भले ही कुछ गैर राजस्थानी पृष्भूमि के लोग राजस्थान की मातृभाषा राजस्थानी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने को लेकर रोड़े अटका रहे हों लेकिन महाजनी बहीखाता पद्धति में राजस्थानी भाषा को इस्तेमाल व्यापक रूप में होता रहा है और वर्तमान में भी हो रहा है। गुजराती की उत्पत्ति राजस्थानी से मानी जाती है लेकिन उसकी जननी आज भी संवैधानिक मान्यता के लिए भीख मांग रही है। ग्रामीण व कस्बाई क्षेत्रों मेंं तो आज भी महाजनी बहीखातों में राजस्थानी ही उपयोग में ली जा रही है। प्राचीन बहियों, पट्टों आदि में राजस्थानी भाषा लिखने में महाजनी (मोड़ी, मुड़िया) लिपि का प्रयोग हुआ है। कुछ समय पहले तक बहीखातों में महाजनी लिपि प्रयोग में लाई जाती रही है, लेकिन संरक्षण के अभाव में यह लिपी लुप्तप्राय: हो गई है। जबकि राजस्थानी का प्रचुर साहित्य देवनागरी लिपि में ही लिखा मिलता है। कुछ लोग राजस्थानी को संवैधानिक मान्यता नहीं मिलने का कारण उसकी लिपी नहीं होना मानते हैं। वे मूर्खतावश या भ्रमवश ऐसा सोचते हैं। मराठी, हिन्दी, मैथिली आदि अनेक भाषाओं की लिपि भी तो देवनागरी ही है। जब राष्टÑभाषा हिन्दी, संस्कृत की देवनागरी लिपि को अपना सकती है तो राजस्थानी या अन्य भारतीय भाषा क्यों नहीं अपना सकती? यह अहम सवाल भी नीति निर्धारकों के सामने है। अब तो भाषा शास्त्री भी यह मानने लगे हैं कि अगर हिन्दी को सही अर्थों में राष्टÑभाषा बनाना है तो सभी भारतीय भाषाओं को देवनागरी लिपि राजस्थानी के सामने लिपि की समस्या नहीं बल्कि उसकी खूबी है।
गुजराती की उद्गम राजस्थानी से
कई विद्वानों का मत है कि गुजराती भाषा को उद्गम जूनी राजस्थानी से ही हुआ है। इसके बावजूद गुजराती संवैधानिक मान्यता प्राप्त समृद्ध भाषा है जबकि उसकी जननी आज भी अपने द्वार पर याचक की तरह मान्यता की भीख मांग रही है। राजस्थानी भाषा का उद्भव 9 वीं शती का माना जाता है। इसमें साहित्य रचना के प्रमाण 10 वीं से 13 वीं सदी तक पर्याप्त मिलते हैं। डॉ. मोतीलाल मेनारिया ने राजस्थानी भाषा के वंशवृक्ष को प्रस्तुत किया है। इसमें आर्य भाषा वैदिक संस्कृत से पाली व संस्कृत दो शाखाएं निकली। वहीं इन दोनों से शौरसेनी प्राकृत, मागधी व महाराष्टÑी प्राकृत तीन शाखाएं फूटी। इसके बाद शौरसेनी प्राकृत भाषा से गुर्जरी अपभ्रंश व शौरसेनी अपभ्रंश भाषाओं का उद्भव हुआ। बाद में गुर्जरी अप्रभ्रंश से राजस्थानी व गुजराती तथा शौरसेनी अपभ्रंश से हिन्दी भाषा की उत्पत्ति हुई। इस तरह राजस्थानी भाषा का एक लम्बा इतिहास है।
(दैनिक नवज्योति,जयपुर,17 मई,2010)
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18 मई 2010
महाजनी बहीखातों में भी है राजस्थानी भाषा
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बस्तर के जंगलों में नक्सलियों द्वारा निर्दोष पुलिस के जवानों के नरसंहार पर कवि की संवेदना व पीड़ा उभरकर सामने आई है |
जवाब देंहटाएंबस्तर की कोयल रोई क्यों ?
अपने कोयल होने पर, अपनी कूह-कूह पर
बस्तर की कोयल होने पर
सनसनाते पेड़
झुरझुराती टहनियां
सरसराते पत्ते
घने, कुंआरे जंगल,
पेड़, वृक्ष, पत्तियां
टहनियां सब जड़ हैं,
सब शांत हैं, बेहद शर्मसार है |
बारूद की गंध से, नक्सली आतंक से
पेड़ों की आपस में बातचीत बंद है,
पत्तियां की फुस-फुसाहट भी शायद,
तड़तड़ाहट से बंदूकों की
चिड़ियों की चहचहाट
कौओं की कांव कांव,
मुर्गों की बांग,
शेर की पदचाप,
बंदरों की उछलकूद
हिरणों की कुलांचे,
कोयल की कूह-कूह
मौन-मौन और सब मौन है
निर्मम, अनजान, अजनबी आहट,
और अनचाहे सन्नाटे से !
आदि बालाओ का प्रेम नृत्य,
महुए से पकती, मस्त जिंदगी
लांदा पकाती, आदिवासी औरतें,
पवित्र मासूम प्रेम का घोटुल,
जंगल का भोलापन
मुस्कान, चेहरे की हरितिमा,
कहां है सब
केवल बारूद की गंध,
पेड़ पत्ती टहनियाँ
सब बारूद के,
बारूद से, बारूद के लिए
भारी मशीनों की घड़घड़ाहट,
भारी, वजनी कदमों की चरमराहट।
फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
बस एक बेहद खामोश धमाका,
पेड़ों पर फलो की तरह
लटके मानव मांस के लोथड़े
पत्तियों की जगह पुलिस की वर्दियाँ
टहनियों पर चमकते तमगे और मेडल
सस्ती जिंदगी, अनजानों पर न्यौछावर
मानवीय संवेदनाएं, बारूदी घुएं पर
वर्दी, टोपी, राईफल सब पेड़ों पर फंसी
ड्राईंग रूम में लगे शौर्य चिन्हों की तरह
निःसंग, निःशब्द बेहद संजीदा
दर्द से लिपटी मौत,
ना दोस्त ना दुश्मन
बस देश-सेवा की लगन।
विदा प्यारे बस्तर के खामोश जंगल, अलिवदा
आज फिर बस्तर की कोयल रोई,
अपने अजीज मासूमों की शहादत पर,
बस्तर के जंगल के शर्मसार होने पर
अपने कोयल होने पर,
अपनी कूह-कूह पर
बस्तर की कोयल होने पर
आज फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त साहित्यकार, कवि संजीव ठाकुर की कलम से