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09 अगस्त 2011

विदेश में शिक्षा पाने की मृगतृष्णा

ट्राई वैली विविद्यालय में भारतीय छात्रों के साथ हुई धोखाधड़ी के बाद एक बार फिर अमेरिका के ही वाशिंगटन में छात्रों के साथ धोखाधड़ी का मामला सामने आया है। यूनिवर्सिटी ऑफ नॉर्दन वर्जीनिया में करीब 2400 छात्र पढ़ते हैं, इनमे से करीब 90 फीसद भारत के हैं और ज्यादातर आंध्रप्रदेश के हैं। इस विवि में अमेरिकी अधिकारियों द्वारा की गई छापेमारी में बड़े स्तर पर गड़बड़ियां पाईं गई हैं। यह विवि केवल 50 विदेशी छात्रों को प्रवेश देने की पात्रता रखता है लेकिन इसने हजारों छात्रों को धन कमाने के लालच में भर्ती कर लिया। हालांकि इमिग्रेशन एंड कस्टम एनफोर्समेंट और एफबीआई के अधिकारी भरोसा दिला रहे हैं कि छात्र परेशान न हों क्योंकि उनके पास वैध दस्तावेज हैं और उन्हें दूसरे विवि में प्रवेश दिलाने की कोशिश की जाएगी। लेकिन अधिकारी कुछ भी कहें, फिलहाल तो छात्रों का भविष्य अंधकार में दिख रहा है। वैीकरण और बाजारवाद के चलते उच्च शिक्षा के अध्ययन-अध्यापन में तेजी आई है। शिक्षा कई योरोपीय देशों की डूबती अर्थव्यवस्था संवारने का आधार भी बन रही है। इसी वजह से शिक्षा के व्यापारीकरण और बाजारीकरण को अमेरिका जैसा सख्त मिजाज देश भी प्रोत्साहित कर रहा है। नतीजतन वहां केलिफोर्निया जैसे शहर में कुछ समय पहले ट्राई-वैली नाम का विविद्यालय फर्जी पाया गया था जो वर्षो से विदेशी छात्रों को उच्च शिक्षा के बहाने रिझाकर विदेशी मुद्रा कमाने के गोरखधंधे में लगा था। शिक्षा के वैिक बाजार में आया उछाल कई यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्था को समृद्ध बना रहा है। विकासशील देशों से हर साल हजारों छात्र अमेरिका, आस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, दक्षिण कोरिया, जापान, जर्मनी और कनाडा उच्च शिक्षा हासिल करने जाते हैं। भारत और चीन के छात्र इसमें सबसे ज्यादा रुचि दिखा रहे हैं। इस मामले में से 81 प्रतिशत छात्रों के पंसदीदा देश अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया हैं। 2006 के आंकड़ों का आकलन करें तो ऐसे छात्रों ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था में 18 अरब डॉलर और ऑस्ट्रेलियाई अर्थव्यवस्था में करीब 8 अरब डॉलर का योगदान किया था। मंदी के दौर में लड़खड़ाती अर्थव्यवस्थाओं को स्थिरता देने में इस विपुल धनराशि का महत्वपूर्ण योगदान है। वर्तमान में करीब 24 लाख छात्र विदेशों में पढ़ रहे हैं। इनकी संख्या में और इजाफा हो, इसलिए कई नामचीन देश शिक्षा नीतियों को शिथिल करने के साथ ही शिक्षा-वीजा भी आसान बना रहे हैं। लिहाजा विदेश जाने वाले छात्रों की संख्या बढ़ रही है। ये सारे मामले संस्थागत दोष के हैं। ये विवि एक दशक से भी ज्यादा समय से बाकायदा विज्ञापन देकर गैरकानूनी शिक्षा-व्यापार में छात्रों को छलपूर्वक ठगने में लगे थे। लेकिन अमेरिकी प्रशासन इनको अब पकड़ने में सफल हो पा रहा है। सपने में भी यह नहीं सोचा