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03 नवंबर 2014

रेलवे के सभी नौ सर्विस काडर होंगे समाप्त

रेलवे यूनियनों के विरोध के बावजूद रेलवे बोर्ड का पुनगर्ठन तय माना जा रहा है। बड़े बदलाव के तहत रेलवे बोर्ड और रेलवे के नौ सर्विस काडर समाप्त किए जा सकते हैं। वहीं, सभी 17 जोनल रेलवे की शक्तियां विक्रेद्रीकृत होंगी। 

अर्थशास्त्री बिबेक देबराय की अध्यक्षता वाली उच्च स्तरीय विशेषज्ञ समिति अगामी फरवरी माह में रेल मंत्री सदानंद गौड़ा को अपनी सिफारिशें सौंप देगी। रेल बजट में रेलवे बोर्ड के स्थान पर नई संस्था की विधिवत घोषणा हो सकती है। 

रेल कर्मचारियों और अधिकारियों की चारों यूनियनों ने अक्तूबर के आखिरी हफ्ते में रेल भवन में उच्च स्तरीय विशेषज्ञ समिति से मुलाकात की थी। यूनियन ने रेलवे बोर्ड के पुर्नगठन और अध्यक्ष की कुर्सी पर किसी आईएएस को बिठाने का विरोध दर्ज कराया। लेकिन विशेषज्ञ समिति का तर्क है कि यदि रेलवे नहीं बचेगी तो यूनियन क्या करेंगी। इसलिए रेलवे बोर्ड का पुर्नगठन नितांत आवश्यक है। समिति के अध्यक्ष बिबेक देबराय ने ‘हिंदुस्तान’ को बताया कि रेलवे बोर्ड का निगमीकरण किया जाएगा। रेलवे की सिविल इंजीनियरिंग, मकैनिकल इंजीनियरिंग, ट्रैफिक, सिग्नल, अकाउंट आदि नौ सर्विस को समाप्त किया जाएगा। रेलवे में सिर्फ एकीकृत सर्विस (इंडियन रेलवे सर्विस) होगी। जिसमें तकनकी और गैर तकनीकी अधिकारी होंगे। 

इस नई व्यवस्था से दूसरे केंद्रीय मंत्रलयों के अधिकारियों का तबादला रेलवे में और रेल अधिकारी को तबादला गैर रेलवे विभागों में संभव होगा। वर्तमान में प्रतिनियुक्ति पर रेल अधिकारी दूसरे मंत्रलयों में तैनात किए जाते हैं। इसके साथ ही रेलवे बोर्ड काडर को समाप्त कर केंद्रीय सचिवालय सेवा में विलय कर दिया जाएगा। रेलवे ट्रैरिफ आथॉरिटी के बजाए समिति ऐसी आथॉरिटी बनाने पर विचार कर रही है जोकि सिर्फ किराया-भाड़ा नहीं बल्कि सुरक्षा, संरक्षा, यात्री सुविधाएं आदि विषयों पर फैसले कर सके। रेलवे बोर्ड की तर्ज पर जोनल मुख्यालयों की शक्तियां विकेंद्रीयकृत की जाएगी। 

देबराय ने कहा कि रेलवे की लेखा प्रणाली (अकाउटिंग सिस्टम) को अंतरराष्ट्रीय स्तर का बनाना आवश्यक है। विश्व बैंक, जायका, एडीबी आदि अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्था से कर्ज लेने के लिए अत्यंत आवश्यक है। देबराय ने कहा कि नवंबर माह में समिति सदस्य कोलकाता, मुंबई, वाराणसी आदि स्थिति जोनल मुख्यालयों व फैक्ट्रियों का दौरा करेंगे। इसके पश्चात दिसंबर में पूर्ण रेलवे बोर्ड की बैठक के बाद अंतिम पोर्ट तैयार कर ली जाएगी। संभवत: अगले साल फरवरी तक समिति अपनी सिफारिशें रेल मंत्री को सौंप देगी। 

सैम पित्रोदा की अध्यक्षता वाली रेलवे की विशेषज्ञ समिति ने 2012 में रेलवे बोर्ड के पुर्नगठन करने की सिफारिश की थी। समिति ने स्पष्ट कहा था कि रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष के स्थान पर किसी आईएएस अधिकारी को बतौर सीईओ (मुख्य कार्यकारी अधिकारी) नियुक्ति किया जाना चाहिए। रेलवे की नीति बनाने और ट्रेन चलाने के कार्य को पृथक किए जाने की जरुरत है। 22 सितंबर को गठित देबराय समिति खन्ना समिति, राकेश मोहन समिति आदि की सिफारिशों का अध्ययन कर चुकी है। इसके अलावा रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष सहित सभी सदस्यों से चर्चा की जा चुकी है। इसमें पूर्व रेलवे बोर्ड अध्यक्ष व सदस्य भी शामिल है(अरविन्द सिंह,अमर उजाला,नई दिल्ली,3 नवम्बर,2014)।

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25 सितंबर 2014

हिंदी और वैज्ञानिक शब्दावली

मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने भारतीय भाषाओं में वैज्ञानिक शब्दावली का कोश तैयार करने का बीड़ा उठाया हुआ है। वर्ष 1961 में संसद में पारित प्रस्ताव के मुताबिक सभी विषयों के लिए सभी भाषाओं में शब्दावली तैयार की जाएगी। हर भाषाई क्षेत्र में कार्यशालाएं आयोजित की जाती हैं, जहां भाषा और विषय के विद्वान एक साथ बैठ कर शब्दों पर बहस करते हैं और शब्दावली बनाते हैं। ऐसे शब्दकोश को तैयार करने का मकसद क्या होना चाहिए? आज तक चला आ रहा पुराना सोच यह है कि तकनीकी शब्दावली भाषा को समृद्ध बनाती है। पर इसमें समस्या यह है कि हमारी भाषाओं में समृद्धि को अक्सर क्लिष्टता और संस्कृतनिष्ठता का पर्याय मान लिया गया है। इसलिए तकनीकी शब्दावली पूरी तरह संस्कृतनिष्ठ होती है। 

इसके पक्ष में कई तर्क दिए जा सकते हैं। वैज्ञानिक शब्दों में भिन्न अर्थों की गुंजाइश कम होती है। संस्कृत में व्याकरण और शब्द-निर्माण के नियमों में विरोधाभास नहीं के बराबर हैं। भाषा जानने वालों को संस्कृत शब्दों में ध्वन्यात्मक सौंदर्य भी दिखता है। पर विद्वानों की जैसी भी मुठभेड़ संस्कृत भाषा में होती रही हो, लोक में इसकी कोई विशेष जगह न कभी थी, और न ही आज है। इस वजह से कोशिश हमेशा यह रहती है कि शब्दों के तत्सम रूप से अलग सरल तद्भव शब्द बनाए जाएं। कइयों में यह गलत समझ भी है कि संस्कृत का हर शब्द हिंदी में स्वाभाविक रूप से इस्तेमाल हो सकता है। इसलिए विद्वानों में यह संशय पैदा नहीं होता कि शब्दावली क्लिष्ट हो रही है। सामान्य छात्रों और अध्यापकों को परेशानी झेलनी पड़ती है। 

