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17 जून 2011

कोषकार अरविंद कुमार को शलाका सम्मान

हिंदी अकादमी ने वर्ष २०१०-११ के अपने पुरस्कारों की घोषणा कर दी है। इस अकादमी का सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार "शलाका सम्मान" हिंदी भाषा को पहला थिसारस समांतर कोश देने वाले अरविंद कुमार को दिया गया है। अकादमी के अन्य पुरस्कार जैसे "गद्य सम्मान" प्रोफेसर परमानंद श्रीवास्तव, "विशिष्ट योगदान सम्मान" रमणिका गुप्ता, "काव्य सम्मान" गिरधर राठी, "ज्ञान-प्रौद्योगिकी सम्मान" बृज मोहन बख्शी, "बाल साहित्य सम्मान" कृष्ण शलभ, "नाटक सम्मान" प्रोफेसर देवेंद्र राज अंकुर एवं "हास्य सम्मान" डॉ.आलोक पुराणिक को देने का निर्णय लिया गया है। शलाका सम्मान के लिए दो लाख तो अन्य पुरस्कारों के लिए प्रत्येक को ५०,००० सहित ताम्र पत्र व शॉल भेंट की जाएगी। अकादमी के सचिव प्रोफेसर रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव "परिचय दास" ने बताया कि सुप्रसिद्ध साहित्यकार व ज्ञानपीठ पुरस्कार चयन समिति के अध्यक्ष डॉ.सीताकांत महापात्र २४ जून को शाम ५.३० बजे दिल्ली सचिवालय सभागार में यह पुरस्कार प्रदान करेंगे। कुमार इससे पहले महाराष्ट्र राज्य हिंदी अकादेमी द्वारा "हिंदी सेवा सम्मान" और केंद्रीय हिंदी संस्थान द्वारा "डॉक्टर हरदेव बाहरी सम्मान" से भी नवाजे जा चुके हैं। इस प्रतिष्ठित पुरस्कार की घोषणा के तुरंत बाद जब हमने अरविंद कुमार से पहली प्रतिक्रिया मांगी तो उन्होंने कहा, "ऐसे पुरस्कार आह्लादित-प्रेरित तो करते ही हैं, बीते दिनों में झांकने को भी मजबूर करते हैं। और तब यकीन ही नहीं होता कि वर्षों पहले मैंने दिल्ली के एक प्रेस में बालश्रमिक के तौर पर जीविकोपार्जन की शुरुआत की थी। उन दिनों डिस्ट्रीब्यूशन के उस्ताद मुहम्मद शफी के लिए चाय-बी़ड़ी लाते-लाते ही मैंने कंपोजीटर, मशीन मैन, कैशियर और प्रूफ रीडर के रूप में प्रगति की। शाम के वक्त टीचिंग केंद्रों और कॉलेजों में जाते-जाते उप संपादक, सह संपादक बनता हुआ "माधुरी" जैसी प्रसिद्ध फिल्म पत्रिका का संपादक बना।"


मेरठ में पैदा हुए अरविंद कुमार ने अपनी भाषा से गहरे स्तर पर प्यार किया। इसका प्रमाण है कि हिंदी में विभिन्न प्रकार के शब्दकोषों की कमी महसूस करने पर उन्होंने बिना किसी आर्थिक भरोसे के "माधुरी" का संपादन छो़ड़कर दिल्ली का रुख किया(विवेकानंद झा,नई दुनिया,दिल्ली,17.6.11)।

बाल श्रमिक से शब्दाचार्य तक की यात्रा
