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25 जुलाई 2010

बदल जाएगा तकनीकी शिक्षा का चेहरा!

तकनीकी पेशेवरों की फौज तैयार करने के लिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय कई नए कदम उठाने की तैयारी में है। इसके लिए परंपरागत रूप से दी जा रही तकनीकी शिक्षा का चेहरा बदलने की कोशिश की जा रही है। अभिभावकों और छात्रों को स्कूली शिक्षा से तकनीकी शिक्षा की तरफ शिफ्ट करने की कोशिश की जा रही है।

विज्ञान पढ़ने की अनिवार्यता से मुक्ति
इसी कड़ी में एक पहल तकनीकी शिक्षा के लिए साइंस की पढ़ाई की अनिवार्यता खत्म किए जाने की तैयारी हो रही है। यानी किसी भी पेशेवर कोर्स में प्रवेश के लिए भविष्य में न्यूनतम शैक्षिक योग्यता में पढ़ाई के कुल वर्ष देखे जाएंगे न कि 11-12वीं में पढ़े गए विषय। यानी आर्ट्स या कॉमर्स पढ़ने वाला स्टूडेंट मेडिकल और इंजीनियरिंग के टेस्ट में बैठ सकता है। इसी प्रकार साइंस का स्टूडेंट कैट की परीक्षा दे सकेगा।

वैसे यह कोई बिल्कुल नई बात भी नहीं है। पूर्व सोवियत संघ के देशों और कई यूरोपीय देशों में तकनीकी और पेशेवर कोर्सो में प्रवेश के लिए न्यूनतम 10 या 12 साल की पढ़ाई को जरूरी माना जाता है, न कि किसी विषय विशेष को। यही कारण है कि आज चीन और जर्मनी में 80-80, कोरिया में 95, ऑस्ट्रेलिया में 70, ब्रिटेन में 60 फीसदी युवक तकनीकी शिक्षा से लैस हैं, जबकि भारत में तकनीकी शिक्षा पाने वाले नौजवानों का प्रतिशत महज 4.8 फीसदी है।

कारण, साफ है कि भारतीय कामर्स, आर्ट्स और साइंस के फेर में उलझे हुए हैं। यह अलग बात है कि देश की आबादी में प्रतिवर्ष 2.8 करोड़ युवा जुड़ जाते हैं तथा 1.28 करोड़ युवकों की लेबर फोर्स में एंट्री होती है, लेकिन इनमें से सिर्फ 25 लाख ट्रेंड होते हैं, जबकि मौजूदा अर्थव्यवस्था में जो रोजगार पैदा हो रहे हैं, उनमें 90 फीसदी ऐसे रोजगार हैं जिसमें तकनीकी शिक्षा की जरूरत होती है।

क्या है मकसद?
सरकार चाहती है कि ज्यादा से ज्यादा लोग तकनीकी शिक्षा हासिल करें। इससे उनके लिए देश में ही नहीं विदेशों में भी रोजगार के अवसर बढेंगे। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के एक अध्ययन के अनुसार 14 करोड़ बच्चों प्राथमिक शिक्षा में प्रवेश लेते हैं। पांचवीं पास करते-करते इनमें से 50-55 फीसदी बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं। यों करीब 7 करोड़ बच्चों मिडिल स्कूलों में पहुंचते हैं। लेकिन आठवीं पास करते-करते 60 फीसदी बच्चे पढ़ाई छोड़ देते हैं। नौवीं एवं दसवीं कक्षाओं में सकल प्रवेश दर (जीईआर) 40 फीसदी ही है। जबकि 14-18 साल के उम्र वर्ग में अभी करीब 9.70 करोड़ बच्चे हैं।

मतलब यह हुआ कि इनमें से साढ़े तीन करोड़ बच्चे ही नौवीं में प्रवेश ले पाते हैं। दसवीं पास करने के बाद 11वीं यानी उच्चतर माध्यमिक में प्रवेश की दर और भी कम महज 28 फीसदी है।