इसके विपरीत, मकसद पर एक समझ यह भी है कि शब्दावली ऐसी हो जो विज्ञान सीखने में मदद करे और विषय को रुचिकर बनाए। बीसवीं सदी के प्रख्यात भौतिकीविद रिचर्ड फाइनमैन ने अध्यापकों को दिए एक व्याख्यान में समझाया था कि शब्द महत्त्वपूर्ण हैं, उनको सीखना है, पर पहली जरूरत यह है कि विज्ञान क्या है, यह समझ में आए। ये दो बातें बिल्कुल अलग हैं और खासतौर पर हमारे समाज में जहां व्यापक निरक्षरता और अल्प-शिक्षा की वजह से आधुनिक विज्ञान एक हौवे की तरह है। इस तरह लोकतंत्र के निर्माण में इन दो प्रवृत्तियों की अलग राजनीतिक भूमिका दिखती है। 

तकरीबन हर भारतीय भाषा में इन दो तरह की समझ में विरोध है। हिंदी में यह द्वंद्व सबसे अधिक तीखा बन कर आता है। बांग्ला, तेलुगू जैसी दीगर भाषाओं में उन्नीसवीं सदी तक काफी हद तक संस्कृत शब्दों की आमद हो चुकी थी। हिंदी में इसके विपरीत, जब से कविता से ब्रजभाषा विलुप्त हुई और खड़ी बोली हर तरह से मान्य भाषा बन गई, तद्भव शब्द काफी हद तक बचे रहे, पर तत्सम शब्दों का इस्तेमाल अटपटा लगने लगा। आजादी के बाद कुछ सांप्रदायिक और कुछ सामान्य पुनरुत्थानवादी सोच के तहत हर क्षेत्र में पाठों में तत्सम शब्द डाले गए। उस संस्कृतनिष्ठ भाषा को पढ़-लिख कर तीन-चार पीढ़ियां बड़ी हो चुकी हैं। हिंदी को जबरन संस्कृतनिष्ठ बनाने की यह कोशिश कितनी विफल रही है, यह हम सब जानते हैं। यह समस्या और गंभीर हो जाती है, जब नए कृत्रिम तत्सम या तद्भव शब्द बना कर भाषा में डाले जाते हैं। एक समय था जब लोगों को लगता था कि धीरे-धीरे ये नए कृत्रिम शब्द बोलचाल में आ जाएंगे, पर ऐसा हुआ नहीं है। अब ग्लोबलाइजेशन के दबाव में सरकारों की जन-विरोधी अंगरेजीपरस्त नीतियों और अन्य कारणों से स्थिति यह है कि भाषाएं कब तक बचेंगी, यह सवाल हमारे सामने है। ऐसे में गंभीरता से सोचने की जरूरत है कि इन कोशिशों का मतलब और मकसद क्या हो। अगर हम अपने मकसद में कामयाब नहीं हैं, तो वैकल्पिक तरीके क्या हों। क्या तत्सम शब्दों के अलावा तकनीकी शब्दों को ढूंढ़ने का कोई और तरीका भी है। 

कुछेक उदाहरणों से बात ज्यादा साफ होगी। रसायन के कोश का पहला शब्द अंगरेजी के ऐबरेशन शब्द का अनुवाद ‘विपथन’ है। यह शब्द कठिन नहीं है, ‘पथ’ से बना है, जिसे बोलचाल में इस्तेमाल न भी किया जाए, हर कोई समझता है। ‘विपथ’ कम लोगों के समझ आएगा, जैसे मैथिल भाषियों के लिए यह आम शब्द है। ‘विपथन’ हिंदी के अधिकतर अध्यापकों को भी समझ नहीं आएगा, जबकि अंगरेजी में ऐबरेशन हाई स्कूल पास किसी भी छात्र को समझ में आता है। इसकी जगह अगर ‘भटकना’ से शब्द बनाया गया होता, मसलन ‘भटकन’, तो अधिक लोगों को पल्ले पड़ता। यहां तर्क यह होता है कि संस्कृत के नियमों के अनुसार ‘विपथन’ से कई शब्द बन सकते हैं, पर ‘भटकन’ से ऐसा संभव नहीं है। पर क्यों नहीं? ऐसे पूर्वग्रहों से मुक्त होने की जरूरत है। अज्ञेय और रघुवीर सहाय जैसे कवियों ने हिंदी में कई शब्दों को सरल बनाया और कई नए शब्द जोड़े। 

यह विडंबना है कि एक ओर अखबारों के प्रबंधक संपादकों को अंगरेजी शब्दों का इस्तेमाल करने को मजबूर कर रहे हैं, तो दूसरी ओर बोलचाल के शब्दों के साथ सामान्य खिलवाड़ कर नए शब्द बनाना गलत माना जा रहा है। मसलन कल्पना करें कि कोई ‘भटकित’ शब्द कहे तो प्रतिक्रिया में हिंसा नहीं तो हंसी जरूर मिलेगी। अगर ‘भटक गया’ या ‘भटक चुका’ लिखें तो लोग कहेंगे कि देखो तत्सम होता तो दो शब्द न लिखने पड़ते। 

हिंदी के अध्यापकों के साथ बात करने से मेरा अनुभव यह रहा है कि वैज्ञानिक शब्दावली के अधिकतर शब्द उनकी पहुंच से बाहर हैं। मिसाल के तौर पर अंगरेजी का सामान्य शब्द ‘रीवर्सिबल’ लीजिए। हिंदी में यह ‘उत्क्रमणीय’ है। हिंदी के अध्यापक नहीं जानते कि यह कहां से आया। क्या यह उनका दोष है? इसकी जगह ‘विपरीत संभव’ या और भी बेहतर ‘उल्टन संभव’ क्यों न हो! एक शब्द है ‘अनुदैर्घ्य’- अंगरेजी के ‘लांगिच्युडिनल’ शब्द का अनुवाद है। सही अनुवाद है- दीर्घ से दैर्घ्य और फिर अनुदैर्घ्य। हिंदी क्षेत्र में अधिकतर छात्र इसे अनुदैर्ध्य पढ़ते हैं। ‘घ’ और ‘ध’ से पूरी दुनिया बदल जाती है। ऐसे शब्द का क्या मतलब, जिसे छात्र सही पढ़ तक न पाएं! 

ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं, जहां शब्द महज काले अक्षर हैं और वैज्ञानिक अर्थ में उनका कोई औचित्य नहीं रह गया है। जो शब्द लोगों में प्रचलित हैं, उनमें से कई को सिर्फ इस वजह से खारिज कर दिया गया है कि वे उर्दू में भी इस्तेमाल होते हैं, जैसे कीमिया और कीमियागर जैसे शब्दों को उनके मूल अर्थ में यानी रसायन और रसायनज्ञ के अर्थ में शामिल नहीं किया गया है। यह मानसिकता हम पर इतनी हावी है कि करीब तीस साल पहले मैंने प्रख्यात कथाकार और ‘पहल’ पत्रिका के संपादक ज्ञानरंजन को अपनी चिंता साझा करते हुए लिखा था कि हिंदी में वैज्ञानिक शब्दावली हिंदी-भाषियों के खिलाफ षड़्यंत्र लगता है। इससे जूझने के लिए हमें जनांदोलन खड़ा करने की जरूरत है। शब्दावली बनाने की प्रक्रियाओं के समाजशास्त्रीय विश्लेषण की जरूरत है। ऐसा क्यों है कि हिंदी क्षेत्र के नामी वैज्ञानिक इसमें गंभीरता से नहीं जुड़ते। जो जुड़ते हैं, उनकी भाषा में कैसी रुचि है? यह भी एक तकलीफ है कि पेशे से वैज्ञानिक होना और वैज्ञानिक सोच रखना या विज्ञान-शिक्षा में रुचि रखना एक बात नहीं है। 

अधिकतर वैज्ञानिकों के लिए विज्ञान महज एक नौकरी है। चूंकि पेशे में तरक्की के लिए हर काम अंगरेजी में करना है, इसलिए सफल वैज्ञानिक अक्सर अपनी भाषा में कमजोर होता है। इस बात को ध्यान में रख सत्येंद्रनाथ बोस जैसे महान वैज्ञानिकों ने भारतीय भाषाओं में विज्ञान लेखन पर बहुत जोर दिया था। चूंकि हिंदी क्षेत्र में गरीबी, भुखमरी और बुनियादी इंसानी हुकूक जैसे मुद्दे अब भी ज्वलंत हैं, विज्ञान और भाषा के इन सवालों पर जमीनी कार्यकर्ताओं का ध्यान जाता भी है तो वे सवाल महत्त्वपूर्ण नहीं बन पाए हैं। हिंदी में विज्ञान-कथाओं या विज्ञान-लेखन के अभाव (कुछेक अपवादों को छोड़ कर) के समाजशास्त्रीय कारणों को ढूंढ़ा जाए तो भाषा के सवालों से हम बच नहीं पाएंगे। 

आखिर समस्या का समाधान क्या है। शब्द महज ध्वनियां नहीं होते। हर शब्द का अपना एक संसार होता है। जब वे अपने संसार के साथ हम तक नहीं पहुंचते, वे न केवल अपना अर्थ खो देते हैं, वे हमारे लिए तनाव का कारण बन जाते हैं। खासतौर पर बच्चों के लिए यह गंभीर समस्या बन जाती है। अंगरेजी में हर तकनीकी शब्द का अपना इतिहास है। हमारे यहां उच्च-स्तरीय ज्ञान आम लोगों तक नहीं पहुंच पाया, इसके ऐतिहासिक कारण हैं, जिनमें जाति-प्रथा की अपनी भूमिका रही है। यह सही है कि अंगरेजी में शब्द की उत्पत्ति कहां से हुई, इसे समझ कर उसका पर्याय हिंदी में ढूंढ़ा जाना चाहिए। पर लातिन या ग्रीक तक पहुंच कर उसे संस्कृत से जोड़ कर नया शब्द बनाना किस हद तक सार्थक है- यह सोचने की बात है। 

भाषाविदों के लिए यह रोचक अभ्यास हो सकता है, पर विज्ञान सिर्फ भाषा का खेल नहीं है। आज अगर तत्सम शब्द लोग नहीं पचा पाते तो उनको थोपते रहने से स्थिति बदल नहीं जाएगी। किसी भी शब्द को स्वीकार या खारिज करने का सरल तरीका यह है कि वह हमें कितना स्वाभाविक लगता है, इस पर कुछ हद तक व्यापक सहमति होनी चाहिए। अगर सहमति नहीं बनती तो ऐसा शब्द हटा देना चाहिए, भले ही भाषाविद और पेशेवर वैज्ञानिक उसकी पैरवी करते रहेंं। 

यह संभव है कि जैसे-जैसे वैज्ञानिक चेतना समाज में फैलती जाए, भविष्य में कभी सटीक शब्दों की खोज करते हुए आज हटाए गए किसी शब्द को वापस लाया जाए। पर फिलहाल भाषा को बचाए रखने की जरूरत है। और समय के साथ यह लड़ाई और विकट होती जा रही है। गौरतलब है कि कई तत्सम लगते शब्द सही अर्थ में तत्सम नहीं हैं, क्योंकि वे हाल में बनाए गए शब्द हैं। कृत्रिम शब्दों का जबरन इस्तेमाल संस्कृत भाषा के प्रति भी अरुचि पैदा कर रहा है। यह बात संस्कृत के विद्वानों को समझ में आनी चाहिए। लोक से हट कर संस्कृत का भविष्य सरकारी अनुदानों पर ही निर्भर रहा तो यह पूरे उपमहाद्वीप के लिए बदकिस्मती होगी। 

पर वैज्ञानिक शब्दावली का सरलीकरण आसानी से नहीं होगा। कट्टर पंडितों और उनकी संस्कृत का वर्चस्व ऐसा हावी है, कि सामान्य समझ लाने के लिए भी जनांदोलन खड़ा करना होगा। जब तक ऐसा जनांदोलन खड़ा नहीं होता, हिंदीभाषियों के खिलाफ यह षड़्यंत्र चलता रहेगा। यह भाषा की समृद्धि नहीं, भाषा के विनाश का तरीका है। संभवत: इस दिशा में जनपक्षधर साहित्यकारों को ही पहल करनी पड़ेगी। आखिरी बात यह कि मुद्दा महज तत्सम शब्दों को हटाने का नहीं, बल्कि सरल शब्दों को लाने का है। विज्ञान-चर्चा जब सामान्य विमर्श का हिस्सा बन जाएगी, तो जटिल सटीक शब्दों को वापस लाया जा सकेगा(लाल्टू,जनसत्ता,25 सितम्बर,2014)।