हम नींव के पत्थर हैं तराशे नहीं जाते। सचमुच अरविंद कुमार नाम की धूम हिंदी जगत में उस तरह नहीं है, जिस तरह होनी चाहिए लेकिन काम उन्होंने कई बड़े-बड़े किए हैं। हिंदी जगत के लोगों को उनका कृतज्ञ होना चाहिए। दरअसल अरविंद कुमार ने हिंदी थिसारस की रचना कर हिंदी को जो मान दिलाया है, वि की श्रेष्ठ भाषाओं के समकक्ष ला कर खड़ा किया है, वह न सिर्फ अद्भुत है बल्कि स्तुत्य भी है। कमलेर उन्हें शब्दाचार्य कहते थे। हिंदी अकादमी, दिल्ली ने हिंदी भाषा और साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान के लिए वर्ष 2010-2011 की हिंदी अकादमी शलाका सम्मान से सम्मानित करने का जो निर्णय लिया है, वास्तव में यह बहुत पहले ले लिया जाना चाहिए था। अरविंद कुमार ने 81 वर्ष की उम्र के इस पड़ाव पर भी खामोशी अख्तियार नहीं की है। वह लगातार काम पर काम किये जा रहे हैं। नया काम उनका अरविंद लैक्सिकन है। आजकल हर कोई कंप्यूटर पर काम कर रहा है। किसी के पास न तो इतना समय है न धैर्य कि कोश या थिसारस के भारी भरकम पोथों के पन्ने पलटे। आज चाहिए कुछ ऐसा जो कंप्यूटर पर हो या इंटरनेट पर। अभी तक उनकी सहायता के लिए कंप्यूटर पर कोई हैंडी और तात्कालिक भाषाई उपकरण या टूल नहीं था। अरविंद कुमार ने यह दुविधा भी दूर कर दी है अरविंद लैक्सिकन दे कर। यह ई-कोश हर किसी का समय बचाने के काम आएगा। अरविंद लैक्सिकन पर 6 लाख से ज्यादा अंगरेजी और हिंदी अभिव्यक्तियां हैं। माउस से क्लिक कीजिए - पूरा रत्नभंडार खुल जाएगा। किसी भी एक शब्द के लिए अरविंद लैक्सिकन इंग्लिश और हिंदी पर्याय, सपर्याय और विपर्याय देता है, साथ ही देता है परिभाषा, उदाहरण, संबद्ध और विपरीतार्थी कोटियों के लिंक। उदाहरण के लिए सुंदर शब्द के इंग्लिश में 200 और हिंदी में 500 से ज्यादा पर्याय हैं। किसी एकल इंग्लिश ई-कोश के पास भी इतना विशाल डाटाबेस नहीं है। लेकिन अरविंद लैक्सिकन का सॉफ्टवेयर बड़ी आसानी से शब्द कोश, थिसारस और मिनी ऐनसाइक्लोपीडिया बन जाता है। इसका पूरा डाटाबेस अंतर्सांस्कृतिक है, अनेक सभ्यताओं के सामान्य ज्ञान की रचना करता है। शब्दों की खोज इंग्लिश, हिंदी और रोमन हिंदी के माध्यम से की जा सकती है। रोमन लिपि उन सब को हिंदी सुलभ करा देती है, जो देवनागरी नहीं पढ़ सकते या टाइप नहीं कर सकते। अरविंद लैक्सिकन को माइक्रोसॉफ्ट ऑफिस के साथ-साथ ओपन ऑफिस में पिरोया गया है। इसका मतलब है कि आप इनमें से किसी भी एप्लीकेशन में अपने डॉक्यूमेंट पर काम कर सकते हैं। सुखद यह है कि दिल्ली सरकार के सचिवालय ने अरविंद लैक्सिकन को पूरी तरह उपयोग में ले लिया है। अरविंद कहते हैं कि शब्द मनुष्य की सबसे बड़ी उपलब्धि है, प्रगति के साधन और ज्ञान-विज्ञान के भंडार हैं, शब्दों की शक्ति अनंत है। वह संस्कृत के महान व्याकरणिक महषर्ि पतंजलि को कोट करते हैं, ‘सही तरह समझे और इस्तेमाल किये गये शब्द इच्छाओं की पूर्ति का साधन हैं।’

