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19 जून 2011

100 प्रतिशत कट-ऑफ है खतरनाक संकेत

दिल्ली विश्वविद्यालय के श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स में दाखिले के लिए 100 प्रतिशत तक का कट ऑफ तय करने पर उठे विवाद पर एक अखबार में कार्टून छपा, जिसमें छठी-सातवीं कक्षा के एक विद्यार्थी को 99 प्रतिशत अंक लाने पर उसके माता-पिता उसे डांटते हुए कहते हैं कि सिर्फ 99 फीसदी। तुम्हारे कॉलेज पहुंचने के समय तो कट ऑफ 110 प्रतिशत तक हो जाएगा। गंभीरता से सोचें तो यह व्यंग्य एक खतरनाक भविष्य की ओर इशारा कर रहा है, जिसके लिए कोई और नहीं, बल्कि इस देश के नीति निर्धारक जिम्मेदार हैं। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल की नाराजगी और यह कहना कि इस मामले में वह पूरी तरह छात्रों और उनके अभिभावकों के साथ हैं, एक ऐसी सदिच्छा भर है जो इस देश की वास्तविकता और यथार्थ से कटी हुई है। अंग्रेजी मीडिया में बहस का रूप और दिशा देखें तो वह भी बहुत हास्यास्पद है। अधिकांश बहस इस बात पर है कि 100 प्रतिशत कट ऑफ कतई तर्कसंगत नहीं है, या गलत है और कट ऑफ अंक को व्यावहारिक होना पड़ेगा। हालांकि अनेक लोगों ने इसे मांग और आपूर्ति के नियम से जोड़ते हुए कहा कि समस्या दरअसल इसलिए है कि विद्यार्थियों की संख्या बढ़ती जा रही है और कॉलेजों में सीट उस अनुपात में नहीं बढ़ रही हैं। इसलिए बड़ी संख्या में उच्च गुणवत्ता वाले कॉलेजों और शिक्षा संस्थानों को खोलने की जरूरत है। यह तर्क यहां तक तो ठीक था, लेकिन इन उच्च वर्गीय लोगों के इस तर्क का अगला चरण यह था कि इसके लिए प्राइवेट सेक्टर को आगे आना होगा, क्योंकि सरकार के पास उतना धन-संसाधन नहीं है। यही दलील बहुत पहले से पूंजीवादी-शुद्ध मुनाफावादी मानसिकता के बुद्धिजीवियों की रही है। पूरा तर्क न केवल इसलिए खतरनाक है कि कॉरपोरेट और शुद्ध मुनाफावादी इन संस्थानों की ऊंची फीस को 120 करोड़ जनता का महज 2 से 4 प्रतिशत हिस्सा ही चुका पाएगा, अर्थात लगभग 96-98 प्रतिशत लोग गुणवत्ता वाली उच्च शिक्षा से वंचित रहेंगे और परिणाम स्वरूप वे सामाजिक पायदान पर कभी ऊपर नहीं आ पाएंगे। ज्यादा खतरनाक बात यह होगी कि इस 100 करोड़ से ज्यादा की आबादी वाली संख्या के प्रतिभाशाली बच्चों की मेधा से देश और समाज वंचित हो जाएगा। इसका दूसरा खतरनाक दुष्परिणाम सामाजिक तनाव और संघषरें का पैदा होना होगा। माओवादियों के आंदोलन की समस्या का एक पक्ष यह भी है। दरअसल विविधताओं, बल्कि विषमताओं से भरे इस देश में इस समस्या की जटिलता को पूरे परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत है। एडमिशन की समस्या का एक हल यह तो है ही कि अधिकाधिक संख्या में उच्च गुणवत्ता वाले संस्थान खोले जाएं, लेकिन सरकार का यह रोना कि इसके लिए कोष नहीं है, महज एक बहाना भर है। यहां बताना जरूरी है कि कांग्रेसनीत संप्रग सरकार ही ऐसा नहीं कहती, बल्कि भाजपानीत राजग का भी यही रुख रहा है। इस देश में आम जनता के लाखों करोड़ रुपये नेता-अधिकारी-माफिया हड़पते जा रहे हैं। इसमें सभी राजनीतिक पार्टियों के लोग शामिल हैं, लेकिन आम जनता के विकास, बेहतरी और उच्च शिक्षा के लिए धन का रोना रोया जाता है। कोठारी आयोग ने स्पष्ट रूप से शिक्षा पर जीडीपी का 6 प्रतिशत खर्च करने का निर्देश दिया था, लेकिन देश के शासक वर्ग को आम