अनुमान है कि करीब 2.5 करोड़ बच्चे ही उच्चतर माध्यमिक की पढ़ाई करते हैं। इन छात्रों को यदि विज्ञान, कामर्स, आर्ट्स और अन्य विषयों की पढ़ाई के हिसाब से विभाजित कर दें तो साइंस पढ़ने वाले बच्चों की संख्या 70-75 लाख के करीब बैठती है। दूसरी तरफ सरकार का लक्ष्य अगले पांच सालों में 1.20 करोड़ छात्रों को प्रतिवर्ष तकनीकी और वोकेशनल शिक्षा देने का है। ऐसे में साइंस को आधार बनाया गया तो तकनीकी शिक्षा के लिए छात्रों की भारी कमी पड़ जाएगी, जबकि अभी डिग्री, डिप्लोमा और सार्टिफिकेट में सिर्फ 25 लाख ही तकनीकी सीटें उपलब्ध हैं।

अभी तक तो स्थिति यह है कि इन 25 लाख तकनीकी सीटों में भी इंजीनियरिंग, प्रबंधन, डेंटल, नर्सिग आदि में 10-20 फीसदी सीटें प्रतिवर्ष खाली रह जाती हैं। इसका कारण है कि स्टूडेंट नहीं मिल पाते हैं। ऐसे में सरकार के लिए चुनौती है कि सीटें बढ़ाने के साथ-साथ एडमिशन के लिए छात्रों की भी संख्या में भी इजाफा किया जाए।

किसे मिलेगा फायदा?
ग्रामीण क्षेत्रों के स्कूलों में अमूमन साइंस स्ट्रीम वाले स्कूल कम होते हैं। वहां चाहकर भी छात्र-छात्राएं साइंस नहीं पढ़ पाते हैं। शहरी क्षेत्रों के स्कूलों में साइंस विषय लेने वाले छात्रों की संख्या इतनी अधिक होती है कि स्कूलों को मेरिट के आधार पर साइंस में एडमिशन देना पड़ता है।

आमतौर पर दसवीं कक्षा में 70 फीसदी या इससे अधिक अंक लाने वाले छात्रों को ही साइंस में एडमिशन का मौका मिल पाता है। काफी स्टूडेंट चाहकर भी साइंस नहीं ले पाते हैं। ऐसे स्टूडेंट का डॉक्टर, इंजीनियर या पायलट बनने का ख्वाब टूट जाता है। यही क्यों, वे किसी भी तकनीकी कोर्स में एडमिशन के काबिल नहीं रह जाते। यदि नई व्यवस्था लागू होती है तो उन्हें अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका मिलेगा।

वैसे भी आईआईटी एवं इंजीनियरिंग में प्रवेश के लिए प्रवेश परीक्षा का नया पैटर्न तैयार हो रहा है, उसमें 12वीं कक्षा के अंकों को 70 फीसदी तक वेटेज देने और एप्टीट्यूड टेस्ट को शामिल किए जाने की बात चल रही है। ये गाइडलाइन खुद आईआईटी के निदेशक तैयार कर रहे हैं। यानी वे खुद महसूस कर रहे हैं कि 12वीं में साइंस पढ़ने का इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए कोई बड़ा महत्व नहीं है।

उल्टे खास तरह की कोचिंग हासिल कर अयोग्य छात्र उच्च संस्थानों में पहुंच रहे हैं, जबकि कोचिंग नहीं ले पाने वाला ग्रामीण पृष्ठभूमि का छात्र इसमें पिछड़ जाता है। इसलिए असल महत्व इस बात का है कि आईआईटी या इंजीनियरिंग में आने वाला स्टूडेंट कितना जीनियस है, इसे उसकी बुद्धिमता, उसके 12वीं के कुल अंकों और एप्टीट्यूड टेस्ट से परखा जाएगा।

