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22 अक्तूबर 2011

आईआईटी को लेकर रोना-गाना

तकनीकी शिक्षा की गुणवत्ता और आईआईटी को लेकर एक बार फिर बहस शुरू हो चुकी है। पिछले दिनों इनफोसिस के मानद चेयरमैन एन आर नारायण मूर्ति ने न्यू यॉर्क में आईआईटी सम्मेलन में सैकड़ों पूर्व आईआईटी छात्रों को संबोधित करते हुए कहा कि हाल के वर्षों में आईआईटी में प्रवेश पाने वाले छात्रों की गुणवत्ता में काफी गिरावट आई है। इसके लिए उन्होंने कोचिंग संस्थानों को जिम्मेदार ठहराया। इससे पहले उद्योग एवं व्यापार जगत की प्रमुख संस्था फिक्की ने भी उच्च शिक्षा एवं तकनीकी शिक्षा के गिरते स्तर पर चिंता जताते हुए मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल को पत्र लिखा था। इसमें कहा गया था कि उद्योग जगत के 65 फीसद हिस्से को कुशल स्नातक नहीं मिल रहे हैं। इसके भी पहले वरिष्ठ शिक्षाविद यशपाल और जयराम रमेश ने आईआईटी पर तल्ख टिप्पणियां की थीं।

कॉर्पोरेट टेक्नॉलजी
गौर से देखें तो ये सारी चिंताएं पूरी तरह कॉर्पोरेट जगत से ही जुड़ी हुई हैं। तकनीकी शिक्षा के बुनियादी और व्यावहारिक पक्ष से किसी का कोई लेना-देना नहीं है। तभी वे कह रहे है कि हमें आईआईटी स्नातकों को फिर से काम की ट्रेनिंग देनी पड़ रही है । उनका सीधा सा मतलब है कि आईआईटी ऐसे स्नातक पैदा करे जिनका कॉर्पोरेट के लोग पहले दिन से ही भरपूर दोहन कर सकें। बुनियादी तकनीकी और विज्ञान से आज देश में कोई नहीं जुड़ना चाहता। आईआईटी के अधिकांश छात्र बी.टेक. करने के बाद अमेरिका में बसना चाहते हैं। उनकी एक बड़ी तादाद प्रशासनिक सेवा में कार्य करना पसंद करती है। कभी दुनिया भर में होने वाले शोध कार्य में भारत का योगदान नौ फीसद था। आज यह घटकर महज 2.3 फीसद रह गया है।

वर्ल्ड क्लास मिथ
देश में इस्तेमाल की जाने वाली तकनीक को लें तो यह तकरीबन पूरी की पूरी आयातित है। इनमें 50 फीसद तो बिना किसी बदलाव के ज्यों की त्यों और 45 फीसद थोड़ा-बहुत हेर-फेर के साथ के साथ इस्तेमाल होती है। इस तरह विकसित तकनीक के लिए हम पूरी तरह आयात पर निर्भर हैं। कहा जा रहा है कि देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं है लेकिन ये प्रतिभाएं क्या केवल विदेशों में नौकरी या मजदूरी करने वाली हैं? शिक्षा व शोध के अभाव को भूलकर कई बार कहा जाता है कि आईआईएम और आईआईटी में काफी तनख्वाह दिलवाने वाली पढ़ाई होती है। दूसरे लोग भी यह देखते हैं कि किस संस्थान के छात्रों को कितने पैसे की नौकरी ऑफर हुई। यह पूरी सोच ही गलत है और इससे बाहर निकलने की जरूरत है। आईआईटीज में अच्छे छात्र आते हैं, क्योंकि वे कड़ी प्रतिस्पर्द्धा से निकलकर आते हैं। उन्हें खुली जगह मिलनी चाहिए, लेकिन उन्हें एक संकीर्ण दायरे में डालने की कोशिश होती है।


