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27 जून 2011

धोखाधड़ी की शिक्षा

जिस देश में फर्जी मृत्यु प्रमाणपत्र से किसी का बीमा दावा प्राप्त किया जा सके, फर्जी सनदों से किसी की सम्पत्ति हड़पी जा सके और प्रभावित लोग अपने जिंदा होने का प्रमाणपत्र लेकर स्वयं के हक-ओ-हुकूक के लिए विभिन्न महकमों से लेकर कोर्ट-कचहरी के धक्के खाते फिरें, अवैध ढंग से ‘मृत’ घोषित ऐसे लोगों को संघ बनाकर आंदोलन करना पड़े, वहां किसी तरह का फर्जी कार्य अब अचरज की बात नहीं है। फिर भी कई विसंगतियों के बावजूद फर्जी जाति प्रमाण पत्र के जरिये दिल्ली विविद्यालय में आरक्षित कोटे से प्रवेश दिलाने वाले गिरोह का पर्दाफाश होना कई प्रश्न खड़े करता है। दिल्ली पुलिस ने इस मामले में जिन लोगों को गिरफ्तार किया है, वे प्रवेश में असफल सामान्य श्रेणी के छात्रों को ओबीसी/अनुसूचित जाति का फर्जी प्रमाण पत्र उपलब्ध करवा कर उन्हें किसी भी स्नातक पाठय़क्रम में प्रवेश दिलाते थे। शुरुआती जांच में ऐसे दर्जनभर छात्रों का पता चला है जिन्होंने इस गिरोह की मदद से प्रवेश में सफलता पायी। इस कार्य के लिए यह गिरोह छात्रों से भारी राशि वसूलता था। हालांकि फर्जी सनदों के आधार पर प्रवेश पा लेना नयी बात नहीं है। कई संस्थानों में इस तरह की खबरें आती रही हैं। हाल ही में फर्जी प्रशिक्षण प्रमाणपत्र के आधार पर हवाई जहाज तक उड़ाने वाले पायलटों का मामला सामने आ चुका है। हकीकत क्या है, यह शायद पता न चल सके, पर देश के मौजूदा सेनाध्यक्ष की जन्मतिथि में घालमेल का मामला अभी जांच के घेरे में ही है। दिल्ली विविद्यालय देश के सर्वाधिक प्रतिष्ठित विविद्यालयों में है। इस विविद्यालय या इसके किसी कॉलेज के किसी संकाय में प्रवेश पाना देश में किसी छात्र के लिए गौरवपूर्ण बात समझी जाती है। आम मान्यता है कि बहुत मेधावी व प्रतिभासम्पन्न छात्र ही इस विविद्यालय में प्रवेश पाते हैं। हाल ही में इसी विशिष्टता के कारण जब इस विविद्यालय के कुछ शीर्ष कॉलेजों में शत-प्रतिशत अंक पाने वाले को ही पहले कट ऑफ में प्रवेश सूची में स्थान पाने की बात आयी तो बहुत होहल्ला हुआ। बहरहाल, फर्जी जाति प्रमाण पत्र के जरिये प्रवेश दिलाने का कारोबार संस्था के सम्बंधित लोगों की मिलीभगत बिना नामुमकिन लगता है, क्योंकि आज क्रॉस-चेक की अनेक सुविधाएं उपलब्ध हैं। इन्हें इतनी प्रतिष्ठित संस्था ने सुनिश्चित क्यों नहीं किया? लेकिन इससे भी बड़ा सवाल यह है कि जब एक तरफ देश विकास की अनेक मंजिलें बनाता जा रहा है, उस दौर में किसी एक या ऐसी संस्थाओं को ऐसी हैसियत क्यों मिल जाती है कि वे लोगों में किसी भी तरह से प्रवेश पाने का आत्मघाती जज्बा भर दें? यह भी अहम है कि हम कब तक राजनीतिक हितों के लिए आरक्षण के नाम पर देश के लोगों को ऐसी झूठी प्रतिस्पर्धा के लिए होमते रहेंगे? वक्त आ गया है कि इस पर सम्यक ढंग से विहित विचार विमर्श हो(राष्ट्रीय सहारा,27.6.11)।

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