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31 अक्टूबर 2010

देवनागरी में उर्दूःराजकिशोर

इस साल का ज्ञानपीठ पुरस्कार जिन दो लेखकों को मिला है, उनमें से एक उर्दू के मशहूर शायर शहरयार हैं। यह वही शहरयार हैं जिन्होंने लोकप्रिय फिल्म पाकीजा के लिए बहुत खूबसूरत गीत लिखे थे। शहरयार को कभी-कभी अफसोस होता है कि अपनी शायरी की वजह से वह उतने लोकप्रिय नहीं हो सके, जितनी लोकप्रियता गमन, अंजुमन और पाकीजा के गीतों ने उन्हें बख्शी। कारण बिल्कुल साफ है। जितने लोग शायरी पढ़ते या सुनते हैं उनसे ज्यादा लोग फिल्म देखते हैं, लेकिन शहरयार फिल्मी गीतों के लेखक के रूप में नहीं, कवि और साहित्यकार के रूप में प्रसिद्ध होना चाहते हैं तो यह उचित ही है। उनकी उर्दू में दो दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। हिंदी में उनके चार कविता संकलन छपे हैं। मेरा अनुमान है कि उर्दू में शहरयार की किताबों की जितनी प्रतियां बिकी होंगी उससे कहीं ज्यादा हिंदी में बिकी होंगी। रॉयल्टी भी उन्हें अपने हिंदी प्रकाशकों से ज्यादा मिलती होगी। शहरयार को उर्दू साहित्य के लेखक, प्राध्यापक और मुट्ठीभर साहित्य प्रेमी पढ़ते होंगे पर हिंदी में उनके पाठकों का एक बड़ा परिवार है। यही बात उर्दू के दूसरे लेखकों के बारे में भी कही जा सकती है। उर्दू एक सशक्त भाषा है। उर्दू शायरी का अपना ही मिजाज है। उर्दू गजल जैसी चीज दुनिया के किसी भी साहित्य में शायद ही हो। हालांकि बहुत-सी फालतू गजलें भी लिखी जाती हैं, पर उर्दू गजल का औसत स्तर हिंदी कविता से बेहतर है। इसका असर हिंदी पर भी पड़ा है। हिंदी में गजल तो पहले भी लिखी जाती थी, पर दुष्यंत कुमार ने हिंदी गजल को जो गरिमा और ऊंचाई दी, वह एक परिघटना बन गई। आज भी अनेक कवि हिंदी में गजल लिखते हैं और कुछ तो बहुत अच्छा लिखते हैं। लेकिन उर्दू की बात ही अलग है। उर्दू और हिंदी को एक ही भाषा हिंदुस्तानी की दो शैलियां माना जाता है। दोनों का विकास खड़ी बोली की पृष्ठभूमि में हुआ है। उर्दू और हिंदी की एकता का सबसे बड़ा सबूत यह है कि दोनों का व्याकरण एक है। कोई भाषा अपने व्याकरण से अलग होती है, न कि अपने शब्द भंडार से। यूरोप की अधिकांश भाषाओं का शब्द भंडार एक ही स्त्रोत से आया है। उनकी लिपि भी एक जैसी है। पर प्रत्येक भाषा का व्याकरण अपना है। जहां तक उर्दू और हिंदी का सवाल है, सिर्फ इनकी लिपियां अलग-अलग हैं। शब्द भंडार में फर्क तब आता है जब उर्दू में अरबी और फारसी के शब्द बढ़ा दिए जाते हैं और हिंदी में संस्कृत के। वास्तव में अरबी-फारसी भी भारत के लोगों के लिए संस्कृत ही हैं। अगर हम ऐसी भाषा के आग्रही हैं जो सीधी-सादी हो और आम जनता की समझ में आती हो जैसी भाषा प्रेमचंद और महात्मा गांधी की थी तो वह उर्दू और हिंदी का मिला-जुला रूप ही हो सकती है। इसमें कोई शक नहीं कि फारसी में लिखी जाने वाली उर्दू का भविष्य हिंदुस्तान में धूमिल है। उर्दू यहां से खत्म नहीं होगी पर उसकी व्यापकता कम होती जाएगी। इसके पीछे किसी प्रकार का सांप्रदायिक पूर्वाग्रह नहीं है। कोई भाषा तभी बची