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25 जून 2011

चंडीगढ़ःबचपन में ही बन रहे हैं बैचलर ऑफ एटिकेट

शहर में ऐसे कई फिनिशिंग स्कूल चल रहे हैं जो बच्चों को डायनिंग टेबल से लेकर ड्राइंग रूम तक के सलीके सिखा रहे हैं। उन्हें बता रहे हैं कि किससे, कब और कैसे बिहेव करना है। मगर कितना सही या गलत है बचपन में बच्चों पर एटिकेट का पाठ पढ़ाना, एकता सिन्हा की रिपोर्ट:

आए दिन अखबार में किसी न किसी इंस्टिट्यूट का पैंफलेट घर पहुंच ही जाता है। इनमें सबसे ज्यादा होते हैं पर्सनैलिटी डिवेलपमेंट और एटिकेट सिखाने वाले इंस्टिट्यूट। बचपन संवारने की पाठशाला के पीछे हर किसी की अपनी कहानी है। सेक्टर-23 में ‘कुटलेहर इंस्टिट्यूट ऑफ प्रोटोकॉल एंड एटिकेट’ चला रहीं ओमकारेश्वरी पाल की भी इसे खोलने की अपनी वजह है।

वह कहती हैं, ‘एक दिन रेस्त्रां में बैठे बच्चे और उसकी फैमिली को देखा। मां अपने चार साल के बच्चे पर ध्यान नहीं दे रही थी। बच्च बार-बार सवाल पूछ रहा था और मां उसे नजरअंदाज कर दूसरों के साथ गप्पें मारने में व्यस्त थी। जैसे ही उनका खाना खत्म हुआ टेबल पर फिंगर बॉउल आया। बच्चे ने पहले की तरह फिर पूछा, यह क्या है? मां से जवाब नहीं मिला तो बच्चा उसे उठाकर पीने लगा। यह देखकर मां को शर्म आ गई और वह उसे डांटने लगी। उस दिन मुझे लगा कि बच्चों को इस ट्रेनिंग की जरूरत है।’


अब बचपन की हरकतें नहीं 

सेक्टर-18 में रहने वाली रमनीक सिद्धू अपने दोनों बच्चों को विदेश पढ़ने भेजना चाहती हैं। इसलिए रेस्त्रां में नैपकीन के यूज से लेकर वेटर से बात करने और हैंड शेक करने के तरीके तक बताने में जुटी हैं सिद्धू। वह कहती हैं, ‘वैसे तो बच्चे स्मार्ट हैं मगर मगर मैंने उन्हें सोशलाइज होने के लिए एटिकेट स्कूल में भेजा है।’ फिनिशिंग स्कूल जाने वाली 12 साल की अनायना को यह स्कूल बोरिंग नहीं लगता है। 

वह कहती हैं, ‘पहले सबके सामने बोलने में झिझक थी। मगर अब मुझे पता है कि क्या बोलना है और कितना बोलना है। अब मैं न केवल नाइफ एंड फोक बल्कि चॉपस्टिक यूज करना सीख गई हूं।’ वहीं नौ साल के कुं वर अभिराज ने फिनिशिंग स्कूल जाकर रेस्त्रां में हैंकी यूज करना और टेलीफोन पर बात करना सीखा है। सात साल का रोहन पिछले एक साल से फिनिशिंग स्कूल जा रहा है। वह कहता है, ‘पहले मैं बेड पर कूदता और कारपेट खराब कर देता था। अब यहां आकर पता चल गया है कि इन हरकतों से मम्मा को कितनी प्रॉब्लम होती है।’

माहौल सिखाता है बहुत कुछ 

ओमकारेश्वरी कहती हैं कि पेरंट्स भी बच्चों को मैनर्स सिखा सकते हैं। मगर वे उतना ही सिखा पाएंगे जितना वे खुद जानते हैं। ‘जब डर होता तो गलतियां भी सौ होती हैं। ऐसे में ये स्कूल बच्चे को इस डर से मुक्त करते हैं। मैनर्स का मतलब सिर्फ फोर्क से खाना ही नहीं है, अगर कॉन्फिडेंस के साथ हाथ से भी खा रहे हैं तो वह मैनर्स ही हैं।’ इस बात पर सहमति जताते हुए सेक्टर-18 में ‘मेक लिटिल एंजेल सोशलाइज’ की सुरेखा गुलाटी भी कहती हैं, ‘अब बच्चे भी स्मार्ट हो गए हैं। 

उन्हें भी पता है कि पार्टी या किसी फंक्शन में जाकर कैसे बिहेव करना है। मगर कुछ पेरंट्स के पास टाइम की कमी तो कहीं नॉलेज कम है। इसलिए उन्हें बच्चों को ऐसी जगह भेजना पड़ता है जहां मैनर्स सिखाए जाएं। कई लोग यह भी कहते हैं कि यहां ऐसा क्या सिखाया जाता है जो बच्च घर पर नहीं सीख सकता। खास कुछ नहीं है बस एक माहौल है जिसमें यहां बच्च जल्दी चीजों को सीख जाता है।’

सोसाइटी का प्रेशर इतना है कि पेरंट्स सोचते हैं कि अगर उनका बच्च फिनिशिंग स्कूल नहीं गया तो पिछड़ जाएगा। इसलिए ऐसे स्कूल भी आ गए हैं जहां छह-सात महीने के बच्चों को भी सोशलाइज किया जाता है।

शेरी सभरवाल, सोशल साइंटिस्ट

बच्चों को रॉबोट की तरह आदेश मानने के लिए तैयार करना सही नहीं है। यहां बच्चों को इमोशंस को काबू करना या कहें कि इमोशंस को मारना सिखाया जा रहा है। 

गौरव, सोशल साइंटिस्ट, पीयू(दैनिक भास्कर,चंडीगढ़,25.6.11)

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