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27 मई 2012

गुरु भी पिस रहा है उपभोक्तावाद की चक्की में

एक जमाना था, जब गुरुकुल था, जब गुरुकुल प्रथा प्रचलित थी और वहां का सारा वातावरण गुरु नियंत्रित व उच्च आदर्शों का मानक होता था, आचार्य या शिक्षक पूर्णत: स्वतंत्र होता था वह अपनी स्वयं निर्मित नियमावली व आदर्शों को अपनी ही ईजाद की गई शिक्षण पद्धति द्वारा छात्रों अथवा शिष्यों को शिक्षित करता था, न उसे परिवार के पालन-पोषण की चिन्ता थी और न ही शिक्षण से इतर कार्यों में उसे खपना-खटना पड़ता था। उसका केवल और केवल एक ही लक्ष्य होता था अपने द्वारा अर्जित ज्ञान अगली पीढ़ी को संक्रमित व हस्तांतरित करना, उनमें उच्च मूल्यों, मानकों, आदर्शों को ‘इन्स्टीगेट’ यानी प्रस्थापित करना। यह वह समय था, जब शिष्य भी गुरु के प्रति पूर्णतया आज्ञाकारी होते थे लेकिन काल संक्रमण के साथ बदलता है, सो शिष्य ही नहीं गुरु भी बदले और साथ ही साथ बदला सामाजिक परिवेश, वातावरण, मूल्य व मानक तथा आदर्श। 

मूल्य समाज का स्थान समय के साथ अर्थ प्रधान समाज ने लिया तो अल्प वेतनभोगी शिक्षक तुलनात्मक रूप से अन्य वेतन भोगियों से हेय व कमतर होता चला गया। वहीं शिक्षकों का बड़ा वर्ग भी अर्थ प्रधानता की प्रवृत्ति के साथ बहता, बदलता गया और शिक्षण के स्थान पर ‘ट्यूशन’ व कोचिंग को प्राथमिकता व वरीयता देने वाला हो गया। इसी क्रम में ‘भुगतान करो और ज्ञान पाओ’ की प्रवृत्ति अभिभावकों व छात्रों में स्पष्टï परिलक्षित होने लगी यानी ‘गुरु जी’ अब बिकने व खरीदी जाने वाली वस्तु में तबदील हो गए तथा उपभोक्तावाद के जमाने में उनकी भी सीमांत उपयोगिता आंकी जाने लगी। तब भला श्रद्धा कहां बचती? 

‘इस हाथ दे, उस हाथ ले’ के चलते सिर्फ इतना ही नहीं हुआ, ‘ गुरु जी’ के ‘क्लास बंकिंग’ पर भी सतर्क निगाह रखी जा रही है और सच यह भी है कि प्राथमिक स्तर के भोले बच्चे गुरु जी की ‘बंकिंग’ से भले ही खुश होते हों पर डिग्री कॉलेज के तर्कशील विद्यार्थी बेखौफ प्रश्न खड़ा करते हैं कि यदि शिक्षक ‘कक्षा मिस’ करके ट्यूशन या कोचिंग में ‘अटैंडेंस’ दे सकते हैं तो फिर वे कक्षाओं में क्यों जाएं? या उन पर ‘शॉर्ट अटैंडेंस’ का नियम क्यों लागू हो ? बात वैसे गैरवाजिब भी नहीं है। भई, जब अभिभावक व छात्र अपनी फीस के माध्यम से आपको वेतन दे रहे हों, तब प्रश्न पूछने का हक तो उन्हें है ही। 

