मुख्य समाचारः

सम्पर्कःeduployment@gmail.com

16 नवंबर 2011

भाषा पर मंडरा रहा है खतरा

हमारे भारतीय साहित्य, खासतौर से हिंदी साहित्य पर अस्तित्व का खतरा मंडराना शुरू हो गया है। भाषाओं से ही साहित्य निर्मित होता है और आज हमारी भाषा (हिंदी) ही खतरे में है। अब हिंदी का रचनाकार दूसरी भाषा (इंग्लिश) में जा रहा है। हमारी चीजें हमें स्थानीय भाषा में नहीं मिल रही हैं।

आज हिंदुस्तान में विश्वस्तरीय साहित्य पैदा नहीं हो पा रहा है। ऐसा होने की वजह स्पष्ट है। हमारी बड़ी-बड़ी प्रतिभाएं भारतीय साहित्य में यथेष्ट योगदान नहीं दे रही हैं। हमारी नई पीढ़ी के लोग अगर हिंदी में लिखेंगे ही नहीं, तो आगे चल के वह नष्ट होगी ही। एक समय था जब भाषा का उपयोग करने वाले, भाषा विज्ञानी ही उसका निर्माण करते थे, लेकिन अब बाजार, सरकार निर्णायक बन बैठी है।

जो सत्ता कभी विद्वानों में, जनता में निहित थी, वह अब बाजार में चली गई है। जाहिर है ऐसे में भाषा का स्वरूप बिगड़ेगा, वह नष्ट ही होगा। मैं हिंदी में अन्य भाषाओं के शब्द लेने का भी विरोधी नहीं हूं। यह तो होता ही है।


चिंता इस बात की होनी चाहिए कि भाषा का निर्माण भाषा बनाने वाले करें न कि और दूसरे पूंजीवादी सत्ता केंद्र। वर्तमान में बाजारवाद हर क्षेत्र को प्रभावित कर रहा है, शायद इसीलिए भारतीय साहित्य आज अपने समय की आवाज नहीं बन पा रहा है। आज के साहित्य में मनुष्य की मूलभूत चिंताओं को नजरअंदाज कर वैश्विक चमक-दमक ज्यादा व्यक्त की जा रही है। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि आज हमारा देश गरीबी की उस सीमा पर है जिस पर वह कभी भी नहीं रहा। कृषि प्रधान देश में में किसान का आत्महत्या करना इसका ज्वलंत उदाहरण है। बावजूद इसके इस तरह के मसलों पर साहित्य की प्रतिक्रिया बहुत कम है। 

आज के साहित्यकारों की संवेदना कुंठित हो गई है। वह उस परिमाण में व्यक्त नहीं हो रही, जिस परिमाण में मनुष्य पीड़ित है। साहित्य की भूमिका तो शुरू से प्रतिपक्ष की रही है। वह हमेशा से धन, राजनीति या शस्त्र जैसी विभिन्न सत्ताओं के प्रतिपक्ष में खड़ा होता रहा है। 

वह जनता के साथ, उसके प्रश्नों को,उसकी चिंताओं को व्यक्त करता रहा है। वह युग को मोड़ने की कोशिश करता है, समाज को एक दिशा देने का प्रयत्न करता है। लेकिन दुर्भाग्य से आज वह उस ओहदे पर ही नहीं रहा, कि दुनिया को, समाज को प्रभावित कर सके। (प्रभाकर श्रोत्रिय से अमित स्वप्निल से बातचीत पर आधारित यह आलेख दैनिक भास्कर में 13.11.11 को प्रकाशित है)।

4 टिप्‍पणियां:

  1. सारगर्वित प्रस्तुति....आभार

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत लम्बे समय से कही जा रही बात…हम भी कहते रहे हैं और और लोग भी…लेकिन समस्या का समाधान तो सत्ता के पास है…

    जवाब देंहटाएं
  3. आपकी एक-एक बात सच है और मैं आपकी हर एक बात से सहमत हूँ मगर आज हमारे देश का हमारी भाषा हिन्दी का दुर्भाग्य ही कहेंगे की आज लोगों को हिन्दी बोलने में शर्म आती हैं। खास कर विदेशों में यह बात देखकर मुझे बहुत अफसोस होता है जब चार हिन्दुस्तानी एक साथ खड़े हो कर भी हिन्दी में बात करते नज़र नहीं आते और जब उनके बीच कोई हिन्दी बोले तो उसे ऐसे हीं दृष्टि से देखा जाता है जैसे उसने कोई पाप कर दीया हो। खैर अकेला चना भद नहीं फोड़ सकता जरूरत है संगर्ता से प्रयास करते रहने की ....

    जवाब देंहटाएं
  4. समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है :)

    जवाब देंहटाएं

टिप्पणी के बगैर भी इस ब्लॉग पर सृजन जारी रहेगा। फिर भी,सुझाव और आलोचनाएं आमंत्रित हैं।