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03 सितंबर 2014

भाषाई उपेक्षा का दंश

भारतीय प्रशासनिक सेवा परीक्षाओं में भारतीय भाषाओं की उपेक्षा और दोयम दर्जे के व्यवहार का मुद्दा कुछ समय से बराबर उठता रहा है। संघ लोक सेवा आयोग की प्रशासनिक सेवाओं के अतिरिक्त भी अधिकतर प्रतियोगी परीक्षाओं में भारतीय भाषाओं की स्थिति ऐसी ही है। प्रश्नपत्रों पर यह स्पष्ट लिखा रहता है कि प्रश्नों के पाठ में भिन्नता होने पर अंगरेजी वाला पाठ मान्य होगा और कई प्रश्नपत्रों में तो यह भी लिखा नहीं होता है, जबकि अक्सर हिंदी पाठ अबूझ और कई बार गलत तक होता है। यह बात विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा से लेकर सामान्य प्रतियोगी परीक्षाओं तक में देखी जा सकती है। इन आंदोलनकारियों को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने भारतीय भाषाओं की इस उपेक्षा को फिर से बहस में ला दिया। 

यह कोई प्रशासनिक सेवाओं का अलग-थलग मसला नहीं है, बल्कि हमारे देश की उस अकादमिक व्यवस्था का एक विस्तार है, जहां भारतीय भाषाओं की इसी तरह की उपेक्षा होती है और जो इन भाषाओं के पठन-पाठन की गतिविधियों और इनके विद्यार्थियों के लिए अकादमिक और पेशेगत अवसरों को सीमित करती है। अगर हम उच्च शिक्षा की स्थिति पर एक नजर डालें तो स्पष्ट हो जाएगा कि सरकारी नीतियां इस असमान व्यवस्था को प्रोत्साहित करती हैं।

आजादी के बाद हमारे राजनीतिक नेतृत्व ने महसूस किया कि अन्य विकासमूलक मानकों पर विकसित देशों की बराबरी करने में हमें वक्त लगेगा, तकनीक और विज्ञान का क्षेत्र ऐसा है जिसमें और जिसके जरिए हम तत्काल विकसित देशों की पंक्ति में जा खड़े होंगे। फलत: हमारी सरकारें (चाहे किसी भी पार्टी की हों) तकनीकी और वैज्ञानिक शिक्षा पर विशेष ध्यान देती हैं, उसके बाद ही सामाजिक विज्ञान के अनुशासनों का स्थान आता है। और अंत में, भाषा और साहित्य जैसे मानविकी के विषय रह जाते हैं। 

अभी हमारे देश में सोलह भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आइआइटी) हैं, जिनमें छह-सात काफी प्रतिष्ठित हैं और अन्य अभी आकार ले रहे हैं। इसके अतिरिक्त तीस राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (एनआइटी) हैं। विज्ञान-शिक्षा के क्षेत्र में पांच भारतीय विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान संस्थान (आइआइएसइआर) हैं। साथ ही, भारतीय विज्ञान संस्थान बंगलुरु, भारतीय प्रतिरक्षा संस्थान, नई दिल्ली के अलावा भी विज्ञान की विभिन्न शाखाओं के लिए कई संस्थान और परिषदें हैं। 

समाज विज्ञान की शिक्षा के क्षेत्र में भी ऐसी कई संस्थाएं हैं- टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान (मुंबई और हैदराबाद), गोखले अर्थशास्त्र और राजनीतिक विज्ञान संस्थान (पुणे), कलिंग सामाजिक विज्ञान संस्थान (भुवनेश्वर), मद्रास विकास अध्ययन संस्थान, विकास अध्ययन संस्थान कोलकाता जैसी कई संस्थाएं हैं। लेकिन भाषा और साहित्य के क्षेत्र में भारतीय भाषा संस्थान मैसूर, केंद्रीय हिंदी संस्थान, सेंट्रल इंस्टीट्यूट आॅन क्लासिकल तमिल जैसी गिनी-चुनी संस्थाओं के अलावा महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय और मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय ही हैं। 

इसी तरह उच्च शिक्षा में शोध के लिए वैज्ञानिक एवं औद्योगिक शोध परिषद (सीएसआइआर), वैज्ञानिक एवं अभियांत्रिकी शोध परिषद (एसइआरसी) जैसी संस्थाएं वैज्ञानिक शोध को प्रोत्साहित करती हैं। समाजविज्ञान के क्षेत्र में इंडियन काउंसिल फॉर सोशल साइंस रिसर्च अकादमिक शोध को बढ़ावा देती है। इसके अलावा समाजविज्ञान के विभिन्न अनुशासनों में भी कई संस्थान हैं। इतिहास के क्षेत्र में ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद और दर्शनशास्त्र के लिए इंडियन काउंसिल फॉर फिलोसोफिकल रिसर्च ऐसी ही परिषदें हैं। इसी तरह नेहरू स्मारक संग्रहालय एवं पुस्तकालय आधुनिक भारत के इतिहास से जुड़े विभिन्न प्रसंगों पर शोध को बढ़ावा देता है। 

ये परिषदें और संस्थाएं न केवल शोध के लिए विभिन्न शोधवृत्तियां देती हैं, बल्कि फील्ड वर्क को भी प्रोत्साहित करती हैं। यही नहीं, ये संस्थाएं संबंधित क्षेत्र में शोध को बढ़ावा देने के उद्देश्य से प्राय: देश के अलग-अलग हिस्सों में शोध पद्धति की कार्यशालाओं का आयोजन करती हैं, जिनमें युवा संकाय सदस्य और शोधार्थी भाग लेते हैं। उक्त सरकारी संस्थाओं के अतिरिक्त कई गैर-सरकारी संस्थाएं भी सामाजिक विज्ञान और विज्ञान के क्षेत्रों में कार्यरत हैं। ये सभी अपने-अपने क्षेत्र में शोध को बढ़ावा देने का काम करती हैं। साथ ही साथ, ये अपनी परियोजनाओं और कार्यक्रमों के जरिए रोजगार के अवसर भी मुहैया कराती हैं। 

वहीं अगर हम भाषा और साहित्य की तरफ नजर डालें तो भारतीय भाषाओं की साहित्य अकादमियों के अलावा कुछ खास है नहीं। उक्त साहित्य अकादमियां और अन्य निजी न्यास या संस्थान भी साहित्यिक पुरस्कारों पर ज्यादा ध्यान देते हैं, नए शोध के लिए शोधवृत्तियां प्राय: नहीं देते और न ही शोध से संबंधित गतिविधियां आयोजित करते हैं। हालांकि इन अकादमियों और निजी न्यासों का दायरा उच्च शिक्षा नहीं है, फिर भी ये पुरस्कारों की स्थापना के साथ कुछ शोधवृत्तियां स्थापित करेंगे तो उस भाषा और साहित्य का शैक्षणिक विस्तार ही होगा। इसलिए ऐसा किया जाना चाहिए। 