दरअसल भाषाई उपकरण बनाने का काम भारत में हजारों साल पहले ही शुरू हो गया था। जब प्रजापति कश्यप ने वैदिक शब्दों का संकलन ‘निघंटु’ बनाया और बाद में महषर्ि यास्क ने संसार का सबसे पहला ऐनसाइक्लोपीडिक कोश ‘निरुक्त’ बनाया। इसे पराकाष्ठा पर पहुंचाया छठी-सातवीं शताब्दी में अमर सिंह ने ‘अमर कोश’ द्वारा और 1996 में जब समांतर कोश नाम से हिंदी थिसारस नेशनल बुक ट्रस्ट ने प्रकाशित किया तो हिंदी में बहुतेरे लोगों की आंखें फैल गईं। क्योंकि हिंदी में बहुत सारे लोग थिसारस के कंसेप्ट से ही वाकिफ नहीं थे। और अरविंद कुमार चर्चा में आ गए थे। वह फिर चर्चा में आए हिंदी-अंगरेजी थिसारस तथा अंगरेजी-हिंदी थिसारस और भारत के लिए बिलकुल अपना अंगरेजी थिसारस के लिए। इसे पेंग्विन ने छापा था। अब वह फिर चर्चा में हैं अरविंद लैक्सिकन तथा हिंदी अकादमी शलाका सम्मान से सम्मानित हो कर। उम्र के 81वें वसंत में अरविंद कुमार इन दिनों कभी अपने बेटे डॉक्टर सुमीत के साथ पांडिचेरी में रहते हैं तो कभी गाजियाबाद में। इन दिनों वह गाजियाबाद में हैं। अरविंद कुमार को कड़ी मेहनत करते देखना हैरतअंगेज ही है। सुबह 5 बजे वह कंप्यूटर पर बैठ जाते हैं। बीच में नाश्ता, खाना और दोपहर में थोड़ी देर आराम के अलावा वह रात तक कंप्यूटर पर जमे रहते हैं। अरविंद कुमार पत्नी कुसुम कुमार के साथ यह काम कर रहे हैं। समांतर कोश पर तो वह पिछले 35-36 सालों से लगे हुए थे। अरविंद हमेशा कुछ श्रेष्ठ करने की फिराक में रहते हैं। एक समय टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप से प्रकाशित फिल्म पत्रिका माधुरी के न सिर्फ वह संस्थापक संपादक बने, उसे श्रेष्ठ फिल्मी पत्रिका भी बनाया। माया नगरी मुंबई में तब शैलेंद्र और गुलजार जैसे गीतकार, किशोर साहू जैसे अभिनेताओं से उन की दोस्ती थी और राज कपूर सरीखे निर्माता-निर्देशकों के दरवाजे उन के लिए हमेशा खुले रहते थे। बहुत कम लोग जानते हैं कि अमिताभ बच्चन को फिल्मफेयर पुरस्कार के लिए अरविंद कुमार ने ही नामित किया था। न सिर्फ इतना बल्कि ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्म ‘सात हिंदुस्तानी’ के लिए स्क्रीन टेस्ट में अरविंद कुमार ने ही अमिताभ बच्चन को चुना था। तो ऐसी माया नगरी और ग्लैमर की ऊभ-चूभ में डूबे अरविंद कुमार ने हिंदी थिसारस तैयार करने के लिए 1978 में 16 साल की माधुरी की नौकरी छोड़ दी। मुंबई छोड़ दी। चले आए दिल्ली। लेकिन जल्दी ही आर्थिक तंगी ने मजबूर किया और खुशवंत सिंह की सलाह पर अंतरराष्ट्रीय पत्रिका रीडर्स डाइजेस्ट के हिंदी संस्करण सवरेत्तम रीडर्स डाइजेस्ट के संस्थापक संपादक हुए। लेकिन थिसारस के काम में फिर बाधा आ गयी। अंतत: सवरेत्तम छोड़ दिया। अब आर्थिक संकट भी नहीं था। डॉक्टर बेटा सुमीत अपने पांव पर खड़ा था और बेटी मीता लाल दिल्ली के इरविन कॉलेज में पढ़ाने लगी थी। अरविंद कुमार कहते हैं कि थिसारस हमारे कंधे पर बैताल की तरह