जनता की चिंता कब रही है। यहां यह बताना अनुचित न होगा कि प्राइवेट क्षेत्र के अधिकांश संस्थान आज नेताओं और मंत्रियों के हैं, जिनका उद्देश्य मुनाफा कमाना है। ये गुणवत्ता के मामले में बहुत पीछे हैं। आंध्र प्रदेश जैसे अनेक राज्यों में यह तस्वीर देखी जा सकती है। आज बहुत जरूरी है कि विद्यार्थियों की बढ़ती हुई तादाद को देखते हुए हर राज्य में जनसंख्या की प्रतिशतता के अनुपात में सेंट स्टीफेंस, श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स या हिंदू कॉलेज की तरह के कम से कम 10-15 कॉलेज खोले जाएं, जिनमें उच्च गुणवत्ता की शिक्षा प्रदान की जाए। केंद्रीय विश्वविद्यालयों की तर्ज पर इन्हें पूर्ण स्वायत्त रखा जाए ताकि नेताओं और अधिकारियों के हस्तक्षेप से मुक्त रहकर ये कार्य कर सकें। इसमें केंद्र सरकार की तरफ से 80 प्रतिशत और राज्य सरकारों की ओर से 20 प्रतिशत अंशदान होना चाहिए। अतिरिक्त कोष के लिए निजी क्षेत्र से सहायता ली जा सकती है, लेकिन निजी क्षेत्र की भूमिका यहां मुनाफाखोरी की न हो, इसका ध्यान रखने की जरूरत है। अनेक लोग ऐसे मामलों में सरकार से सहयोग करने के लिए तैयार रहते हैं, लेकिन उनका सरकारी तंत्र से भरोसा ही उठ गया है, अत: उन्हें विश्वास में लेने की जरूरत है। इसमें साफ-सुधरी छवि वाले अधिकारियों, शिक्षाविदों या समाजसेवियों की मदद ली जा सकती है। यहां यह भी रेखांकित करने की जरूरत है कि ये नए कॉलेज दिल्ली या विभिन्न राज्यों की राजधानियों में न खोलकर अन्य विभिन्न शहरों में खोले जाएं। इससे न केवल बड़े शहरों से बोझ घटेगा, बल्कि नए केंद्रों का विकास भी होगा। आज इस तरह के विकेंद्रीकृत विकास की सख्त जरूरत भी है। यहां अमेरिका का उदाहरण लिया जा सकता है। दुनिया के सर्वश्रेष्ठ हार्वर्ड, येल, प्रिंसटन, स्टैनफोर्ड, यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, बर्कली या डेविस जैसे विश्वविद्यालय महानगरों में न होकर छोटे-छोटे शहरों में ही बसे हैं। छोटे शहरों में विद्यार्थियों का खर्च भी कम होगा। समस्या का एक अन्य पहलू है इन कॉलेजों के प्रवेश में सीबीएसई बोर्ड के छात्रों का एकाधिकार होना। होता यह है कि सीबीएसई बोर्ड परीक्षा में 90 प्रतिशत अंक लाना अत्यंत कठिन नहीं है। 95 प्रतिशत से ऊपर भी सैकड़ों छात्र होते हैं। 70-80 प्रतिशत लाना तो एक सामान्य बात है। जबकि राज्यों के बोडरें में तो 85-90 प्रतिशत पर तो छात्र टॉप कर जाते हैं। कई बार तो राज्यों के बोडरें में प्रथम श्रेणी लाना भी मुश्किल हो जाता है। हाल ही में झारखंड में बारहवीं का परिणाम आया है। अधिकांश छात्र द्वितीय और तृतीय श्रेणी में लटक गए हैं, जबकि इनमें से अनेक छात्र बहुत मेधावी हैं। मेरा प्रस्ताव है कि बारहवीं के अंकों में भी एक स्केलिंग या समायोजन किया जाए, जिससे विभिन्न राज्यों के प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को भेदभाव का शिकार न होना पड़े। यहां यह बताना जरूरी है कि राज्य बोडरें के स्कूलों में अधिकांश छात्र निम्न वर्ग से होते हैं, जो अत्यंत प्रतिभाशाली होने के बावजूद संसाधनों के अभाव में पीछे छूट जाते हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि नीति निर्धारक जनहित में जल्दी ही उचित कदम उठाएंगे(प्रो. निरंजन कुमार,दैनिक जागरण,18.6.11)।

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