इसी कड़ी में देश के सभी स्कूलों में अगले साल से विज्ञान एवं गणित का सिलेबस समान होने जा रहा है। इसके बाद कामर्स और आर्ट्स के सिलेबस भी एक जैसे हो जाएंगे। फिर आगे की यह भी प्लानिंग है कि 12वीं करने के बाद सभी छात्रों को सिर्फ एक टेस्ट में बैठना होगा, जिसमें उन्हें अपने ऑप्शन देने होंगे। इसी के आधार पर विवि से लेकर आईआईटी तक में प्रवेश होंगे। मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल का कहना है कि अमेरिका में इसी तरह का प्रावधान है, जिसे यहां भी शुरू किया जा सकता है।

नेशनल वोकेशनल क्वालिफिकेशन फ्रेमवर्क
मानव संसाधन विकास मंत्रालय इस समस्या से निपटने के लिए नेशनल वोकेशन क्वालिफिकेशन फ्रेमवर्क (एनवीक्यूएफ) तैयार कर रहा है। इस फ्रेमवर्क में श्रम और वित्त मंत्रालय भी हिस्सेदार है। श्रम मंत्रालय को 40 हजार स्किल डेवलपमेंट सेंटर खोलने हैं, जहां पर पहले से कार्य कर रहे कामगारों को ट्रेनिंग देकर उन्हें सार्टिफिकेट प्रदान किए जाएंगे, जबकि मानव संसाधन मंत्रालय सभी तकनीकी सार्टिफिकेट, डिप्लोमा और डिग्री कोर्सो के लिए मानक तय करेगा और छात्रों को आकृष्ट करने के लिए नीति बनाएगा। इन्हीं नीतियों में तकनीकी कोर्स के लिए विषयों की भी अनिवार्यता खत्म की जा रही है।

दरअसल, अभी 17 मंत्रालयों द्वारा तकनीकी और वोकेशनल कोर्स चलाए जा रहे हैं। एक मंत्रालय जिस डिप्लोमा कोर्स को दो साल में पूरा करता है, दूसरा मंत्रालय उस कोर्स को सिर्फ एक साल में पूरा कर रहा है। फिर कोर्स के सिलेबस में भी अंतर है। वे पुराने पड़ चुके हैं। देश के औद्यौगिक प्रशिक्षण संस्थानों में अभी तक लंब्रेटा स्कूटर की रिपेयरिंग सिखाई जाती है, जबकि इस ब्रांड के स्कूटर वर्षो पहले बाजार से विदा हो चुके हैं।

कभी भी पढ़ सकेंगे डॉक्टरी और इंजीनियरिंग
ज्यादा से ज्यादा लोग तकनीकी कोर्स करें, इसके लिए स्टूडेंट को तो आकर्षित किया ही जा रहा है, लेकिन बहुत सारे लोग ऐसे भी होते हैं जो अपनी पारिवारिक जरूरतों के चलते कम उम्र में काम धंधे में लगे जाते हैं। या पहले कोई दूसरा कोर्स कर चुके होते हैं, लेकिन जब वे डाक्टरी या इंजीनियरिंग पढ़ना चाहते हैं तो उनकी उम्र निकल चुकी होती है।

अब तकनीकी कोर्स करने के लिए सरकार अधिकतम आयु सीमा के प्रावधान को भी खत्म करने जा रही है। यानी किसी भी उम्र में इंजीनियरिंग और डाक्टरी की पढ़ाई की जा सकेगी। बता दें कि अभी प्रबंधन और कानून की पढ़ाई के लिए अधिकतम उम्र की कोई सीमा तय नहीं है। बाकी सभी कोर्स के लिए अधिकतम उम्र सीमा निर्धारित है।

कहां से आएगा बुनियादी ढांचा
पेशेवर कोर्स की सीटें 25 लाख से बढ़ाकर 1.20 करोड़ करने के लिए व्यापक बुनियादी ढांचे की भी जरूरत पड़ेगी। सरकार की तरफ से आईआईटी, एनआईटी, आईआईएम, एम्स आदि खोले जा रहे हैं। इसके बावजूद कमी बरकरार रहेगी। पिछले दिनों प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने सभी राज्यों के मुख्य सचिवों को पत्र लिखा था कि वे स्कूलों-कॉलेजों में छुट्टी के बाद तकनीकी कोर्स शुरू करने के इंतजाम करें।