सवार था, पूरा तो इसे करना ही था। बाधाएं बहुत आयीं। एक बार दिल्ली के मॉडल टाउन में बाढ़ आई। पानी घर में घुस आया। थिसारस के लिए संग्रहित शब्दों के काडरें को टांड़ पर रख कर बचाया गया। बाद में बेटे सुमीत ने उनके लिए न सिर्फ कंप्यूटर खरीदा बल्कि एक कंप्यूटर ऑपरेटर भी नौकरी पर रख दिया। थिसारस का काम निकल पड़ा। और न सिर्फ थिसारस के रूप में समांतर कोश बल्कि शब्द कोश और थिसारस दोनों ही के रूप में अरविंद सहज समांतर कोश भी हमारे सामने आ गया। हिंदी- अंगरेजी थिसारस भी आ गया। अरविंद न सिर्फ श्रेष्ठ रचते हैं बल्कि विविध भी रचते हैं। विभिन्न देवी-देवताओं के नामों वाली किताब शब्देरी की चर्चा न करें तो गलत होगा। गीता का सहज संस्कृत पाठ और सहज अनुवाद भी सहज गीता नाम से अरविंद कुमार ने किया और छपा। शेक्सपियर के जूलियस सीजर का भारतीय काव्य रूपांतरण विक्रम सैंधव नाम से किया, जिसे इब्राहिम अल्काजी जैसे निर्देशक ने निर्देशित किया। एक समय जब उन्होंने सीता निष्कासन कविता लिखी थी तो पूरे देश में आग लग गई थी। सरिता पत्रिका जिस में यह कविता छपी थी देश भर में जलायी गयी। अरविंद कुमार जितना जटिल काम अपने हाथ में लेते हैं, निजी जीवन में वह उतने ही सरल, उतने ही सहज और उतने ही व्यावहारिक हैं। तो शायद इसलिए भी कि उन का जीवन इतना संघषर्शील रहा है कि कल्पना करना भी मुश्किल होता है कि कैसे यह आदमी इस मुकाम पर पहुंचा। बहुत कम लोग जानते हैं कि अमरीका सहित लगभग आधी दुनिया घूम चुके यह अरविंद कुमार जो आज शब्दाचार्य हैं, एक समय बाल श्रमिक भी रहे हैं। हैरत में डालती है उन की यह यात्रा कि जिस दिल्ली प्रेस की पत्रिका सरिता में छपी सीता निष्कासन कविता से वह चर्चा के शिखर पर आए उसी दिल्ली प्रेस में वह बाल श्रमिक रहे। वह जब बताते हैं कि लेबर इंस्पेक्टर जांच करने आते थे तो पिछले दरवाजे से अन्य बाल मजदूरों के साथ उन्हें कैसे बाहर कर दिया जाता था तो उन की यह यातना समझी जा सकती है। तो भी वह बाल मजदूरी करते हुए पढ़ाई भी करते रहे। दिल्ली यूनिवर्सिटी से अंगरेजी में एमए किया और दिल्ली प्रेस में डिस्ट्रीब्यूटर, कंपोजिटर, प्रूफ रीडर, उप संपादक, मुख्य उप संपादक और फिर सहायक संपादक तक की यात्रा अरविंद कुमार ने पूरी की। और कैरवां जैसी अंगरेजी पत्रिका भी निकाली। सरिता, मुक्ता, चंपक तो वह देखते ही थे। सचमुच अरविंद कुमार की जीवन यात्रा देख कर मन में न सिर्फ रोमांच उपजता है बल्कि आदर भी। तिस पर उन की सरलता, निश्छलता और बच्चों सी अबोधता उन की विद्वता में समुंदर सा इजाफा भरती है। यह एक विरल संयोग ही है कि अरविंद उसी मेरठ में जन्मे हैं जहां खड़ी बोली यानी हिंदी जन्मी। (दयानंद पाण्डेय,राष्ट्रीय सहारा,17.6.11)

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