हालांकि ऐसा भी नहीं कि ‘टीचर’ ही माध्यमिक अथवा स्नातक,परास्नातक स्तर की शिक्षा के अधोपतन के दोषी हैं, चयन से लेकर सेवा शर्तों तक सरकारीऔर निजी दोनों क्षेत्रों में शिक्षक का बेतहाशा शोषण किया जा रहा है। जहां निजी क्षेत्रों की दुकानें विद्यार्थियों से भारी फीस वसूल करती हैं, वहां शिक्षक को वेतन के ही नाम पर नहीं ठगा जा रहा वरन् उनके नैतिक, दैहिक एवं अन्य प्रकार के शोषण के दिल दहलाने वाले तथ्य सामने आ रहे हैं। कई संस्थानों के अनपढ़, धनाढ्य व राजनीतिक पहुंच वाले मैनेजर व मालिक शिक्षक को अपने घरेलू नौकर से भी बदतर हालात में रहने को मजबूर कर रहे हैं, उन्हें न उचित वेतन मिलता है और न ही सम्मान। ऐसे में भला कैसे वो अपने ज्ञान का खजाना कहीं भी उड़ेल सकते हैं। 

सरकारी क्षेत्र अपने सफेद हाथीपने के लिए कुख्यात है ही, वहां सरकारें शिक्षक को वेतन तो पूरा देती हैं पर न तो शैक्षणिक माहौल वहां है, न समयानुकूल प्रशिक्षण, न विद्यालयों में पर्याप्त संसाधन हैं और न पाठ्य पुस्तकें। नियुक्ति के लेकर प्रस्थापन (पोस्टिंग) तक वहां वही सब ढर्रा है, जो अन्य विभागों में है। अत: शिक्षक कक्षाओं के बजाय अधिकारियों के समक्ष शरणागत होने, उनकी चापलूसी करने में, स्ययं को अधिक सुरक्षित महसूस करता है। इतने पर ही बस नहीं, सस्ती लोकप्रियता के चक्कर में शिक्षण से अधिक ‘मिड डे मील’ योजना पर शिक्षा के कर्ता-धर्ता कहीं अधिक ध्यान दे रहे लगते हैं। 

स्थिति इतनी बदतर है कि अधिकांश राज्यों में बोर्ड के परीक्षा परिणाम 50 प्रतिशत से भी कम रहते हैं मगर शिक्षक को चुनाव कराने, पोलियो ड्रॉप्स पिलाने, जनगणना, पशुगणना तथा और भी न जाने कैसे-कैसे कार्यों में झोंक दिया जाता है। ऐसा लगता है कि ये सरकारें यह मान बैठी हैं कि शिक्षक पढ़ाते तो हैं ही नहीं, सो हर फालतू कार्य उन्हीं से लेकर उन्हें दिए जाने वाले वेतन की पूर्ति की जाए।

एक बात और, अब वह पुरानी व्याख्यान पद्धति या ब्लैक बोर्ड चॉक-डस्टर वाली पढ़ाई से काम चलने वाला नहीं है, अब शिक्षण नहीं वरन् अधिगम (Learning) पर जोर देने का जमाना है। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि आपने क्या और कैसा या कैसे पढ़ाया, महत्वपूर्ण यह है कि बच्चों ने क्या सीखा और यह उद्देश्य प्राप्त करने के लिए शिक्षक को भी पुराने खोल से बाहर आना ही होगा। अब कुर्सी पर बैठकर सुस्ताने या फिर पसीने-पसीने होने से भी बात नहीं बनेगी। वरन् बच्चों के साथ बच्चा बनकर उनके व्यक्तिगत मनोविज्ञान, व्यक्तिगत जरूरत व कमजोरी को समझकर ‘मैन टू मैन’ की शैली में ‘चाइल्ड टू चाइल्ड’ पद्धति अपनानी होगी। ठीक है संसाधन कम हैं और चुनौती बड़ी है पर शिक्षक तो वह अमोघ अस्त्र है जो समाज व देश की दशा, दिशा व भविष्य बदल सकता है। अत: अब पढ़ाने की ही नहीं वरन् बच्चों को पढऩे की जरूरत है। यदि आधे शिक्षक भी यह कर पाएं तो शिक्षा व शिक्षण का परिदृश्य जल्दी ही बदला दिखने लगेगा(घनश्याम बादल,शिक्षालोक,दैनिक ट्रिब्यून,8.5.12)।

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