दरसअल, यह अच्छा आइडिया है, छुट्टी के बाद स्कूल खाली रहते हैं। उनके भवनों का इस्तेमाल कोई दूसरी एजेंसी छह महीने से लेकर एक वर्षीय सार्टिफिकेट या डिप्लोमा कोर्स करने के लिए कर सकती है। केंद्रीय विद्यालय प्रशासन ने अपने एक हजार स्कूलों को इस कार्य के लिए प्रस्तुत भी कर दिया है। खबर है कि राज्यों ने भी इस दिशा में पहल आरंभ कर दी है तथा सरकारी स्कूलों, कॉलजों में छुट्टी के बाद तकनीकी कोर्स चलाने वालों से आवेदन मांगे गए हैं।

क्या कहते हैं विशेषज्ञ
डॉक्टरी की बुनियाद कमजोर हो जाएगी
डाक्टरी कोर्स के लिए साइंस की अनिवार्यता खत्म करना ठीक नहीं होगा। दरअसल, डाक्टरी कोर्स के लिए 11-12 वीं में साइंस की पढ़ाई उसकी बुनियाद का कार्य करती है। इसलिए यदि यह प्रावधान खत्म किया गया तो छात्रों की बुनियाद ही कमजोर हो जाएगी और वे डाक्टरी पढ़ कर भी अच्छे पेशेवर नहीं बन पाएंगे। यह ठीक है कि पूर्व सोवियत देशों में आर्ट्स के स्टूडेंट भी डाक्टरी पढ़ते हैं लेकिन भारत से जो छात्र वहां जाकर डाक्टरी पढ़कर लौट रहे हैं, उनके रिजल्ट अच्छे नहीं हैं। वे हमारे स्क्रीनिंग टेस्ट में अक्सर फेल हो जाते हैं। विदेशों से पढ़कर आने वाले डाक्टरों को स्क्रीनिंग टेस्ट पास करने के बाद ही प्रैक्टिस की मंजूरी मिलती है। इसलिए सरकार को मौजूदा व्यवस्था में बदलाव नहीं करना चाहिए।
डॉ. अनिल कोहली, चैयरमैन डेंटल काउंसिल ऑफ इंडिया

एंट्रेंस टेस्ट पास करना ही काफी
जब प्रत्येक कोर्स में एडमिशन के लिए टेस्ट होना है तो स्टूडेंट की काबिलियत यह है कि वह टेस्ट को पास करे। यदि कोई छात्र टेस्ट पास करता है तो इस बात का कोई औचित्य नहीं होना चाहिए कि उसने अब तक क्या पढ़ा था। हां, कोर्स में प्रवेश के लिए पढ़ाई के न्यूनतम वर्षो को आधार बनाया जाना चाहिए।
डी. के. भवसार, निदेशक एचआरडी मिनिस्ट्री

वैश्विक बाजार के लिए पेशेवरों की सस्ती फौज तैयार होगी
मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने शिक्षा प्रणाली में बदलाव के लिए कई कदम उठाए हैं। प्रवेश परीक्षाओं से लेकर सिलेबस तक में बदलाव किए जा रहे हैं। इन सबका एक ही मकसद है कि कैसे भारत में दुनिया के बाजार के लिए पेशेवर लोगों की फौज तैयार की जाए। इसके जरिये हम अपनी समस्याओं को नहीं तलाश रहे हैं बल्कि दुनिया के लिए प्रशिक्षित नौकर तैयार कर रहे हैं। मेडिकल, इंजीनियरिंग समेत तकनीकी कोर्सो में प्रवेश के लिए साइंस की अनिवार्यता खत्म करने का प्रस्ताव भी इस दिशा में उठाया गया कदम है। सरकार को इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि उसके कदमों से देश का या देश की जनता का क्या फायदा होने वाला है। इस कदम से होगा क्या? इंजीनियरिंग और मेडिकल के असली ज्ञान का विकास हमारे नौजवान नहीं कर पाएंगे। बल्कि यह कार्य करेंगे पश्चिम मुल्क। जबकि हमारे नौजवान सिर्फ तकनीकी डिग्रियां हासिल कर वैश्विक बाजार में दोयम दर्जे की नौकरी कर रहे होंगे। इस पहल से तकनीकी ज्ञान की सस्ती फौज ही हम तैयार कर पाएंगे। तकनीकी क्षेत्र में नया कुछ नहीं कर पाएंगे। हां, हमारे नौजवानों को नौकरी मिल जाएगी और और इस सस्ती फौज की बदौलत दुनिया मुनाफा कमाएगी। इसलिए ऐसे प्रस्ताव से सिर्फ विदेशी कंपनियों को फायदा होगा क्योंकि उन्हें देश-विदेश में सस्ते में भारतीय पेशेवर मिलेंगे।
अनिल सद्गोपाल, शिक्षाविद्

