देश में शिक्षा का अधिकार कानून एक अप्रैल से लागू कर दिया गया, मगर जब इसे अमल में लाने पर विचार किया गया, तो यह बात सामने आई कि देश में तेरह लाख शिक्षकों की कमी है। आखिर बच्चों को पढ़ाएगा कौन? पिछले सप्ताह राज्यों के शिक्षा मंत्रियों के सम्मेलन में यह सवाल उठा। छह से चौदह साल के बच्चों को मुफ्त शिक्षा प्रदान करने संबंधी कानून जब बनाया गया था, तो उससे पहले ही शिक्षकों की भर्ती पर विचार कर लिया जाना चाहिए था या फिर राज्य सरकारों को पहले ही कमर कस लेनी चाहिए थी, क्योंकि लगभग सभी राज्य सरकारों को पता था कि शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने वाला है। इसमें अब संदेह है कि विभिन्न राज्यों में शिक्षकों के जो पद रिक्त हैं, वे समय रहते भरे जा सकेंगे। अब जब कानून पर अमल का समय आ गया है, तो केंद्र व राज्य सरकारों को शिक्षकों की कमी नजर आ रही है? कानून बन गया, मगर अमल अधर में लटक गया। जब कानून बना था, तभी कई राज्यों ने इसके अमल को लेकर हाथ खड़े कर दिए थे। दलील थी कि कानून को अमल में लाने के लिए उनके पास आवश्यक ढाँचा खड़ा करने के लिए धन की कमी है। नि:संदेह, जब लाखों बच्चों के लिए शिक्षा की व्यवस्था की जानी हो, तो उसके लिए उपयुक्त ढाँचे और पर्याप्त धन की भी जरूरत होती है। अब जब राज्य धन की कमी की बात कर रहे हैं, तो केंद्र सरकार अपना अंशदान बढ़ाने का भरोसा दिला रही है, लेकिन सवाल उठता है कि क्या केंद्र के मामूली अंशदान बढ़ा देने के बाद राज्य सरकारें शिक्षा का उपयुक्त ढाँचा खड़ा कर सकेंगी? धन की व्यवस्था होनी चाहिए, मगर इस काम के लिए दृढ़ इच्छा शक्ति भी होनी चाहिए, जिसकी कमी बनी हुई है। शिक्षा का अधिकार कानून बनता चाहे, नहीं बनता, राज्य सरकारें और केंद्र सरकार की इच्छाशक्ति और तत्परता में हमेशा कमी रही है। अपेक्षित इच्छाशक्ति के साथ तत्परता और सजगता बरती गई होती, तो आज शिक्षा के अधिकार कानून को अमल में लाने के लिए इधर-उधर देखने की नौबत नहीं आती। मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा कानून तो लागू तब होना माना जाएगा, जब यह अमल में आने लगेगा, वरना कानून तो कागजी ही बना रहेगा। स्वतंत्र भारत में संविधान बनाते समय तो प्रत्येक बच्चे को वचन दिया गया था कि दस वर्ष के भीतर सारे बच्चे शिक्षित होंगे। लेकिन, आजाद हुए छह दशक से अधिक का समय बीत जाने के बावजूद हालात में सुधार नहीं आ सका। सर्व शिक्षा अभियान के समय भी तो सरकार ने यही सब वायदे किए थे, मगर सर्व शिक्षा अभियान की खामियां रह-रह कर सामने आ रही हैं। अब तो यह भी सामने आ रहा है कि इस अभियान के क्रियान्वयन के लिए ब्रिटेन की ओर से जो अरबों रुपयों की मदद दी गई थी, उसका एक बड़ा भाग भ्रष्टाचार और अनावश्यक खर्चों की भेंट चढ़ गया। अब केंद्र सरकार से सफाई देते नहीं बन रही है। ब्रिटेन की सरकार ने अपने स्तर पर जांच का फैसला लिया है, जो भारत की छवि खराब करने वाला है। शिक्षा अधिकार कानून लागू करने के साथ ही आखिर केंद्र सरकार को यह सोचना चाहिए था कि आखिर इसके लिए एक लाख 71 हजार करोड़ रुपये की राशि कहाँ से आएगी? वित्त आयोग ने राज्यों को केवल 25 हजार करोड़ रुपये ही देने का प्रावधान कर रखा है। कानून के क्रियान्वयन को लेकर राजनीतिक और शिक्षा के क्षेत्र में जब संदेह पैदा हो रहे थे, तब मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा था कि हम इस मिथक को तोड़ देंगे कि सरकार गुणवत्तापरक शिक्षा प्रदान नहीं कर सकती। मगर, अब तो सरकार को शिक्षा-ढाँचा चरमराता नजर आ रहा है। समझ में यह नहीं आता कि सरकार जब राष्ट्रमंडल खेलों पर एक लाख करोड़ रुपये का खर्चा करने को आतुर है, तो फिर उसकी वैसी तत्परता शिक्षा के लिए क्यों नहीं दिखती? कानून को अमल में लाने का समय आने पर उसे शिक्षकों की इतनी भारी कमी की चिंता क्यों सता रही है?(दैनिक नवज्योति,21.6.2010)
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