भारत और इंडिया का विरोधाभास वैसे तो कई बार रेखांकित किया जा चुका है, पर इधर इसकी चर्चा एक बार फिर उठी है। इसका एक पहलू संयुक्त राष्ट्र की उस रिपोर्ट से जुड़ता है जिसमें मिलेनियम लक्ष्यों से भारत के पिछड़ने की बात कही है। चर्चा का दूसरा सिरा मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल से जुड़ता है, जिनका उच्चतर शिक्षा में सुधार का प्रस्ताव कांग्रेस के भीतर से ही तीखा विरोध झेल रहा है।
यूएनडीपी की रिपोर्ट में कुछ सेक्टरों में भारत की बढ़त की सराहना की गई है- जैसे प्राइमरी एजुकेशन, रूरल इंप्लायमेंट और लोगों को पीने का साफ पानी मुहैया कराना। लेकिन गरीबी, भुखमरी, कुपोषण और स्वास्थ्य जैसे बेहद जरूरी मोचोंर् पर देश की सुस्त रफ्तार को रेखांकित करते हुए रिपोर्ट कहती है कि इन मामलों में गति अगर ऐसी ही बनी रही तो मिलेनियम डिवेलपमेंट गोल्स के तहत तय किए गए लक्ष्य अगले पांच सालों में हरगिज नहीं पाए जा सकते।
इस रिपोर्ट के मुताबिक पूरी दुनिया में भुखमरी के शिकार लोगों की आधी आबादी भारत में रहती है और यहां के लगभग 46 पर्सेंट बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। रिपोर्ट में खास तौर से यूपी, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, उत्तराखंड और महाराष्ट्र का नाम लिया गया है, जहां देश के कुल गरीब लोगों का 64 फीसदी हिस्सा रहता है।
यूएनडीपी की रिपोर्ट से इंडिया बनाम भारत का विरोधाभास साफ प्रकट नहीं होता, लेकिन दिग्विजय सिंह और मणिशंकर अय्यर जैसे वरिष्ठ कांग्रेसी नेता इसे सरकार की उस कवायद में जाहिर होते देख रहे हैं, जिसमें वह प्राइमरी शिक्षा से कहीं ज्यादा ध्यान उच्चतर शिक्षा पर देती नजर आ रही है।
कपिल सिब्बल के प्रस्ताव में आईआईटी जैसे संस्थानों को बढ़ावा देने और इनमें विदेशी शिक्षक लाने तक की बात मौजूद है। इस प्रस्ताव पर सिब्बल को आड़े हाथों लेते हुए दिग्विजय सिंह ने कहा है कि एचआरडी मिनिस्ट्री को फिलहाल स्कूली शिक्षा और उन तकनीकी कोर्सों पर ध्यान देने की जरूरत है, जिनसे छोटे-छोटे रोजगार पैदा होते हैं।
आईआईटी बनाम आईटीआई की इस बहस में मणिशंकर अय्यर ने यह कहकर छौंक लगाया है कि गरीबों की चिंता छोड़कर शेयर बाजार को देश की इकॉनमी का आधार बनाने की कोशिश ठीक नहीं है। यानी सवाल वही कि मंदी से खुद को बचाने में सफल रहे देश की आर्थिक तरक्की का फायदा आखिर किसे हो रहा है? अगर गरीबों, कुपोषित बच्चों, बीमार माताओं और बेरोजगारों की तरफ से नजर हटाकर सरकार सिर्फ जीडीपी के आंकड़ों और विदेशी यूनिवर्सिटियों से बराबरी के सपनों में खोई रहेगी तो उस भारत का क्या होगा जो आज भी दो वक्त की रोटी के इंतजाम में पूरा दिन गुजार देता है(संपादकीय,नवभारत टाइम्स,दिल्ली,13.9.2010)।
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