प्रतिभाशाली छात्रों को भी मिलेगा इससे मौका
सरकार यदि तकनीकी शिक्षा को लेकर अपने रुख को थोड़ा लचीला बनाना चाहती है तो मेरे विचार से यह अच्छा कदम है। दरअसल, इंजीनियरिंग और मेडिकल की पूरी पढ़ाई कोचिंग आधारित हो गई है तथा एक बड़े वर्ग या शहरी क्षेत्रों के संपन्न नौजवान ही इनमें निकल रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के काबिल छात्रों को इनमें निकलने का मौका दूर उन्हें साइंस पढ़ने के भी पर्याप्त अवसर नहीं मिल पाते हैं। इसलिए यदि सरकार तकनीकी कोर्स में प्रवेश के लिए होने वाली परीक्षाओं में किसी भी विषय के छात्र को बैठने का मौका देती है तो यह अच्छा कदम है। इससे प्रतिभाशाली छात्रों को आगे बढ़ने का मौका मिलेगा। गरीब और मध्यवर्गीय छात्र आज भी साइंस पढ़ने से वंचित रह जाते हैं या वे शिक्षा पूरी करने से पूर्व ही काम धंधे में लग जाते हैं। ऐसे में परीक्षा में बदलाव उन्हें लाभ पहुंचा सकता है। दूसरी बात यह है कि किसी छात्र की प्रतिभा सिर्फ साइंस पढ़ने भर से ही नहीं आंकी जा सकती है। बल्कि आज तो मल्टीडायमेंशन वाली प्रतिभा के छात्रों की ज्यादा जरूरत है। फिर यूरोप, अमेरिका में कई देशों में इस तरह के प्रयोग सफल रहे हैं और इससे वहां तकनीकी शिक्षा हासिल करने वालों का प्रतिशत बढ़ा है। फिर, यह सोचना गलत है कि सिर्फ साइंस ही साइंस है। फिलॉसफी भी साइंस है, म्यूजिक भी साइंस है। शास्त्रीय संगीत में वही लोग सफल माने गए हैं, जिनका गणितीय ज्ञान अद्भुत था। मेडिकल-इंजीनियरिंग पहले एक-दूसरे से भिन्न डिग्रियां हुआ करती थीं। लेकिन आजकल बायोमैथ विशेषज्ञों की जरूरत होती है। मेडिकल में एक स्थिति ऐसी आती है, जहां पर गणितीय गणनाओं का महत्व बढ़ जाता है। इसी प्रकार कोई इंजीनियर तभी बेहतर हार्ट वॉल्व डिजाइन कर सकता है, जब वह अच्छा डाक्टर भी हो। इसलिए इस बदलाव को आगे बढ़ाए जाने की जरूरत है।
आनंद कुमार, संयोजक सुपर थर्टी(हिंदुस्तान,दिल्ली,24.7.2010)

1 टिप्पणी:

  1. बहुत ही रोचक जानकारी प्रस्तुत किया है आपने।

    26.07.10 की चिट्ठा चर्चा (सुबह 06 बजे) में शामिल करने के लिए इसका लिंक लिया है।
    http://chitthacharcha.blogspot.com/

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