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18 जून 2011

डीयूःनामचीन स्कूलों में 60 से 97 फीसदी पहुंची कट ऑफ

पिछले 50 वर्षो के दौरान डीयू की दाखिला प्रक्रिया में जबरदस्त बदलाव आया है। 1970 के दशक में डीयू के नामचीन कॉलेजों में औसतन 55 से 60 फीसदी अंकों के बीच दाखिला हो जाता था। अब इनमें दाखिला 97 फीसदी अंक प्राप्त करने वाले छात्रों को भी नहीं मिल रहा। डीयू के कुलपति प्रो. दिनेश सिंह कहते हैं कि कॉलेज क्या करें? जब बोर्ड ही बच्चों को इतने नंबर देगा तो कट ऑफ ऊपर जाएगी ही। चालीस साल पहले और अब में बहुत अंतर है। जब बारहवीं नहीं ग्यारहवीं हुआ करती थी। डीयू के डीन स्टूडेंट वेलफेयर प्रो. जेएम खुराना कॉलेज टाइम की यादों को ताजा करते हुए बताते हैं कि 70 के दौर में इतनी मारा-मारी नहीं थी। किसी के 60 फीसदी अंक आ जाते थे तो गांवों में मिठाई बंटती थी। छात्र फ‌र्स्ट डिवजनर होता था। अब 60 फीसदी वालों को रेगुलर कोर्स में दाखिले के लाले पड़ रहे हैं। पिछले आठ सालों में सीबीएसई और अन्य बोर्डो ने जिस तरह से छात्रों को अधिक नंबर देने शुरू किए हैं, उससे कॉलेजों की कट ऑफ में अभी तक करीब 25 फीसदी इजाफा हो चुका है और प्रतिभाशाली छात्रों का हाल-बेहाल है। सोचने वाली बात तो यह है कि बारहवीं के सिलेबस में ज्यादा बदलाव नहीं आया है। हां पेपर बनाने और उनकी मार्किंग स्कीम में कुछ बदलाव हुए हैं। जिससे अब अंग्रेजी, इतिहास और हिंदी में भी छात्रों के 100-100 अंक आ रहे हैं। डीयू के डिप्टी डीन प्रो. दिनेश सी. वाष्र्णेय बताते हैं कि उन्हें 1976 में हिंदू कॉलेज में दाखिला मिल गया था। तब कॉलेजों में छात्रों के नाम की मैरिट लिस्ट लगती थी। 58-59 फीसदी अंक वाले छात्र को आराम से दाखिला मिल जाता था। 62-63 फीसदी अंक वाले छात्र इक्का-दुक्का ही नजर आते थे। डीयू में कट ऑफ लिस्ट जारी करने का दौर आपातकाल के बाद आया। सन् 1970-80 के बीच तक साइंस का क्रेज था। इसके बाद व्यावसायिक दौर का चलन शुरू हुआ और डीयू में कॉमर्स कोर्स का क्रेज बढ़ा। जाकिर हुसैन कॉलेज के प्राचार्य डा. असलम मोहम्मद परवेज कहते हैं कि 1971 से अब तक का यूनिवर्सिटी दौर बहुत ही बदलाव वाला है। लेकिन यह बदलाव चैन सिस्टम पर आधारित हैं। जिस अनुपात में दिल्ली की जनसंख्या बढ़ी उस अनुपात में स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालयों का निर्माण नहीं हो सका, जो नए कॉलेज व विश्वविद्यालय बने, वे आटे में नमक अनुपात के बराबर हैं। बोर्ड छात्रों को अधिक अंक दे रहे हैं क्योंकि बच्चों पर अभिभावकों का अत्याधिक दबाव है। वह बच्चों को हर प्रतियोगिता में श्रेष्ठ अंक बनाने वाली मशीन के रूप में देखना चाहते हैं। लोगों की सोच बदल रही है। शायद इसीलिए आत्महत्या के मामले भी बढ़ रहे हैं(एस के गुप्ता,दैनिक जागरण,दिल्ली,18.6.11)।

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