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07 दिसंबर 2011

व्यवस्था के कारण छात्र बनते हैं तोतारटंत

आज हमारे देश में दोहरी शिक्षा प्रणाली है। एक ग्रामीण तथा गरीब बच्चों को सरकारी विद्यालयों में मिलने वाली काम चलाऊ शिक्षा और दूसरी जो बड़े शहरों में महँगे विद्यालयों में मिलने वाली ताम-झाम से परिपूर्ण दिखावटी शिक्षा। इतना ही नहीं, आज शिक्षा अधिकार नहीं बल्कि कुछ लोगों का विशेषाधिकार बन गई है। ऐसे में सिर्फ कोचिंग क्लासेज की आलोचना करने से क्या होगा?

अमेरिकी राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार जनरल वेसले क्लार्क ने कहा था कि अगर किसी इच्छुक व्यक्ति के पास आईआईटी की डिग्री हो तो उसे तुरंत अमेरिकी नागरिकता मिल जाएगी। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (आईआईटी) के छात्रों का अंतरराष्ट्रीय बाजार में महत्व का अंदाजा इस अमेरिकी नेता के इस बयान से लगाया जा सकता है। भारत के युवा वर्ग में अमेरिकी वीसा की चाहत एक सपने की तरह जेहन में मचलता रही है। आईआईटी की डिग्री उन्हें यह अवसर आसानी से उपलब्ध कराती है।

माइक्रोसॉफ्ट के मुखिया बिल गेट्स ने एक साक्षात्कार में पूछे गए प्रश्नों के जवाब देते हुए कहा था कि आईआईटियन बतौर सॉफ्टवेयर इंजीनियर उनकी पहली पसंद है लेकिन कुछ दिन पहले जब न्यूयार्क में आईआईटी के भूतपूर्व छात्रों द्वारा आयोजित पीएएन आईआईटी कार्यक्रम में इंफोसिस के संस्थापक एनआर नारायणमूर्ति ने यह कहकर कि आजकल आईआईटी के ८० फीसद छात्र स्तरहीन होते हैं, देश के सामने एक गंभीर प्रश्न खड़ा किया है।

नारायणमूर्ति के अनुसार स्तरहीनता का कारण कोचिंग है और छात्र कोचिंग द्वारा रटंत विद्या के दम पर ही आईआईटी का सफर तय कर रहे हैं। इसमें कोई शक नहीं कि नारायणमूर्ति की बात में कुछ हद तक सच्चाई है लेकिन उन्होंने जो वजह बताई है वह वजह इतनी आसान नहीं है कि कोचिंग क्लासेज पर रटंत विद्या के बढ़ावा देने का आरोप लगाकर पल्ला झाड़ लिया जाए। अगर सच में इस प्रश्न का जवाब पाने का प्रयास किया जाए तो देश की शिक्षा व्यवस्था की कई खामियाँ सामने उभर कर आएँगी।

नारायणमूर्ति सिर्फ २० फीसद छात्रों को स्तरीय बताते हैं तो उन्हें भी जरूर मालूम होना चाहिए कि वे २० फीसद छात्र भी किसी न किसी कोचिंग का सहारा लेते ही हैं। आईआईटी की संयुक्त प्रवेश परीक्षा को पूरी दुनिया के कठिनतम परीक्षाओं में से एक समझा जाता है। लगभग पाँच लाख परीक्षार्थी आईआईटी प्रवेश परीक्षा में अपनी किस्मत आजमाते हैं और सफलता का दर मात्र दो फीसद से भी कम है। अमेरिका जैसे संपन्ना देशों में भी आईआईटी में दाखिले को हॉर्वर्ड, एमआईटी और येल जैसे विश्वविद्यालय के दाखिले से कठिन समझा जाता है और अब स्थिति यह हो गई है कि इतनी प्रतिष्ठित परीक्षा में सफल होने के लिए रट्टा मारने की जरूरत पड़ रही है और कोचिंग संस्थान चाँदी कूट रहे हैं।

आखिर आईआईटी क्यों ऐसे प्रश्नों को पूछने में अक्षम हो रहा है जो रटंत विद्या पर आधारित नहीं हों? क्या प्रश्न बनाने वाली टीम सच में इतनी कमजोर हो चुकी है कि छात्रों को बजाय सृजनात्मक क्षमता की जाँच किए रटंत विद्या पर आधारित प्रश्नों को पूछ कर छात्रों को कोचिंग पर लाखों रुपए खर्च करने पर मजबूर कर रही है। इस तरह के सवालों को पूछकर आईआईटी क्या उन गरीब बच्चों के साथ एक भद्दा मजाक नहीं कर रही है जिनके पास कोचिंग पर खर्च करने के लिए पैसे नहीं हैं? जाहिर है कि प्रश्न बनाने वाले प्रश्न बनाते समय इस बात की कोई परवाह नहीं करते कि उनके प्रश्नों को हल करने के लिए तोता रटंत होना जरूरी हो जाता है।