रहती है और विकसित होती है जब उसका इस्तेमाल करने वाले ठीक-ठाक तादाद में हों और शिक्षा, प्रशासन, उद्योग-व्यापार तथा कोर्ट-कचहरी में उसका इस्तेमाल होता हो। वास्तव में उर्दू कभी जन भाषा नहीं रही। आज भी नहीं है। वह इसलिए फैली, क्योंकि राजनीति की सत्ता उसके साथ थी। हिंदी भाषियों के हाथ में सत्ता आते ही हिंदी ने उर्दू का स्थान काफी कुछ हड़प लिया। अब हिंदुस्तान में उर्दू बची हुई है, तो इसके दो कारण हैं इस्लाम की धार्मिक शिक्षा (यद्यपि यह उर्दू की अपेक्षा अरबी पर ज्यादा जोर देती है, क्योंकि कुरान की मूल भाषा अरबी ही है) और सरकारी संरक्षण। एक जीवंत भाषा के रूप में उर्दू का भविष्य सिर्फ इन दो बातों पर निर्भर नहीं रह सकता। इसीलिए इस प्रस्ताव पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए कि उर्दू को देवनागरी लिपि में क्यों न लिखा जाए? पहले भी यह प्रस्ताव आ चुका है और इस पर बहस-मुबाहसा हुआ है, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला। उर्दू के लिए फारसी लिपि को जारी रखने के समर्थकों का दावा है कि उर्दू को अगर देवनागरी में लिखा जाए तो उसकी अस्मिता ही खत्म हो जाएगी। मेरे ख्याल से यह तर्क पूर्वाग्रह से भरा हुआ है। उर्दू न तो सिर्फ मुसलमानों की भाषा है और न इस्लाम से इसका कोई अंतरंग रिश्ता है। यह महज इत्तफाक है कि वह फारसी में लिखी जाने लगी वरना वह अरबी या देवनागरी लिपि में भी लिखी जा सकती थी। अमीर खुसरो को किस भाषा का कवि माना जाए? आगरा के नजीर अकबराबादी को हिंदी का कवि माना जाए या अरबी का? अब जबकि इतिहास पूरी करवट ले चुका है, तब उर्दू प्रेमियों को सोचना चाहिए कि वे अपनी भाषा की जान लेकर रहेंगे या उसे देवनागरी की मीठी दवा पिलाकर नया जीवन देंगे? देवनागरी कोई साधारण लिपि नहीं है। यह दुनिया की कुछ उत्कृष्ट लिपियों में एक है। हिंदी को उर्दू में लिखना मुश्किल होगा, पर कठिन से कठिन उर्दू को हिंदी में बखूबी लिखा जा सकता है। मेरे जैसे हजारों पाठक देवनागरी में मीर, गालिब और फिराक को पढ़कर आनंद लेते हैं। तो आज जो सिर्फ उर्दू जानते हैं, वे देवनागरी में प्रेमचंद और निराला का आनंद क्यों नहीं ले सकते?(दैनिकजागरण,राष्ट्रीय संस्करण,31.10.2010)

1 टिप्पणी:

  1. मुझे तो लगता है कि उर्दू यदि देवनागरी लिपि अपनाएगी तो भी मरेगी और नहीं अपनाकर जल्दी मरेगी। कल ही एक उर्दूप्रेमी पत्रकार का लेख पडा जिसमें उन्होने स्वीकार किया है कि पाकिस्तान में उर्दू उन लोगों की भाषा है जिन्हे मुजाहिर कहा जाता है और जो भारत के बिहार एवं उत्तरप्रदेश को छोड़कर पाकिस्तान बसाने गये थे।

    उर्दू-फंडामेंटलिज्म ने पहले भारत को बंटवाने के लिये आग लगायी और पाकिस्तान बनाया। बाद में वही पाकिस्तान उर्दू-फंडामेंतलिज्म का शिकार हो गया।

    मेरा मानना है कि उर्दू न भारत की भाषा है न पाकिस्तान की। वह अत्यन्त शंकर भाषा थी जो अरबी, फारसी, तुर्की से शब्द लिये; हिन्दुस्तान से व्याकरण लिया; मुस्लिमजगत से लिपि ली और राजवाड़ों एवं कोठों तक सीमित रही।

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