मुख्य समाचारः

सम्पर्कःeduployment@gmail.com

27 मई 2010

निराशा के क्षणों में......

निराश होकर लौटती लोमड़ी भले ही अंगूरों को खट्टे कहती रही हो, लेकिन आशावादी मनुष्य के लिए अंगूर कभी खट्टे नहीं रहे। आशा व निराशा को लेकर मनुष्य और पशुओं में शुरू से ही यह एक बड़ा अंतर रहा है। विकासक्रम में पशु निराश होकर बैठते या लौटते रहे, पर मनुष्य आगे बढ़ता रहा। उसकी इसी आशा व पुरुषार्थ का परिणाम है कि आज मनुष्य सभी प्राणियों को अपने वश में करने की ताकत रखता है। मनुष्य के सामने जब भी बड़ी से बड़ी मुसीबत आई, उसने उनका डटकर मुकाबला किया। असफलताओं से निराश हुआ तो निराशा में भी आशा खोज ली और सफलता के शिखर तक जा पहुंचा। अर्जुन के रूप में जब मनुष्य कुरुक्षेत्र की रणभूमि में कर्तव्य से विमुख हताश-निराश होकर बैठ गया तो श्रीकृष्ण सरीखे सारथी से कर्म की प्रेरणा पाकर निराशा त्याग गांडीव संभाला और "कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन...।" की राह पर चलकर शुत्रओं का नाश करते हुए पुनः अपना कर्तव्य निभाने लगा। सफलता की राह पर ले जाने वाला एक मात्र साधन "कर्म" ही है। कर्म करते चलिए, इच्छा शक्ति पैदा करिए। मन का ध्यान समस्याओं से हटकर अपने आप ही सकारात्मकता की ओर जाने लगेगा।

सकारात्मक चिंतन और आशावादीता पर किए गए वैज्ञानिकों के कई शोधों में साबित हो चुका है कि आशा की पतवार थामे आप अपनी जिंदगी में खुशहाली ला सकते हैं। अगर आप हर वक्त अपनी किसी असफलता की निराशा में ही डूबे रहेंगे तो भविष्य में भी सफलता के रास्ते बंद होने लगेंगे। इसलिए हमेशा आशावान रहिए। मन में विश्वास रखिए कि जिंदगी में जो बुरा होना था वह तो हो गया, अब तो बस अच्छा ही अच्छा होगा। जब भी आप ऐसा सोचने लगेंगे आपकी आधी चिंता तो यूं ही खत्म हो जाएगी। आशा की किरणें पड़ते ही निराशा व कुंठा का अंधकार मन से हटने लगता है और सफलता की सीढ़ी नजर आने लगती है। इसलिए निराश या दुखी करने वाली चीजों अथवा परिस्थितियों को कोसना छोड़कर इनके सकारात्मक पहलू पर भी ध्यान दें। जीवन में विषमताएं आती ही हैं हमारी सहन शक्ति की परीक्षा लेने के लिए। जैसे आग में तप कर सोना कुंदन बनता है, वैसे ही विषमताओं की पत्थरी से कर्म की धार तेज होती है। दुनिया में शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति होगा जो कभी निराशा न हुआ हो। अतः निराशाओं से बिना डरे अपने कर्तव्य का निष्ठा के साथ पालन करते रहें। सफलता-असफलता तो बाद की चीजें हैं। याद रखें कि "गिरते हैं शह सवार ही मैदान ए जंग में।" यानी गिरना कोई बड़ी असफलता नहीं है। कम से कम आपने प्रयास तो किया ही। हां, गिरकर न उठना-संभलना असफलता है।

जो गया, सो गया। उसे तो कोई नहीं लौटा सकता, लेकिन अपना वर्तमान और भविष्य तो उज्जवल किया ही जा सकता है। याद रखें कि दुख-सुख जीवन के अहम हिस्से हैं और सभी की जिंदगी में आते हैं। जीवन में केवल सुख ही सुख हो तो भी कुछ दिनों बाद जीवन में निरसता आने लगेगी। अगर आपको मिठाई खाना पसंद है तो भी आप हर वक्त केवल मिठाई तो नहीं खा सकते, क्योंकि कुछ दिनों बाद यह हालत हो जाएगी कि आप मिठाई के नाम से भी चिढ़ने लगेंगे। इसलिए जीवन में कुछ "नमकीन" या "तीखा" भी चाहिए होता है।

