वर्षों से विदेशी भाषा मानती चली आ रही है। आकाशवाणी में कई भारतीय भाषाएं विदेशी भाषा के रूप में दर्ज हैं। यही नहीं, इसे आधार बनाकर वहां वर्षों से हिंदीभाषी कर्मचारियों को दोयम दर्जे का समझा जाता है और उन्हें वेतन आदि सुविधाएं अपेक्षाकृत कम दी जाती हैं।
अंग्रेजों के शासन काल में भारत के लोगों को जिस पद पर काम करने के एवज में सौ से डेढ़ सौ रुपये वेतन दिया जाता था, उसी पद पर गोरी चमड़ी वाले यूरोप के मूलवासियों को एक हजार रुपया वेतन मिलता था। अंग्रेजों के जाने के बाद चमड़ी के रंग के आधार पर तो नहीं लेकिन उम्र, लिंग, जाति और धर्म के आधार पर एक ही काम के लिए मजदूरी या वेतन कम-ज्यादा होने की शिकायतें आम रही हैं। कई संस्थानों में भाषा के स्तर पर भी समान पद और काम के बदले अलग-अलग वेतन मिलने की शिकायतें आई हैं। लेकिन ऐसी शिकायतें आमतौर पर निजी संस्थानों में दिखती रही हैं। संविधान में जाति, लिंग, धर्म, भाषा के आधार पर भेदभाव नहीं करने की शपथ ली गई है लिहाजा आमतौर पर इन आधारों पर सरकारी संस्थानों में ऐसे भेदभाव की शिकायत नहीं पाई जाती है। आकाशवाणी में जारी भाषाई भेदभाव को इस नियम का भी अपवाद माना जा सकता है।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद भारत में विदेशी प्रसारण सेवा का विकास करने का फैसला किया गया। इसके जरिए 27 भाषाओं में कार्यक्रम प्रसारित किए जाते हैं। इन भाषाओं में कुछ विदेशी हैं तो कई भारतीय भी हैं। लेकिन इस प्रसारण सेवा के अधिकारी इस हद तक मानसिकता जड़ता के शिकार हैं कि वे यह मानने को ही तैयार नहीं हैं कि तमिल श्रीलंका की नहीं, भारत के एक समृद्ध प्रांत की भाषा है। नेपाली सिर्फ नेपाल की ही नहीं, भारत की भी भाषा है। वह न केवल सिक्किम की राज्य भाषा है, बल्कि देश के बड़े भूभाग में बोली जाती है। इस सेवा को चलाने वाले अधिकारी कहते है कि चूंकि सन साठ से नेपाली को यहां विदेशी भाषा के रूप में स्वीकार किया गया था, लिहाजा उसे विदेशी मानने का सिलसिला जारी है।
यदि विदेशी प्रसारण सेवा में हिंदीभाषियों को दूसरी भारतीय भाषाओं के प्रति नाराजगी महसूस होती है तो इसमें किसका दोष है? हिंदी भाषा में काम करने वाले कर्मचारियों, अनुवादकों और उद्घोषकों को दूसरी भारतीय भाषाओं की तुलना में कम वेतन व मजदूरी मिलती है। इसके पीछे उद्देश्य भारतीय भाषाओं के प्रति सदाशयता बरतने का नहीं है। देश में हिंदी कामकाज की सबसे बड़ी भाषा है। लेकिन तमिल, सिंधी और नेपाली भाषाओं को विदेशी घोषित करके दलील यह बनाई गई कि इन भाषाओं में काम करने के लिए लोग या तो विदेश से आएंगे, या देश के भीतर कहीं विरले ही मिलेंगे, लिहाजा उन्हें 5400 का वेतनमान मिलना चाहिए, जबकि हिंदी वाले बहुतायत में मिल जाते हैं इसलिए उन्हें 4600 रुपये का वेतनमान देना पर्याप्त होगा।
विदेशी प्रसारण सेवा में फ्रेंच के कार्यक्रम महज पैंतालीस मिनट के होते है और नेपाली के साढे तीन घंटे के, जबकि हिंदी में पांच घंटे पंदह मिनट के कार्यक्रम किए जाते हैं। लेकिन हिंदी कर्मी को तो दिनभर के काम के 405 रुपये मिलते हैं, जबकि इन दोनों भाषाओं में काम करने वालों को एक हजार रुपये प्राप्त होते हैं। यह भेदभाव न केवल वेतन आदि के स्तर पर है बल्कि हिंदी में शैक्षणिक अनिवार्यता बीए की है तो दूसरी भाषाओं में दसवीं पास को भी काम करने लायक माना जाता है। विदेशी भाषा में काम करने वालों को एक समाचार पत्र मुफ्त में मिलता है लेकिन यह सुविधा हिंदी में काम करने वालों के लिए नहीं है। दरअसल विदेशी प्रसारण सेवा में जारी यह भेदभाव हिंदी बनाम विदेशी भाषाओं के टकराव को नहीं, बल्कि सत्ता की जड़ता को दर्शाता है।
(अनिल चमड़िया,नवभारत टाइम्स,दिल्ली,17 मई,2010)
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