हम इस तरह देखते हैं कि सरकारें भारतीय भाषाओं को कोई विशेष महत्त्व नहीं देती हैं। हां, इन भाषाओं के तकनीकी विकास पर अवश्य ध्यान दिया जा रहा है, जिसके तहत प्रगत संगणन विकास केंद्रों (सीडैक), केंद्रीय भारतीय भाषा संस्थान मैसूर, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय नई दिल्ली में बहुत-सी अकादमिक गतिविधियां चल रही हैं। इस पूरी परिघटना की सबसे बड़ी विडंबना है कि भाषा और साहित्य जैसे मानविकी विषयों को रोजगारमूलक शिक्षा के नाम पर नजरअंदाज किया जा रहा है, जबकि बेरोजगारी तो बढ़ ही रही है। सही है कि रोजगार एक आवश्यक तत्त्व है, लेकिन शिक्षा महज रोजगार के लिए नहीं हो सकती। शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को अपने समाज, राजनीति और संस्कृति के यथार्थ से रूबरू कराना भी होता है।

अपने समाज और परिवेश से विद्यार्थियों को जोड़ने और संपूर्ण शिक्षा देने के इसी उद्देश्य से आइआइटी, एनआइटी जैसी तकनीकी संस्थाओं में सामाजिक विज्ञान और मानविकी विभाग भी स्थापित किए गए। उच्च शिक्षा के लिए बनाई गई यशपाल समिति की रिपोर्ट में भी यह एक महत्त्वपूर्ण सिफारिश थी। लेकिन यह फलीभूत नहीं हुई, क्योंकि शायद ही किसी संस्थान में हिंदी या किसी अन्य भारतीय भाषा को स्थान मिला हो। इन सभी संस्थानों के मानविकी और सामाजिक विज्ञान विभागों में सामाजिक विज्ञान के कुछ विषय पढ़ाए जाते हैं, जबकि साहित्य और भाषा के नाम पर अंगरेजी पढ़ाई जाती है, हिंदी या अन्य कोई भारतीय भाषा नहीं। यही स्थिति राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थानों की है। एक-दो अपवाद और हिंदी दिवस जैसी औपचारिकताओं को छोड़ दें तो भारतीय भाषा संबंधी गतिविधियां प्राय: इन संस्थानों में नहीं होतीं। भारतीय प्रबंधन संस्थान तो इस मामले में और भी पीछे हैं।

यही हाल उन निजी विश्वविद्यालयों का है, जो पिछले कुछ वर्षों में धूमधाम से खुले हैं। अधिकतर निजी विश्वविद्यालय विज्ञान, तकनीक, प्रबंधन आदि अध्ययन के लिए ही हैं, जिनमें भाषा-साहित्य के नाम पर बस अंगरेजी है। लेकिन जो निजी विश्वविद्यालय सामाजिक विज्ञान और मानविकी को बराबर स्थान देने का दावा करते हैं, वहां भी प्राय: भारतीय भाषाओं को कोई स्थान नहीं मिलता है। उदाहरण के लिए, एमिटी विश्वविद्यालय में जर्मन, स्पेनिश, फ्रांसीसी और अंगरेजी में स्नातक की पढ़ाई होती है, लेकिन भारतीय भाषाओं में सिर्फ संस्कृत को यह स्थान देता है। जोधपुर नेशनल यूनिवर्सिटी जैसे कुछ ही विश्वविद्यालय भारतीय भाषाओं के पाठ्यक्रम प्रस्तावित करते हैं। 

इन अपवादों को छोड़ दें, तो ऐसे निजी विश्वविद्यालयों की फेहरिस्त लंबी है, जहां भारतीय भाषाओं का अस्तित्व ही नहीं है और उनमें साहित्य के नाम पर अंगरेजी साहित्य या कहीं-कहीं तुलनात्मक साहित्य पढ़ाया जाता है। कई सरकारी विश्वविद्यालय भी तुलनात्मक साहित्य के अध्यापकों के लिए योग्यता तुलनात्मक साहित्य या अंगरेजी (अन्य किसी भाषा में नहीं) में एमए निर्धारित करते हैं। अंगरेजी साहित्य पढ़ाए जाने से कोई समस्या नहीं है, लेकिन भारतीय भाषाओं का साहित्य भी इन्हें अवश्य पढ़ाना चाहिए। अगर अंगरेजी साहित्य पढ़ाया जा सकता है, तो हिंदी, उर्दू, पंजाबी, बांग्ला, मराठी, असमी, मलयालम, तमिल, तेलुगू, ओड़िया, गुजराती आदि भाषाओं का साहित्य क्यों नहीं पढ़ाया जा सकता! 

निजी विश्वविद्यालय संबंधित राज्य की विधानसभा द्वारा पारित अधिनियम के तहत स्थापित किए जाते हैं और इन्हें विश्वविद्यालय अनुदान आयोग भी मान्यता देता है, तो क्यों नहीं इन२के लिए यह आवश्यक किया जाए कि ये कम से कम उस राज्य की भाषा और उसके साहित्य के कुछ पाठ्यक्रम प्रस्तावित करें। यही बात आइआइटी और आइआइएम पर भी लागू होनी चाहिए। कितना अच्छा हो, अगर देश के अलग-अलग हिस्सों में स्थित इन संस्थानों में अलग-अलग भारतीय भाषाएं भी पढ़ाई जाएं। इसके विपरीत वर्तमान व्यवस्था के कारण अधिकतर छात्र-छात्राओं की पढ़ाई की भाषा व्यवहार की भाषा से अलग हो जाती है। जब उनकी ज्ञान की प्रक्रिया से ही इन भाषाओं को काट दिया गया है, तो फिर यह शिकायत कहां से जायज है कि अमुक अनुशासन भारतीय भाषाओं में नहीं पढ़ाए जा सकते! यह एक सर्वविदित तथ्य है कि हमारे देश में प्राय: उच्च शिक्षा का माध्यम भारतीय भाषाएं नहीं हैं। कुछ राज्यों के विश्वविद्यायलों में अवश्य भारतीय भाषाओं के माध्यम से पठन-पाठन होता है, लेकिन इसके लिए उन्हें दोयम दर्जे की पाठ्यपुस्तकों पर निर्भर रहना पड़ता है। फलस्वरूप, अक्सर वे उस विषय में पारंगत होने और आगे की पढ़ाई से वंचित हो जाते हैं। इसके अलावा भारतीय भाषाओं के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की विशेष वित्तीय सहायता से संचालित कार्यक्रम या पुस्तकालय भी प्राय: नहीं दिखाई देते। 