अपने प्रेरणा स्रोत बनाएं

जीवन में किसी भी बाधा या मुश्किल से निपटन के लिए एक बहुत अच्छा तरीका यह है कि आप अपने लिए कोई "प्रेरणा स्रोत" खोज लें। यह स्रोत किसी व्यक्ति का जीवन या आशीर्वाद, धर्म ग्रंथ का मंत्र, महापुरुष का कोई कथन, किसी व्यक्ति का चेहरा या चित्र, कोई कविता, भगवान की मूर्ति आदि कुछ भी हो सकता है। अवसाद, निराशा या किसी घोर संकट की घड़ी में इनमें से कोई एक भी आपकी बहुत मदद कर सकता है। केवल एक शब्द, पंक्ति या ख्याल से ही आपमें नई उमंग-तरंग का संचार हो सकता है। ऐसी न जाने कितनी ही चमत्कारी घटनाएं हो चुकी हैं जिनमें कोई व्यक्ति केवल इसलिए मौत के मुंह से लौट आया, क्योंकि संकट की उस घड़ी में भी उसने हिम्मत नहीं हारी। जब भी हिम्मत टूटने लगी उसे अपने किसी प्रिय या देवता की याद आ गई और वह फिर से नए जोश के साथ उस मुसीबत से तब तक लड़ता रहा, जब तक जीतकर सकुशल नहीं बच गया। बहुत से लोगों को पर्वत उठाए उड़ते हनुमान या सुदर्शन चक्र उठाए विष्णु भगवान के चित्र इस तरह की प्रेरणा देते हैं। कुछ लोगों के लिए "जय मां भवानी", "जय मां काली" , "हर-हर महादेव" "या अली" आदि जैसे शब्द नई ऊर्जा का काम करते हैं, तो कुछ लोगों के लिए अपने वरिष्ठ या घनिष्ठ का दिया हुआ कोई उपहार यह काम कर देता है। अगर आप भी अपने जीवन पर ध्यान दें तो ऐसी कोई न कोई प्रेरक "ढाल" या "हथियार" जरूर पा जाएंगे जिसकी मदद से किसी भी बाधा से लड़ना बहुत आसान हो जाएगा।

गीत-संगीत का भी होता है असर

गीत-संगीत का हमारे मन-मस्तिष्क और शरीर पर गहरा प्रभाव पड़ता है। अब तो इस बात को मनोविशेषज्ञ भी मानने लगे हैं कि हम जैसा गीत-संगीत सुनते हैं हमारा मन भी उसी के अनुरूप ढलने लगता है। अकसर देखा जाता है कि जब किसी का मन दुखी होता है, तो उसे दर्दभरे फिल्मी गीत-संगीत सुनना व गुनगुनाना "सुहाने" लगता है। लेकिन मनोविज्ञान के हिसाब से यह गलत होता है, क्योंकि पहले से ही अवसाद अथवा निराशा में घिरे व्यक्ति के मन में इस तरह के गीत-संगीत से निराशा के बादल और ज्यादा काले-गहरे होने लगते हैं। इसके अलावा जिस कारण से निराशा होती है वह बात भी दिलो-दिमाग पर और ज्यादा हावी होनी लगती है। निराश व्यक्ति ऐसे गीतों के किरदारों या शब्दों में अपनी ही जिंदगी देखने लगता है इसलिए ऐसे लोगों के परिजनों और शुभंिचंतकों को चाहिए कि इस तरह के गीत-संगीत से उन्हें यथासंभव बचाया जाए।

इसके उलट, मन में जोश व आशा जगाने वाले गीत-संगीत से न केवल मन ही खुश रहता है, बल्कि उत्साह से नया काम करने और हर मुश्किल से लड़ने की भी प्रेरणा मिलती है।
जीवन में जब कभी आपके मन पर निराशा की छाया पड़ने लगे, तो तुरंत उन क्षणों को याद करने की कोशिश करें जब आपने कोई बहुत बड़ा काम किया था या कोई बड़ी उपलब्धि प्राप्त की थी, किस तरह लोगों ने आपकी प्रशंसा की और आपको किसी नायक की तरह सराहा! हर व्यक्ति के जीवन में ऐसे क्षण भी होते हैं जिन्हें वह जिंदगी के सुनहरे पल मानता है। ऐसे पलों को याद करने से मन-मस्तिष्क का बोझ एक हद तक कम हो जाता है और मुसीबत से लड़ने में मदद मिलती है। फिर भी अगर को संशय रह जाए, तो नए रास्ते तलाश करें।

निराशा के समय खाली बैठकर मन पर ज्यादा बोझ पड़ता है इसलिए अपने को किसी न किसी काम में लगाए रखें। हर रोज सुबह के समय व्यायाम करने की आदत डाल लें। इससे न केवल शरीर, बल्कि मन भी मजबूत होता है। सीखने की प्रक्रिया निरंतर बनाएं रखें। अच्छा साहित्य पढ़ें; कविता, कहानी या लेख आदि लिखते रहें। किसी खेल के लिए अभ्यास शुरू कर दें या स्वीमिंग, बागवानी वगैरह में वक्त बिताएं। ऐसे लोगों के साथ ज्यादा समय रहें जिनसे आपको ताजगी व ऊर्जा मिलती हो (राजीव शर्मा,मेट्रो रंग,नई दुनिया,दिल्ली,27.5.2010)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

टिप्पणी के बगैर भी इस ब्लॉग पर सृजन जारी रहेगा। फिर भी,सुझाव और आलोचनाएं आमंत्रित हैं।