मुख्य समाचारः

सम्पर्कःeduployment@gmail.com

14 जुलाई 2011

दाखिले का अंकगणितःमृणाल पांडेय

लेखक जीके चेस्टरटन ने कहा था कि शिक्षा के माध्यम से पुरानी पीढ़ी अगली पीढ़ी में अपनी आत्मा का प्रवेश कराती है। अपनी परंपरा भी मानती है कि समय आने पर अजर-अमर आत्मा एक जीर्ण उतरन की तरह पुरानी काया त्यागकर नई काया धारण करती है। लेकिन देश की मौजूदा उच्च शिक्षा प्रणाली के मार्फत नई पीढ़ी में पुरानी पीढ़ी की आत्मा का सहज अवतरण लगभग असंभव है।

राजनीतिक वजहों से बार-बार आमूलचूल बदली गई नीतियों ने विश्वविद्यालयीन परिसरों को प्रतिभा और शोध को बढ़ावा देने के बजाय परीक्षा और दाखिला प्रणालियों के चक्रव्यूह से घिरे दुर्गो में बदल दिया है। उनके प्रवेश द्वार पर फंसे अनेक मेधावी छात्र और शोधार्थी तो अक्सर उबर नहीं पाते, लेकिन कोटा प्रणाली के तहत लटकाई गई कमंदों से मंझोले स्तर के कई छात्र मजे से भीतर खींच लिए जाते हैं। नतीजा यह कि परिसरों में कुंठा और मीडियाक्रिटी बढ़ रही है, ज्ञान का स्तर नहीं।

इस साल दिल्ली के कुछ जाने-माने कॉलेजों में गणित, कॉमर्स और अर्थशास्त्र सरीखे चहेते विषयों में दाखिला पाने की अर्हता (कट ऑफ) दर सौ फीसदी तक जा पहुंची है। फिर भी बताया गया है कि दाखिला खुलने के हफ्तेभर के भीतर वहां उपलब्ध सामान्य श्रेणी की सब सीटें भर गईं।

नतीजतन नब्बे प्रतिशत तक अंक पाकर भी मनचाहे विषय से वंचित रहने जा रहे छात्रों की तादाद बहुत अधिक है। कुछ टॉपर भी मनचाहे विषयों में दाखिला नहीं पा सके। कॉलेज मजबूर हैं, साधन या क्षमता से अधिक सीटों पर दाखिले वे कहां तक करें?

उनकी टीचिंग फैकल्टी में अनेक महत्वपूर्ण विषयों की आरक्षित सीटें विज्ञापन देकर भी समुचित आवेदक न मिल पाने से खाली पड़ी हैं। यह सीटें गैर कोटा श्रेणी के शिक्षकों से भरना मना है, इसलिए वे अपने यहां तदर्थवादी आधार पर लेक्चररों की नियुक्ति को विवश हैं। तिस पर अब मांग हो रही है कि कॉलेजों में लेक्चररों की नियुक्ति ही नहीं, प्रोफेसर या डीन सरीखे सीनियर पदों पर उनकी प्रोन्नति भी कोटा प्रणाली के ही आधार पर ही हो, ज्ञान या शोध कार्य की गुणवत्ता के तहत नहीं।

पुरानी जातिवादी व्यवस्था में उच्च शिक्षा सवर्णो की ही बपौती रही। उसे चुनौती देने को जातीय कोटा प्रणाली बनी, पर आज हम देख रहे हैं कि उच्च शिक्षा के नामी केंद्रों में गुरु-शिष्यों का चयन और उनके बीच ज्ञान के आदान-प्रदान का आधार ज्ञान और अनुभव के बजाय दोबारा एक जाति-धर्म आधारित प्रणाली पर ही आ टिका है और परिसरों में नई तरह की सवर्ण व्यवस्था बन रही है, जो उच्च शिक्षित युवाओं को समतामुखी और समाजोपयोगी बनाने के बजाय नई तरह का विभेदकारी सवर्ण बना रही है।

उधर छात्रों की तादाद, महत्वाकांक्षा के साथ समाज में पैसे का स्तर बढ़ने से मोटी फीस के आधार पर दाखिला देने वाले (अक्सर विवादित गुणवत्ता वाले) निजी कॉलेजों की बाढ़ आ गई है, जिन तक पहुंच पैसे वालों की ही है। अचरज क्या कि इन कॉलेजों से निकले अधिकतर छात्रों का देश के सामान्य जीवन से कोई रिश्ता नहीं बनता।