अब जरा उस शिकायत पर भी नजर डालते हैं, जो भारतीय भाषाओं, खासकर हिंदी के लेखक-प्रकाशक करते हैं कि साहित्य को पाठक नहीं मिल रहे हैं। मिलेंगे कहां से, जब संभावित पाठकों की पूरी पीढ़ी को ही व्यवस्थित तरीके से उसके साहित्य, भाषा और समाज से दूर कर दिया जाता है। यह स्थिति अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में हिंदी में ज्यादा विकट है। यह मुद्दा चाहे सीधे रूप से प्रतियोगी परीक्षाओं से न जुड़ता हो, इससे अलहदा नहीं है, बल्कि यह उस व्यापक परिदृश्य से संबद्ध है, जहां भारतीय भाषाएं उपेक्षित हैं और जहां यह माना जाता है कि वे अंगरेजी से पिछड़ी हुई हैं, ज्ञान का माध्यम नहीं बन सकती हैं और संवाद-कौशल या व्यक्तित्व-विकास का पर्याय तो अंगरेजी ही है। एक बार यह मान लेने के बाद अकादमिक संसाधनों का असमान वितरण आम स्वीकृति पा जाता है, जो भारतीय भाषाओं को और हाशिये पर धकेल देता है। इसलिए इन भाषाओं के इस मसले को समग्रता में देखा जाना चाहिए(गणपत तेली,जनसत्ता,01 सितम्बर,2014)।

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22 अगस्त 2014

भारतीय भाषाओं के पुनर्वास का प्रश्न

नई सरकार के आते ही हिंदी वर्ग विशेष के लेखकों और वक्ताओं की सक्रियता का कारण तो समझ आता है,लेकिन ऐसे अधिकतर लेख पढ़ कर निराशा ही होती है कि अब भी ये निष्कर्ष हिंदी समर्थक या हिंदी-विरोधी पक्षों से आगे जाते दिखाई नहीं देते। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय भाषाओं की क्या भूमिका होनी चाहिए? क्यों यह प्रश्न वैचारिक विश्लेषण का हिस्सा नहीं बनता? यह अफसोस की बात है कि भाषा के प्रश्न को सामाजिक न्याय और बराबरी के पहलुओं से जोड़ कर देखने के प्रयास नहीं किए जाते। 
कोई भी भाषा गंभीर विचार-विमर्श का आधार बन सकती है बशर्ते कि उस भाषा में वे सभी साधन विकसित किए जाएं। आखिर कब तक यह दोहरापन जारी रहेगा कि दादा-दादी और नाना-नानी से बात करने के लिए तो अपनी भाषाएं याद आती हैं लेकिन ज्ञान की बात करने के लिए सिर्फ अंगरेजी का आलाप आरंभ हो जाता है। मानो अगर यह आलाप आप नहीं लगा सकते तो आपके विचारों में कोई ताकत ही नहीं होगी।
क्यों प्रत्येक वर्ष टीवी पर बजट की समीक्षा करने के लिए अच्छे हिंदी वक्ताओं का टोटा पड़ जाता है? क्यों फिर ऐसे विश्लेषण सुनने पड़ते हैं जिनमें अटपटी हिंदी और हिंग्लिश की शब्दावली की भरमार होती है? अंतत: बजट समीक्षा इस कदर बोझिल हो जाती है कि बजट जैसी आर्थिक प्रक्रिया की बारीकियां तो छोड़िए उसके प्रमुख बिंदुओं को समझने में भी असमंजस पैदा होने लगता है। लगभग यही स्थिति उन सभी विषयों पर लागू होती है जिनमें भाषा संबंधी विशिष्ट जानकारी की जरूरत होती है। इसलिए यह समझना बहुत जरूरी है कि भारतीय भाषाओं में और विशेषकर हिंदी में ज्ञान के विविध पक्षों के लिए विशिष्ट शब्दावली का जो अभाव नजर आ रहा है वह बहुत हद तक बदलते परिवेश का परिणाम है जिसमें हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में विविध विषयों की जानकारी का लेन-देन घटता जा रहा है। यह प्रमुख चिंता का विषय बनना चाहिए।
अपनी भाषाओं के द्वारा ज्ञान का प्रसार ही पश्चिमी देशों को भूमंडलीय स्तर पर आर्थिक और व्यापारिक मामलों में चौधराहट का अवसर प्रदान करता है। इस भूमिका को अख्तियार करने में इन देशों की शैक्षिक संस्थाओं की प्रमुख भूमिका रहती है। इन शैक्षिक संस्थाओं के द्वारा ही शोध और उसके द्वारा भाषा गढ़ने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जाता है। इस पूरी प्रक्रिया में भाषा की अहम भूमिका बनती है जो उसके वैज्ञानिक स्वरूप को ही सुनिश्चित नहीं करती, बल्कि पूरी दुनिया में उसकी भाषा के प्रसार को भी सुनिश्चित करती है। टेलिफोन का आविष्कार या फिर मोबाइल का प्रचलन महज पश्चिमी ज्ञान का प्रसार नहीं है, बल्कि उस भाषा का भी प्रसार है जिसके  माध्यम से ‘टेलि’ जैसे शब्द (जो ग्रीक भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है ‘दूर’) का प्रयोग टेलीफोन और टेलीविजन जैसे शब्दों को गढ़ने के लिए किया गया।
पश्चिमी देशों ने भाषाओं को ज्ञान का आधार बनाने के साथ ही अन्य देशों में भी इस ज्ञान के प्रचार-प्रसार का प्रयास किया, लेकिन यह भी सुनिश्चित किया कि यह ज्ञान उनकी अपनी भाषा में प्रसारित हो। इसी का परिणाम है कि आज हजारों भारतीय जो विदेशों में उच्च शिक्षा के लिए जाते हैं, इस तथ्य की तसदीक के लिए कि वे अंगरेजी भाषा जानते हैं, उन्हें इन देशों की कई परीक्षाएं पास करनी पड़ती हैं। टॉफल और आइइएलटीएस जैसी परीक्षाओं का संचालन इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है, जिसके बिना कोई भी भारतीय इंग्लैंड या अमेरिका में उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता। 
इसके विपरीत क्या हम अपने देश में भाषा की ऐसी किसी मानक परीक्षा का समावेश कर पाए हैं? हम इस तरह का मानक नहीं खड़ा कर पाए हैं, क्योंकि हमने किसी भारतीय भाषा को उच्च शिक्षा के लिए निर्मित करने का प्रयास ही नहीं किया। उच्च शिक्षा की भाषा के लिए हमने अंगरेजी को ही जारी रखा, जिसके  कई दूरगामी परिणाम निकले हैं और भविष्य में भी इसके विपरीत परिणाम सामने आएंगे।
यह आश्चर्य की बात नहीं है कि विदेशी छात्र, जो भारतीय विषयों पर शोध करते हैं, वे जब भारत आते हैं तो उन पर कोई शर्त लागू नहीं होती कि वे भारत में आने से पहले कोई भारतीय भाषा सीखें। अधिकतर विदेशी छात्र भारत में बिना शोध-वीजा के दाखिल होते हैं और तमाम नियमों को ताक पर रख कर अपना काम करते हैं। क्या किसी भारतीय छात्र के लिए ऐसा करना संभव होगा कि वह ब्रिटेन जाकर बिना शोध-वीजा के शोध कर सके? क्या आप कल्पना करेंगे कि अंगरेजी ज्ञान के बिना बिटेन या अमेरिका के पुस्तकालयों में जाकर काम कर सकें?
भारत के बड़े शहरों में रहने वाले ऐसे अनेक विदेशी छात्र मिल जाएंगे जो बिना भाषा जाने इन शहरों में रह रहे हैं, बल्कि अब तो वे भारतीय अर्थव्यवस्था का लाभ उठाने से भी नहीं चूकते। ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे जो बताते हैं कि भारतीय भाषाओं के महत्त्व को गंभीरता से न लेने के कितने विपरीत परिणाम निकल रहे हैं। इस संदर्भ में नई सरकार द्वारा भारतीय भाषाओं और विशेषकर हिंदी के महत्त्व को उभारना अहम कदम साबित हो सकता है।