विज्ञान में उच्च स्तरीय शोध के लिए जो भारतीय संस्थान जाने जाते हैं, उनमें प्रमुख रूप से इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंसेज (आईआईएससी), टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (टीआईएफआर) तथा भाभा अटॉमिक रिसर्च सेंटर (बीएआरसी) जैसे केंद्रों का उल्लेख किया जा सकता है। आईआईटी का नाम इसमें नहीं आता। आईआईएससी, टीआईएफआर और बीएआरसी में शोध करनेवाले विद्यार्थी आईआईटी डिग्रीधारक नहीं बल्कि उन तमाम विश्वविद्यालयों से निकले होते हैं जो अभावों से जूझते हुए भी शोध को आगे ले जानेवाले हमारे सबसे बड़े स्त्रोत हैं। दुखद है कि इनकी गुणवत्ता के विकास के लिए हमने कोई राष्ट्रीय नीति नहीं बनाई है। 

आर्थिक उदारीकरण के बाद जब से उच्च शिक्षा का व्यावसायीकरण होने लगा है, कॉर्पोरेट जगत के लोग ही तय करते हैं कि अमुक विश्वविद्यालय या शोध संस्थान वर्ल्ड क्लास है या नहीं। उन्होंने ही तय किया है कि आईआईटी का विद्यार्थी वर्ल्ड क्लास है। उनके अनुसार आईआईटी का महत्व इसलिए है कि वह अमेरिका और दूसरे बड़े औद्योगिक राष्ट्रों के लिए आवश्यक वर्कफोर्स मुहैया कराता है। बुनियादी विज्ञान विषयों की उपेक्षा कर सॉफ्टवेयर प्रशिक्षण को महत्व भी इसीलिए दिया जा रहा है। जबकि अमेरिका बुनियादी विज्ञान विषयों की प्रगति का पूरा ध्यान रखता है। उसकी नीति है कि तकनीकी मजदूर तो वह भारत से ले जाए पर विज्ञान और टेक्नॉलजी के ज्ञान पर नियंत्रण स्वयं रखे। चीन में भी शिक्षा का व्यवसायीकरण हुआ है, पर बुनियादी विज्ञान और टेक्नॉलजी की प्रगति का उसने पूरा ध्यान रखा है। भारत को चीन से सीखना चाहिए, क्योंकि वर्ल्ड क्लास बनने के लिए बुनियादी विज्ञान का विकास जरूरी है। 

कॉर्पोरेट व्यवस्था के समर्थक विशेषज्ञ उसी मॉडल को बनाने में जुटे हैं जिससे कॉर्पोरेट को लाभ होता हो। यह निराशाजनक ही है कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में हमारी सारी अपेक्षाएं मात्र आईआईटी और कुछ गिने-चुने विश्वविद्यालयों से ही होती है। दूसरे देशों में ऐसा नहीं है। इसी प्रकार देश भर के छात्रों का दबाव दिल्ली के कुछ गिने-चुने महाविद्यालयों पर होता है। देश में इस समय 25 हजार से भी अधिक महाविद्यालयों के विकास के लिए कोई राष्ट्रीय योजना नहीं है।उच्च शिक्षा के क्षेत्र में एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाकर हमें संपूर्ण विकास की ओर ध्यान देना होगा। 

अपने हों मापदंड 
कॉर्पोरेट निर्धारित वर्ल्ड क्लास मापदंडों के पीछे न भागकर हमें राष्ट्र की समस्याओं के अनुकूल मापदंड बनाने होंगे। नई तकनीक के विकास में जो मौलिक काम हो रहे हैं, उन्हें बढ़ावा देना होगा। देश में बड़ी संख्या में छोटे-छोटे लेकिन उपयोगी आविष्कार हुए हैं। ऐसे आविष्कारों के बारे में अकसर छपता रहता है लेकिन उस ओर सरकार कम ध्यान देती है। इससे नई तकनीक के विकास को प्रोत्साहन नहीं मिल पाता है। तकनीकी शिक्षा के समग्र विकास और पूरे उच्च शिक्षा तंत्र को मजबूत बनाने के लिए सरकार को पहल करनी पड़ेगी। साथ में इसके लिए एक राष्ट्रीय नीति भी होनी चाहिए, जिसे पूरे देश में कड़ाई से लागू करके ही हम वास्तविक अर्थों में तकनीकी शिक्षा को एक नई दिशा दे पाएंगे(शशांक द्विवेदी,नवभारत टाइम्स,दिल्ली,21.10.11)।

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