हर राष्ट्र के कुछ सम्मान चिह्न होते हैं। राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रभाषा, राष्ट्रीय पक्षी और पशु भी घोषित किए जाते हैं। कैसी विडंबना है कि राष्ट्रीय पशु और पक्षी मारने वालों को तो दंड मिलता है, पर राष्ट्रभाषा का तिरस्कार ही नहीं, बल्कि खुला अपमान करने वालों को कोई दंड नहीं मिलता। स्वतंत्रता के पश्चात यह व्यवस्था की गई कि 15 वर्ष बाद हिंदी देश की राष्ट्रभाषा होगी और गैर हिंदी भाषी राज्यों में संपर्क के लिए हिंदी को अपनाया जाएगा, पर इस देश में शासन व्यवस्था उन्होंने संभाली थी जिनके मन-मानस पर मैकॉले की गहरी छाप थी। सन 1963 में अनिश्चितकाल के लिए अंग्रेजी का वर्चस्व बनाए रखने की व्यवस्था कर दी गई और इसके बाद केवल अंग्रेजी भाषा ही नहीं, अपितु अंग्रेजियत की जड़ें भारत में गहरी होती गईं। मैकाले ने 2 फरवरी, 1835 को ब्रिटिश संसद में भाषण देते हुए यह कहा था कि भारत की रीढ़ की हड्डी बड़ी मजबूत है। रीढ़ की हड्डी से उनका अभिप्राय भारत की सभ्यता और संस्कृति से था। मैकॉले की नीति कामयाब रही। आज की स्थिति यह है कि स्वतंत्र भारत आजादी के 64वें वर्ष में भी हिंदी को अपनाता नहीं, हिंदी दिवस मनाता है। जिन्होंने अपने हस्ताक्षर कभी हिंदुस्तान की किसी भाषा में नहीं किए, जिनके घर के दरवाजों पर उनके नामपट्ट मैकॉले की भाषा में लटकते हैं, जिनके बच्चे उन स्कूलों में पढ़ते हैं जहां भारतीयता का प्रवेश भी मना है वे भी अपने कार्यालयों में अथवा संस्थानों में हिंदी दिवस मनाकर अथवा हिंदी दिवस के कार्यक्रमों में मुख्य अतिथि बनकर भाषण देते हैं। हिंदी से मेरा अभिप्राय भारत की सभी भाषाओं से है। कभी आपने सुना कि किसी हिंदी या पंजाबी माध्यम में शिक्षा देने वाले स्कूल में अंग्रेजी बोलने पर दंड दिया गया हो? पर अंग्रेजी माध्यम स्कूल में पंजाबी बोलने वाले को दंड अपने ही देश में दिया जाता है। उत्तर प्रदेश के एक स्कूल में हिंदी बोलने वाले छात्रों के मुंह में नीम के पत्ते डालकर दंडित किया गया था। अमृतसर के एक स्कूल में अध्यापिकाओं ने मुझे बताया कि उन्हें भारतीय भाषाएं न बोलने का आदेश दिया गया है। महात्मा गांधी के नाम पर राजनीति की दुकानें सजाने वाले भी भूल गए कि गांधीजी ने बच्चों को प्राथमिक स्तर पर उनकी मातृभाषा में शिक्षा देने की बात कही थी। ऊंचे शिखरों पर बैठे कितने नेता हैं जो अपने देश की भाषा बोलते हैं। हमारे प्रधानमंत्री के मुख से भी हिंदी या पंजाबी तभी सुनाई देती है जब वे चुनावी सभा में भाषण दें या फिर 15 अगस्त को लाल किले से राष्ट्र को संबोधित करें। आश्चर्य है कि अंग्रेजी नाम रखते ही वस्तुओं और संस्थाओं की कीमत अपने देशवासियों के मन में बढ़ जाती है। भारत के साधु-संत अनादिकाल से ही योग स्वयं भी करते थे और सबको योग की शिक्षा देते थे। गुलामी के दिनों में हम बहुत कुछ भूल गए, लेकिन यही योग जब अंग्रेजों की मंडी से योगा बनकर आया तब हमें प्रभावित करने लगा। स्कूल का नाम अंग्रेजी में रखा जाए तो यह समझा जाता है कि यहां शिक्षा अच्छी मिलेगी। आलू के बारीक तले हुए टुकड़े जब अंग्रेजी में पोटेटो चिप्स लिखकर बेचे जाते हैं तब दो सौ रुपये किलो के दाम देकर हम शान का अनुभव करते हैं। हमने अंग्रेजी मोह में भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण जी को भी लॉर्ड रामा और लॉर्ड कृष्णा बना दिया। यह भूल गए कि लॉर्ड तो इंग्लैंड वालों का एक पद है। अंग्रेजी बोलने वालों की नकल करते हुए हमने अपने आंध्र प्रदेश को आंध्रा और केरल को केरला बना दिया। महाराष्ट्र भी तो अब महाराष्ट्रा हो गया। शुक्र है अभी पंजाब को पंजाबा और हिमाचल को हिमाचला नहीं कहा गया। प्रश्न यह है कि अपनी भाषाओं में ही हम गर्व अनुभव क्यों नहीं करते? हिंदी दिवस मनाने वालों से नम्र निवेदन है हिंदी दिवस के कार्यक्रमों में उन्हें ही मुख्य अतिथि बनाएं जो राष्ट्रभाषा के लिए मन में आदर रखते हैं। भारतीय भाषाओं में अपना सारा काम करते हैं, अपने घर के खुशी के मौकों पर भारतीय भाषाओं में निमंत्रण पत्र तैयार करवाते हैं और हस्ताक्षर भारत की ही किसी भाषा में करते हैं। हिंदी के नाम पर मंच सजाने वाले पहले स्वयं को जांच लें और फिर उन लोगों को कार्यक्रम में आमंत्रित करें जो राष्ट्रभाषा का केवल नाम नहीं लेते, प्रयोग भी करते हैं(डॉ. लक्ष्मीकांता चावला,दैनिक जागरण,14.9.2010)।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
टिप्पणी के बगैर भी इस ब्लॉग पर सृजन जारी रहेगा। फिर भी,सुझाव और आलोचनाएं आमंत्रित हैं।