यह कदम सही दिशा में उठेगा, तभी उन प्रदेशों के नौनिहालों के साथ न्याय किया जा सकेगा जिनके पूर्वजों को पहले राष्ट्रीयता के नाम पर और फिर उत्तर भारत के शिक्षित वर्गों ने हिंदी के नाम पर राष्ट्रीय आंदोलन की ओर आकर्षित करने का प्रयास किया। उत्तर भारत के उन तमाम वर्गों ने अपनी बोलियों को दरकिनार करके हिंदी का दामन थामा   था, इस विश्वास के साथ कि आजादी के बाद वे अंगरेजी के चंगुल से मुक्त हो पाएंगे। लेकिन हिंदी समेत भारतीय भाषाओं को उच्च शिक्षा के माध्यम के तौर पर स्वीकार न किया जाना यह दर्शाता है कि इन भाषाओं को राजनीतिक उत्साह जगाने के लिए तो प्रयोग किया गया, लेकिन कभी भी इन्हें गंभीर विषयों के लिए तैयार नहीं किया गया।
नई सरकार का भाषाई सपना तब तक साकार नहीं हो सकता, जब तक वह भारतीय भाषाओं को ज्ञान-विज्ञान की भाषा के रूप में प्रोत्साहित नहीं करेगी। भारतीय भाषाओं को ज्ञान-विज्ञान की भाषाएं बनाए बिना हम कमजोर तबकों के लिए विकास को अर्थपूर्ण दिशा नहीं दे पाएंगे। तब तक विकास की किसी भी परियोजना को बेमानी ही माना जाएगा जब तक उसमें इन वर्गों की भागीदारी सुनिश्चित नहीं की जाएगी। अंगरेजी भाषा की पृष्ठभूमि से आने वाले लोग विशिष्ट सामाजिक और आर्थिक वर्ग से आते हैं। अंगरेजी को ही गुणवत्ता का आधार मानना केवल इस वर्ग के लोगों को लाभ पहुंचाना है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विजय महज एक राजनीतिक दल और उसकी विचारधारा की जीत नहीं है, बल्कि यह उस व्यक्तित्व की भी जीत है जिसने अखिल भारतीय स्तर पर संवाद के लिए अंगरेजी को नहीं, बल्कि हिंदी और गुजराती को आधार बनाया। उनके लंबे चुनावी अभियान में उनके वक्तव्यों और तर्कों की भाषा के पीछे हिंदी और गुजराती के संस्कार भी थे जिसके  द्वारा उन्होंने विरोधी दलों पर हमले बोले। इस पहलू को दूसरे नजरिए से भी देखा जा सकता है कि विरोधी दलों के नेता जिन पर वंशवाद के आरोप लगे, उनकी हार के पीछे उनके दस वर्षीय शासन की विफलताएं रहीं, लेकिन किसी भी एक भाषा में प्रभावी संवाद कायम न कर पाने की उनकी अकुशलता को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। अभी इन पक्षों को विश्लेषण का आधार बनाने के लिए सामाजिक मंच भी तैयार नजर नहीं आते। 
कांग्रेसी नेतृत्व द्वारा जनता के साथ किए गए संवाद इस कदर प्रभावहीन थे कि अवाम को अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पाए। जनता की इस अस्वीकृति के पीछे भाषा के पहलू को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। अगर कहें कि कांग्रेसी नेता अंगरेजी और हिंदी दोनों ही भाषाओं के प्रभावी इस्तेमाल में अक्षम रहे तो यह गलत नहीं होगा। 
दरअसल, उत्तर भारत में भूमंडलीकरण के बाद नौजवान मतदाता की भूमिका ने वर्तमान चुनाव परिणामों को तय करने में अहम भूमिका निभाई। युवाओं की इस भूमिका को भाषा और संवाद के तरीकों से जोड़ कर भी देखा जा सकता है। तकनीकी विकास और सूचना तंत्र का प्रसार कई अर्थों में अंगरेजी शिक्षा की तरह महज प्राइवेट स्कूलों तक केंद्रित नहीं रहा, बल्कि यह गैर-अंगरेजी नौजवानों का हथियार भी बना है।
सत्तर के दशक में भारतीय भाषाओं में पढ़ने वाले छात्रों में अंगरेजी न जानने की हीन भावना इन भाषाओं के लिए समर्थन जुटाने में आड़े आती रही। लेकिन इक्कीसवीं सदी के गैर-अंगरेजी भाषी नवयुवकों के बीच तकनीकी विकास की विशेष भूमिका रही है। अंगरेजी के अभाव में यह वर्ग अब भी मौजूद है, लेकिन अब वह हीन भावना से ग्रस्त नहीं है जिस तरह वह सत्तर या अस्सी के दशक में दिखाई देता था। उसके पास तकनीक और सूचना का औजार है जिसके माध्यम से वह अंगरेजी-प्रभाव का मुकाबला करने की क्षमता दिखा रहा है। वह अंगरेजी अधूरी ही बोलता है, लेकिन तकनीकी शब्दावली की ढाल के सहारे अंगरेजी के वार को बेकार करने की क्षमता रखता है। भारतीय बोलियों को बरतने वाले ये नौजवान सूचना तंत्र के प्रभावी वाहक बन कर उभरे हैं। अब भी ये वर्ग संवाद के लिए भारतीय भाषाओं पर ही निर्भर हैं। 
यह केंद्र और प्रदेशों की सरकारों को तय करना है कि भारतीय भाषाओं को भविष्य में कैसे ज्ञान-विज्ञान की भाषाएं बनाया जा सकता है। लेकिन इस तथ्य से भी हम मुंह नहीं मोड़ सकते कि भाषा कोई भी हो, उसको बरतने में आलोचनात्मक और विश्लेषणात्मक दृष्टि अपनाए बिना उसे सक्षम नहीं बनाया जा सकता। भारतीय भाषाओं को ज्ञान-विज्ञान की भाषाएं बनाने के लिए विविध संस्थाओं को उनके प्रति ईमानदारी से पेश आना होगा। अगर अपनी भाषाओं के प्रति अनुशासन और गंभीरता नहीं है तो महज पौराणिक कथाओं के आधार पर भारतीय अतीत की श्रेष्ठता का गुणगान काफी नहीं है। अपनी भाषाओं को ज्ञान-विज्ञान के विविध अनुशासनों से जूझना होगा। फिर यह लक्ष्य हिंग्लिश से तो कभी भी प्राप्त नहीं किया जा सकता(ऐश्वर्ज कुमार,जनसत्ता,दिल्ली,21 अगस्त,2014)