जा सकता था कि अमेरिका जैसे देश में भी विस्तरीय फर्जी विवि अस्तित्व में हो सकते हैं जो छात्रों को बाकायदा प्रतिस्पर्धा परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद ही दाखिला दे रहे थे। इसी बिना पर अमेरिका दूतावास ने तय अवधि के लिए शिक्षा वीजा भी दिया था। लेकिन वीजा जारी करने में अमेरिका जितनी सख्ती बरतता है, उतनी वह इन विविद्यालयों में अमेरिकी कानून व्यवस्था लागू करने के मामले में क्यों नहीं बरत रहा, यह समझ से परे है। ये विविद्यालय पिछले करीब दस सालों से पात्रता से अधिक छात्रें को प्रवेश दे रहे थे। अब तक न जाने कितने छात्र यहां से फर्जी डिग्री हासिल कर अमेरिका समेत दुनिया के तमाम देशों में नौकरी पा चुके होंगे और इस धोखाधड़ी के खुलासे के बाद उनके भविष्य पर भी खतरे के बादल मंडरा रहे होंगे। इन घटनाओं के लिए वह भारतीय मानसिकता भी दोषी है, जो हर हाल में विदेशी शिक्षा को सर्वश्रेष्ठ मानती है। इसी सोच व आकांक्षा का लाभ आज छोटे-बड़े विदेशी शिक्षा संस्थान उठा रहे हैं। विदेशों में पढ़ाई एक ऐसी होड़ बन गई है कि वहां के शिक्षा संस्थानों में प्रवेश दिलाने के दृष्टिगत भारत में कई एजेंसियां वजूद में आ गई हैं। ये एजेंसियां दिल्ली, मुबंई, कोलकाता, चेन्नई, बंगलूरू और हैदराबाद जैसे महानगरों में छात्रों को दाखिला दिलाने से लेकर पासपोर्ट व वीजा बनाने तक का काम ठेके पर लेती हैं। अमेरिका अथवा ऑस्ट्रेलिया में कौन सा महाविद्यालय अथवा विविद्यालय फर्जी है, इसकी जानकारी इन एजेंसियों के कर्ताधर्ताओं को भी नहीं होती। लिहाजा बिचौलिये इनकी हैसियत का बढ़ा- चढ़ाकर मूल्यांकन कर छात्रों की मंशा को सरलता से भुना लेते हैं। आस्ट्रेलिया में तो ऐसे संस्थान भी वजूद में हैं जो परदेशियों को सिलाई, कढ़ाई, बाल कटाई, रसोई जैसे कायरें में कौशल दक्षता का पाठ पढ़ा रहे हैं। मोटर मैकेनिक और कंप्यूटर के बुनियादी प्रशिक्षण जैसे मामूली पाठ्यक्रम भी यहां विदेशी पूंजी कमाने के लाभकारी माध्यम बने हुए हैं। और भी हैरानी की बात तो तब है जब आस्ट्रेलिया और अमेरिका में भारतीय छात्रों पर लगातार नस्लभेदी मानसिकता के तहत जानलेवा हमले होते रहे हैं। इसके बावजूद छात्र इन देशों में पढ़ने के लिए उतावले हैं। आस्ट्रेलिया में तो पिछले साल ही करीब एक दर्जन से ज्यादा छात्र नस्लभेदी हमलों का शिकार होकर अपनी जान गवां चुके हैं। भारतीय छात्रों के साथ कुछ हादसे अमेरिका में भी हुए हैं। दरअसल भारतीयों की श्रमसाध्य कर्तव्यनिष्ठा का लोहा हरेक देश मान रहा है। लेकिन भारतीयों की यही शालीनता और समर्पित भाव की स्थिति कुछ स्थानीय चरमपंथी समूहों के लिए नागवार हालात पैदा करती रही है। नतीजतन वे इसे स्थानीय नागरिकों के मौलिक अधिकारों के हनन के रूप में देखते हैं और हिंसक बर्ताव के लिए मजबूर हो जाते हैं। बहरहाल भारतीय छात्र और उनके अभिभावकों को ही विदेशी शिक्षा के सम्मोहन से मुक्त होने की जरूरत है(प्रमोद भार्गव,राष्ट्रीय सहारा,9.8.11)।

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