जब शिक्षा संबंधी सुधारों को एक तरह से युद्ध स्तर पर आगे बढ़ाने की आवश्यकता है तब यह तथ्य सामने आना निराशाजनक है कि शैक्षिक न्यायाधिकरण विधेयक संसद के अगले सत्र में आएगा। इसका मतलब है कि मामला तीन-चार महीने के लिए लटक गया। यह देरी इसलिए और दुर्भाग्यपूर्ण है, क्योंकि शिक्षा क्षेत्र में वे सुधार अब जाकर सरकार के एजेंडे पर आए हैं जिन पर दशकों पहले ध्यान देना चाहिए था। कपिल सिब्बल ने मानव संसाधन विकास मंत्री का पद संभालते समय अपनी तेजी और तेवरों से यह आभास कराया था कि शैक्षिक सुधार उनकी प्राथमिकता सूची में हैं। इसी कारण वह अपने दायित्वों को लेकर पूरी तरह सजग और सक्रिय मंत्री के रूप में उभर कर सामने आए थे, लेकिन करीब डेढ़ वर्ष बाद वह भी अन्य अनेक मंत्रियों के साथ वहीं पर खड़े नजर आ रहे हैं। भले ही उनके तेवर बरकरार हों, लेकिन उनकी उपलब्धियों का ग्राफ स्थिर नजर आने लगा है। अपने कार्य के प्रति समर्पित नजर आने वाले एक और केंद्रीय मंत्री का नाकाम होते दिखना चिंताजनक है, लेकिन शैक्षिक न्यायाधिकरण विधेयक के राज्यसभा से पारित न हो पाने के लिए केवल विरोधी दलों को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता। वैसे भी यह एक यथार्थ है कि इस विधेयक पर सत्तापक्ष के भी अनेक सांसदों ने एतराज जताया। यह आश्चर्यजनक है इस एतराज के बावजूद कपिल सिब्बल विधेयक को उसी रूप में पारित कराने पर अड़े रहे। इससे भी आश्चर्यजनक यह है कि उन्होंने इस विधेयक को लेकर संसद की स्थायी समिति की एक भी सिफारिश पर गौर नहीं किया। कपिल सिब्बल की यह मान्यता सही हो सकती है कि मौजूदा शैक्षिक न्यायाधिकरण विधेयक में कोई खामी नहीं, लेकिन लोकतंत्र की अपनी कुछ व्यवस्थाएं हैं। यह सहज-सामान्य नहीं कि कोई मंत्री संसदीय समिति की सिफारिशों को सिरे से ठुकरा दे और वह भी तब जब विपक्ष के साथ-साथ सत्तापक्ष के सदस्य भी अपने सुझावों को लेकर एकमत नजर आ रहे हों। सिब्बल ने ऐसा ही किया और यही कारण है कि उन्हें अपने ही दल के एक सांसद से यह सुनना पड़ा कि सरकार और मंत्रालयों को संसदीय स्थायी समितियों का सम्मान करना सीखना चाहिए। आम सहमति लोकतंत्र का मूल तत्व है और उसकी अनदेखी करना उचित नहीं। नि:संदेह कई बार आम सहमति कायम करने में कठिनाई आती है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि कोई मंत्री अपनी ही चलाए। कम से कम विधेयकों के मामले में तो यह रवैया काम आने वाला नहीं है। विडंबना यह है कि इस रवैये की झलक पूरी सरकार के कामकाज में दिखने लगी है। बात एक अकेले मानव संसाधन विकास मंत्रालय के रवैये की ही नहीं है। अन्य अनेक मंत्रालय भी ऐसे हैं जो अपने कामकाज से विपक्ष तो दूर रहा, सत्तापक्ष को ही संतुष्ट नहीं कर पा रहे हैं। इसका एक प्रमाण शैक्षिक न्यायाधिकरण विधेयक ने दिया तो शत्रु संपत्ति और वक्फ संशोधन विधेयकों ने भी यह प्रकट किया कि उन्हें लेकर सरकार के अंदर ही एकराय नहीं है। संप्रग सरकार के नीति-नियंताओं को यह अहसास हो जाए तो अच्छा है कि अपने दूसरे कार्यकाल में मनमोहन सरकार बिखराव और गुटबाजी से त्रस्त है। संप्रग नेता चाहे जैसा दावा करें, आम जनता के बीच यही धारणा घर कर रही है कि केंद्रीय शासन करीब-करीब हर मोर्चे पर विफल है(संपादकीय,दैनिक जागरण,3.9.2010)।
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