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08 जनवरी 2013

ये योग्यताएं हैं रोज़गार की गारंटी

भारत में नये साल के शुरुआती 6 महीने नौकरियों के लिहाज से उम्‍मीदें जगाने वाला नहीं रहने वाले हैं। अधिकतर कंपनियों ने मार्च 2013 या जून 2013 तक अपने यहां भर्तियां बंद कर रखी हैं। वहीं, नौकरी खोजने वालों की संख्या में पिछले साल की तुलना में इस साल 28 फीसदी इजाफा होने की उम्मीद है। भारतीय अर्थव्यवस्था की धीमी रफ्तार भी नई नौकरियों के रास्ते में रोड़ा बनी हुई है। ऐसे में कंपनियां बहुत जरूरत पड़ने पर लंबी और टफ प्रोसेस के तहत कर्मचारियों को रिक्रूट कर रहीं हैं। 

जॉबः रिसर्च कंपनी माईहाइरिंगक्लबडॉटकॉम ने कहा है कि वैसे तो 2013 में करीब 10 लाख नई नौकरियां मिलेंगी, लेकिन शुरुआती महीनों में नौकरियों का हाल 2012 की तरह ही रहने वाला है। पिछले साल नौकरियों में 21 फीसदी की कमी आई थी। दिलचस्प है कि साल 2012 में 7 लाख लोगों को ही नौकरियां मिली हैं, जबकि हर जॉब पोस्ट के लिए करीब 240 से भी ज्यादा आवेदन आए। इस बार यह औसत और ज्‍यादा होने की संभावना है। ऐसे में नए साल की शुरुआत में नौकरी खोजना मुश्किल भरा हो सकता है। लेकिन फिर भी आपको नई नौकरी की जरूरत है या फिर अच्छी नौकरी की तलाश कर रहे हैं, तो नौकरीदाता कंपनियों की जरूरत को समझना बहुत जरूरी है। जानें कंपनियों की उन जरूरतों को जिसे पूरा कर आप नो जॉब जोन में भी नौकरी हासिल कर सकते हैं। 

लंबी प्रक्रिया: वैसे तो देश की अधिकतर कंपनियों में मार्च 2013 तक भर्तियां बंद हैं, लेकिन बहुत ज्यादा जरूरत पड़ने पर कुछ कंपनियां बेहतर कैंडीडेट को जॉब दे रही हैं। जॉब एक्सपर्ट के मुताबिक बेहतर कैंडीडेट को खोजने और उन्हें नौकरी पर रखने के लिए कंपनियां लंबी प्रक्रिया को अपना रहीं हैं। ऐसे में नौकरी खोजने वालों को इस लंबी प्रक्रिया के लिए पहले से ही तैयार रहना होगा। साथ ही इंटरव्यू की टफ प्रोसेस भी देखने को मिल सकती है। रिक्रूटमेंट फर्म मैनपावर ग्रुप के एमडी ए. जी राव का कहना है कि अगले 6 महीने तक बाजार में नौकरियों का ऐसा ही हाल रहने वाला है। ऐसे में जल्दबाजी करना जॉब सर्च करने वालों के लिए नुकसानदायक हो सकता है। 

हाई एक्सपेक्टेशन: वर्तमान समय में जॉब देने वाली कंपनियां नए इम्प्लाई से ज्यादा से ज्यादा आउटकम मिलने की एक्सपेक्टेशन कर रहीं हैं। रिक्रूटमेंट फर्म ग्लोबलहंट इंडिया प्राइवेट लिमिटेड के सीईओ सुनील गोयल के मुताबिक कंपनियों की डिमांड है कि नए लोग दिन या लेट नाइट तक फ्लेक्सिबल वर्किग ऑवर में काम करें। साथ ही एक से ज्यादा डिपार्टमेंट का नॉलेज रखने वालों को तरजीह दी जा रही है। ऐसे में शुरूआती 6 महीनों में उन्हीं लोगों के नौकरी पाने के ज्यादा चांसेज हैं जो टेक्नीकल सहित कई फील्ड के एक्सपर्ट हैं।

ट्रैवल: अगर आप नई नौकरी पाने के अपने चांसेज बढ़ाना चाहते हैं तो वर्तमान दौर में कहीं भी रिलोकेट होने के लिए तैयार हो जाइए। जॉब में रिलोकेशन नौकरी पाने के चांसेज बढ़ाता है। रिक्रूटमेंट फर्म हेड होंचोस के चीफ एक्जीक्यूटिव उदय सोड़ी के मुताबिक मंदी के दौर में अधिकतर कंपनियां रिमोट एरिया से कर्मचारियों को सस्ते में हायर कर रही हैं और उन्हें अपने अलग-अलग ऑफिसों या फैक्ट्री में ट्रांसफर कर देती हैं। विप्रो और टीसीएस जैसी कंपनियों ने तो छोटे जगह पर लोगों को रिक्रूट करने के लिए साउथ में विशाखापट्टनम और सेंट्रल इंडिया के लिए एमपी में इंदौर में यूनिट बनाई हुई है। ऐसे में नौकरी पाने के चांसेज बढ़ाने के लिए रिलोकेशन के लिए हमेशा तैयार रहें। 

पैसा: अगर आप ज्यादा सैलरी पाने की लालच में नौकरी बदलने की सोच रहे हैं तो आपके हाथ निराशा ही लगेगी। जहां कुछ महीनों पहले तक जॉब स्विच करने पर लोगोकं को 25 फीसदी तक बढ़ी सैलरी मिल जाती थी, वहीं अब कंपनियों की ओर से इस इजाफे को 15 फीसदी पर ही सीमित कर दिया है। गोयल के मुताबिक कई कंपनियां लोगों को उनकी पिछली जॉब के बराबर सैलरी ही ऑफर करती हैं। इतना ही नहीं, अगर आप नई कंपनी से बोनस मिलने की उम्मीद रखते हैं तो पुरानी नौकरी छोड़ने की जरूरत नहीं है। वर्तमान में कंपनियों ने बोनस देना भी बंद कर दिया है। ऐसे में अगर आपको नई नौकरी करनी है तो कम सैलरी और बिना बोनस के ही संतोष करने के लिए तैयार रहना होगा(दैनिक भास्कर,8.1.13)।

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