करीब ३२ साल पहले गांवों में डॉक्टरों को भेजकर वहीं इलाज करने की एक महत्वाकांक्षी योजना का हश्र २०० करोड़ रुपए के कबाड़ के रूप में तब्दील हो गया था। इस बार केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद ने गांवों के लिए डॉक्टरों के अलग काडर बनाने की ६००० करोड़ रुपए की योजना बनाई है। आशंका है कि ग्रामीण इलाकों में ३०० मेडिकल स्कूल खोलने की इस योजना का वैसा ही हश्र होने वाला है। सवाल खड़े करने वाले इसकी तुलना १९७८ के "बेयरफुट डॉक्टर" की योजना से कर रहे हैं।
तत्कालीन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री राज नारायण ने १०० मेडिकल कॉलेजों में हर को २-२ एम्बुलेंस खरीद कर दी थी। इंग्लैंड से खरीदी गई एक एम्बुलेंस की कीमत थी एक करोड़। इस एयरकंडीशंड एम्बुलेंस में एक मिनी ऑपरेशन थियेटर था, जांच प्रयोगशाला थी। आइडिया था कि मेडिकल कॉलेज के डॉक्टर इस एम्बुलेंस पर गांव जाएंगे और वहीं इलाज कर देंगे। अब देखिए, इन एम्बुलेंस का हश्र क्या हुआ। ये एम्बुलेंस एक दिन भी गांव नहीं गए। नकली डॉक्टरों के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ चुके डॉ. अनिल बंसल ने बताया कि दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल, एलएनजेपी अस्पताल, एम्स और कलावती अस्पताल को भी दो -दो एम्बुलेंस दिए गए थे। ये रखे-रखे सड़ गए, अंततः उन्हें कबाड़ियों को बेचना पड़ा। सभी २०० एम्बुलेंस का यही हश्र हुआ। डॉ. बंसल ने कहा ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि बिना किसी तैयारी के वह चुनावी योजना थी। तीन साल बाद लोकसभा के चुनाव होने वाले हैं। साढ़े तीन साल के पाठ्यक्रम की ग्रामीण डॉक्टरों की योजना भी चुनावी योजना ही है। वही हड़बड़ी इस बार भी दिख रही है। भवन बन जाएगा, मशीनें आ जाएंगी लेकिन स्वास्थ्य मंत्री ये बताएं कि बिजली और टेक्नेशियन के अभाव में रख रखाव कैसे होगा। पढ़ाने के लिए शिक्षक कहां से आएंगे। दिल्ली के अस्पताल के मशीनों को रख रखाव तो हो नहीं पाता। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के अध्यक्ष डॉ. विनय अग्रवाल का कहना है कि सरकार गांवों में मेडिकल स्कूल की जगह मेडिकल कॉलेज क्यों नहीं खोलती। वह गांवों के लिए दोयम दर्जे का डॉक्टर बनाने पर क्यों तुली है(धनंजय,नई दुनिया,दिल्ली,25.1.11)।
अज तक क्या ऐसी योजनायें सफल हुयी हैं। इसके फ्लाप होने मे कोई सन्देह नही है।
जवाब देंहटाएं