आंखों ही आंखों में
हिन्दी की शक्ति को जानने के लिए उसका उपयोग करना आवश्यक है। भाषा कोई भी हो, वह कभी शक्तिहीन नहीं होती है। लेकिन प्रत्येक भाषा की अपनी विशिष्टता होती है, पहचान होती है। यह पहचान उसके उपयोग में शब्दों, अर्थों, भावों के माध्यम से मिलती है और इसीलिए भाषा का उपयोग करने पर ही उस भाषा के सामर्थ्य को पहचाना जा सकता है। "आंख" को लेकर हिन्दी का एक प्रयोग बहुत रोचक है। "आंख" को "नजर" के अर्थ में और "नजर" को "आंख" के अर्थ में अदल-बदल कर दिया जाता है। "आंख" के प्रयोग से कुछ शब्द समूहों को कितने शक्तिशाली अर्थ मिलते है, पढ़िए : आंखें चार हो जाना। प्यार करने वाले भी शायद नहीं जानते होंगे कि इसका अर्थ "प्यार" से जुड़ा है। "नजरें मिलीं" से भी लगभग यही अर्थ ध्वनित होता है। दो प्रेमियों की दो-दो आँखें मिलकर "चार" हो जाती हैं यानी उनके बीच, उनके दिलों के बीच का फासला मिट जाता है। वे एकाकार होने की दिशा में बढ़ जाते हैं। "आंखों ही आंखों में" यानी संदेश का आदान-प्रदान बिना किसी शब्द या माध्यम के। बहुत कह दिया जाता है "आंखों ही आंखों में।" "आंख का पानी" खत्म हो जाना यानी शर्म खत्म हो जाना है। जबकि नजरें नीची कर लेने में शर्म की भूमिका उसमें आ जाती है। "नजरें चुराना" यानी मिलने से, पहचाने जाने से बचना। किसी भूल, शर्म या अन्य कारण से नजरों को किसी से चुराना पड़ता है। "आंख बंद कर लेना" का अर्थ है वास्तविकता को नहीं जानने की मनःस्थिति में होना और आंख बंद हो जाना यानी महाप्रयाण पर चल पड़ना। किसी ने सच ही कहा है कि आंखें सब कुछ कह देती हैं(दिल्ली संस्करण,4.9.2010)।
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