यह सही है कि सरकारी निगरानी में बने आईआईटी, आईआईएम, एम्स या पीजीआई जैसे और कई कॉलेजों ने दुनिया में साख बनाई है, पर अब उन पर भी सीटें बढ़ाने और फीस की दर घटाने को लेकर नासमझ समझौते करने को उत्कट दबाव पड़ रहे हैं।


हमारे विपरीत चीन ने उच्च शिक्षा के क्षेत्र में फैकल्टी की गुणवत्ता राजनीतिक या जातिवादी आग्रहों के बजाय शैक्षिक मानदंडों पर सुनिश्चित करने और शोधपरक काम का दायरा निरंतर बढ़ाने की दिशा में इक्कीसवीं सदी की चुनौतियां सही तरह से पकड़कर हमको मीलों पीछे छोड़ दिया है। वहां उच्च शिक्षा लगातार व्यापक, बहुभाषा-भाषी और विश्वस्तरीय बन रही है, जबकि हमारे यहां परिसरों में पुराने शिक्षक किस तरह अपने ज्ञान की परिधि बढ़ाएं? 

नए शिक्षक किस तरह उनकी निगरानी में लगातार तैयार हों और ऊंची तालीम कैसे व्यापक व लोकतांत्रिक बने, ताकि सभी परिसरों में प्रतिभावान छात्रों को मनचाहा विषय पढ़ने की गारंटी हो? इन जरूरी सवालों को दरकिनार कर हर सरकार ने इस तरह के नियम-उपनियम बनाए हैं कि धर्म-जाति निरपेक्ष संविधान के बावजूद हमारी उच्च शिक्षा जातिवाद की जकड़न से मुक्त होने के बजाय दूसरी तरह के जातिवाद की जंजीरों से फिर जकड़ गई है। 

पुराना जातिवाद बेशक गलत था, पर क्या आज का जातिवाद सही या न्यायपरक है? विषमतामय जातिवाद को पोसते रहने की वजह से उच्च शिक्षा पाकर भी हमारे युवा कैसे संकीर्ण और सामंती विचारों वाले ही बने हुए हैं, इसका प्रमाण टीवी बहसों से बॉलीवुड की फिल्मों तक में देखा जा सकता है। 

बिना झेंपे बहुचर्चित ‘जेन एक्स’ के प्रतिनिधि छोटे-बड़े पर्दे पर से बताते रहते हैं कि शुद्ध ज्ञान, शोध या पठन-पाठन कितने उबाऊ हैं। वे बीवी या जॉब का चयन भी शैक्षिक क्षमता नहीं, बल्कि टोटल पैकेज के आधार पर करते हैं या गर्लफै्रंड को प्रभावित करने के लिए चोरी या झपटमारी करना मजाकिया शरारत भर मानते हैं। दायित्वबोध का हाल यह है कि इस साल आईआईटी प्रवेश परीक्षा में टॉप करने वाले छात्र ने कहा कि इंजीनियरी कोर्स उसके कॅरियर की एक सीढ़ी भर होगा, क्योंकि वह अंतत: सिविल सेवा में जाएगा। 

इस स्थिति को स्वागतयोग्य कहें या दिल तोड़ने वाली? या उसे सिर्फ स्वीकार कर लें? स्वीकार करने का मतलब हुआ कि हम मान लें कि उच्च शिक्षा की दुनिया में प्रवेश कर रही हमारी नई पीढ़ी के लिए पढ़ाई का मतलब होगा जाति, नौकरी व धन। बिना जरूरत भी सीट हथियाने या ज्ञान की परंपरा को लगातार आगे न बढ़ा पाने को लेकर उनमें कोई अपराध बोध नहीं होगा। 

हित स्वार्थ जो भी हों, यह तो मानना ही होगा कि यह नया जातिवाद न सिर्फ विषमता को स्थायी बनाकर ज्ञान का सहज विकास कुंठित कर रहा है, साथ ही वह चोर दरवाजों से फर्जी डिग्रियां बांटने वाले कॉलेजों, नकली जाति सर्टिफिकेट बनवाने वाले बाबुओं और ट्यूटोरियल के मार्फत देश में भ्रष्टाचार करने की लाखों नई राहें भी बना रहा है। 

सवाल इस या उस जातिवाद की तुलनात्मक विवेचना का नहीं, सवाल यह है कि उच्चशिक्षा को अगर निरुद्देश्य या किसी कथित अच्छे उद्देश्य से भी कमजोर किया जा रहा हो तो क्या उसे कमजोर होने दिया जाए?(दैनिक भास्कर,26.6.11)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

टिप्पणी के बगैर भी इस ब्लॉग पर सृजन जारी रहेगा। फिर भी,सुझाव और आलोचनाएं आमंत्रित हैं।