आईआईटी के प्रश्नकर्ताओं की टीम आज इतनी लापरवाह हो चुकी है कि पिछले साल हिन्दी में पूछे गए प्रश्न ही अटपटे हो गए थे। यहीं नहीं, इस वर्ष तो १८ अंकों के प्रश्न ही गलत पूछ दिए गए। आनन-फानन में आईआईटी को औसत मार्किंग करनी पड़ी यानी जिसने प्रश्नों का हल नहीं किया वह भी १८ अंक का मालिक बन बैठा। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि आईआईटी में रिजल्ट के समय जो रैंक दिए जाते हैं उसमें एक अंक के अंतराल पर सैकड़ों छात्र खड़े होते हैं। ऐसे में सभी अभ्यर्थियों को एकमुश्त १८ नंबर दे देने का आखिर क्या औचित्य हो सकता है?

आज हमारे देश में दोहरी शिक्षा प्रणाली है। एक ग्रामीण तथा गरीब बच्चों को सरकारी विद्यालयों में मिलने वाली कामचलाऊ शिक्षा और दूसरी जो बड़े शहरों में महँगे विद्यालयों में मिलने वाली तामझाम से परिपूर्ण दिखावटी शिक्षा। इतना ही नहीं, आज शिक्षा अधिकार नहीं बल्कि कुछ लोगों का विशेषाधिकार बन गई है। सिर्फ कहने के लिए ही शिक्षा सबके लिए है लेकिन वास्तव में शिक्षा पर धनी वर्ग का वर्चस्व हो गया है। गरीब के लिए तो गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पाना महज एक कल्पना ही है।


अब तो शिक्षा खरीदने की चीज भर बनकर रह गई है। अगर आपके पास पैसे हैं तो अपने बच्चों के लिए शिक्षा को खरीद सकते हैं, वरना मन मसोसने के सिवा आपके पास कोई विकल्प नहीं है। आज बच्चों को स्कूल के स्तर से ही रटवाया जा रहा है। उदाहरण के तौर पर बच्चे जानते हैं कि त्रिभुज का क्षेत्रफल क्या होगा, लेकिन क्यों होगा, यह नहीं जानते हैं। यहाँ तक कि जोड़-घटाव, गुणा तथा भाग की प्रकिया को तो जानते हैं, लेकिन यह प्रक्रिया क्यों अपनाई जाती है और इसका प्रमाण क्या है, यह नहीं जानते हैं। इस तरह रट्टा लगवाने की प्रक्रिया बच्चों के दिमाग में शुरुआत में ही डाल दी जाती है। अब भला उन गरीब छात्रों की छटपटाहट को कौन समझेगा जो बेचारे अपने दम पर कड़ी मेहनत करके प्लस टू तक की पढ़ाई करते हैं लेकिन उन्हें झटका उस वक्त लगता है और कोचिंग नहीं कर पाने के कारण गरीबी का अहसास होता है, जब आईआईटी प्रवेश परीक्षा में पूछे गए प्रश्नों और प्लस के सिलेबस की गहरी खाई को बगैर कोचिंग के पाट पाने में अक्षम हो जाते हैं। सच कहा जाए तो आईआईटी का सिलेबस ही इस तरह का बनाया गया है कि छात्रों के लिए कोचिंग करना अपरिहार्य बन गया है(आनंद कुमार,नई दुनिया,7.12.11)।

3 टिप्‍पणियां:

  1. sikhshaa vyvastaa par bahut hee badhiyaa aalekh likha hai aapne garib ke baare koun sochta hai na pahale kabhi kisi ne socha hai na aage bhi kabhi koi sochega sach kaha aapne sikh ab bas khareedne ki cheez bankar rehgai hai yadi aapke paas paisaa hai to shiksha ko kharida jaa sakta hai ...bahut badhiya saarthak evam sateek abhivyakti...

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  2. samay mile kabhi to aaiyegaa zarur meri post par aapka svagat hai
    http://mhare-anubhav.blogspot.com/

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  3. आनन्द कुमार जो कहें लेकिन ये आई आई टी के महान छात्र भारत के लिए साबित क्या होते हैं? इसकी शिक्षा कौन देता है कि जाओ, अमेरिका के तलवे चाटो? बातें बहुत हैं इस पर…

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