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09 नवंबर 2010

तकनीकी विषयों की आपाधापी में कला(आर्ट्स) विषय

कला संकाय में निरन्तर नीचे आती छात्र-छात्राओं की संख्या किसी भी शिक्षाविद् को यह सोचने पर बाध्य कर देती है कि हम किधर जा रहे हैं। विगत कुछ वर्षों के आंकड़ों को ध्यान से देखने पर यह तथ्य सामने आता है कि कला संकाय तथा सामाजिक विज्ञान के विभिन्न विषयों में छात्रों का रुझान कम होता चला जा रहा है। दस जमा दो कक्षा उत्तीर्ण कर लेने के पश्चात् युवा कला संकाय की ओर रुख करने से कतराने लगे हैं। महाविद्यालयों में भाषा (हिंदी, संस्कृत, पंजाबी आदि) में स्नातक की डिग्री लेने की अपेक्षा, कॉमर्स-अर्थशास्त्र में स्नातक करना, कंप्यूटर व प्रौद्योगिकी से संबंधित विषयों का अध्ययन या अन्य रोज़गारपरक विषयों की ओर मुडऩा छात्रों का लक्ष्य हो गया है। भाषा व साहित्य की कक्षाओं में छात्र संख्या में लगातार गिरावट आई है। यही स्थिति इतिहास, भूगोल, राजनीतिशास्त्र, समाजशास्त्र, दर्शनशास्त्र, मनोविज्ञान, गृह विज्ञान तथा अन्य विषयों की भी है। मेधावी, मेहनती तथा मैरिट में आने वाले युवा विज्ञान, गणित, कंप्यूटर, कॉमर्स आदि विषयों को बेहतर मानते हुए उनमें अपनी मंजि़ल तलाशते हैं।

इस वृत्ति के कई कारण हैं। युवक हो या युवती, आज के महंगाई के युग में रोज़गारपरक शिक्षा सभी चाहते हैं। जब कोई युवा अपने जीवन के बेहतरीन वर्ष एक डिग्री या डिप्लोमा अर्जित करने में लगा देता है तथा उसके लिये अपने या अपने अभिभावकों के सीमित आर्थिक संसाधनों का प्रयोग करता है अथवा ‘एजुकेशन लोन' लेता है तो उसकी यह अपेक्षा सर्वथा उचित है कि शिक्षा समाप्त होते ही उसे एक सम्मानजनक रोज़गार मिले, जिससे उसका व उसके परिवार का भरण-पोषण हो सके।

आज का युग तकनीक का युग है, आर्थिक वैश्वीकरण का ज़माना है। आज कंप्यूटर, प्रौद्योगिकी तथा बाज़ार का बोलबाला है। देश हो अथवा विदेश, इस क्षेत्र में उच्च शिक्षा प्राप्त युवाओं को रोज़गार के सुनहरे अवसर प्राप्त हैं। यदि किसी कारणवश किसी युवक को अपनी योग्यतानुकूल या मनमुताबिक नौकरी नहीं भी मिलती तो भी उसे निराश होने की आवश्यकता नहीं। वह खुद का कंप्यूटर सेंटर खोल लेता है, कुछ कजर् लेकर अपनी एक छोटी-सी अकादमी शुरू कर देता है तथा कुछ ही समय बाद समाज में न केवल स्वयं अपनी एक जगह बना लेता है बल्कि अपने साथ-साथ दूसरे युवाओं को भी रोज़गार देने में सक्षम हो जाता है। आज स्थिति यह है कि एक इंजीनियर तो अपने बेटे को इंजीनियर बनाना चाहता है, पर कला संकाय का प्राध्यापक अपने बच्चे को कला संबंधित कोई भी विषय पढऩे को प्रोत्साहित नहीं करता। उसे लगता है कि इन विषयों का भविष्य अंधकारमय है क्योंकि उनमें रोज़गार की संभावना लगभग शून्य है। कला संकाय में छात्र संख्या के नीचे गिरते ग्रा$फ के लिये कुछ सीमा तक भाषा व सामाजिक विज्ञान से जुड़े लोग भी उत्तरदायी हैं। जब एक विषय का विशेषज्ञ, एक अध्यापक ही अपने विषय के भविष्य के संबंध में स्वयं इतना हताश, निराश हो जाएगा तो वह अपने विद्यार्थियों को किस प्रकार प्रोत्साहित कर सकेगा?

हम सब यह जानते हैं कि समय की मांग व परिस्थितियां सदैव एक-सी नहीं रहतीं। आज से चार या पांच दशक पूर्व कला संबंधित विषयों की उपयोगिता कुछ और थी तथा इनमें सीमित रोज़गार की संभावनाएं उपलब्ध थी। इन चालीस-पचास वर्षों में बहुत कुछ परिवर्तित हो गया है। आज इन विषयों की उपयोगिता समाप्त नहीं हुई है, अपितु परिवर्तित हो गई है। इस परिवर्तित उपयोगिता को या तो हम लोगों ने पहचाना नहीं है या हममें से कुछेक ने उसे पहचान लिया है तो उस बदले स्वरूप को समाज के सम्मुख लाने में असमर्थ रहे हैं। इन विषयों के अध्ययन की आवश्यकता, इनकी आज के संदर्भ में उपयोगिता, इस उपयोगिता के परिवर्तित स्वरूप को समझना व उसके अनुरूप रोज़गार की संभावनाओं को तलाशना व उनका निर्माण करना—यह आज के प्रबुद्ध वर्ग व बुद्धिजीवियों का उत्तरदायित्व है। आज कला संकाय की जो शोचनीय अवस्था है, उसके लिये कुछ सीमा तक हमारा दृष्टिकोण भी जि़म्मेवार है। प्रत्येक विषय में पंद्रह-बीस प्रश्नों के उत्तर याद कर लेने से तथा परीक्षा में उनमें से चार-पांच प्रश्नों के उत्तर उत्तर-पुस्तिका में लिख देने से यदि डिग्री हासिल हो जाये तो इससे अधिक सहज, सुलभ रास्ता और क्या हो सकता है? परन्तु यह मार्ग अपनाने से छात्र अपना तो अहित करते ही हैं, साथ ही उस विषय की गरिमा तथा महत्व को भी ठेस पहुंचाते हैं।

इस मशीनी व अर्थ प्रधान युग में तकनीशियनों, अभियंताओं व अर्थशास्त्रियों की आवश्यकता व उनकी महत्वपूर्ण भूमिका से हमें कदापि इनकार नहीं परन्तु मानव समाज केवल और केवल तकनीक व पैसे के सहारे नहीं चला करता। एक संपूर्ण, स्वस्थ समाज के लिये कवि, कलाकार, चित्रकार, भाषाविद्, साहित्यकार, रंगकर्मी, वकील, न्यायाधीश, क्षेत्रीय, प्रांतीय, राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वस्थ दूरगामी नीति बनाने वाले नीतिनिर्धारक, समाजशास्त्री, चिंतक और ऐसे ही अनेक लोग, जो अपने क्षेत्र में महारत रखते हो, इन सबकी आवश्यकता है। इन सभी के महत्व को समझते हुए हमें संयुक्त प्रयास करने होंगे, जिससे इन विषयों को पढऩे-पढ़ाने वालों को रोज़गार के अवसर मिल सकें। इस प्रयास में सरकार के अलावा ‘पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप' को शामिल किया जा सकता है। आज के शिक्षक वर्ग को भी यह सोचना होगा कि बंधी-बंधाई लीक पर चलने वाली नौकरियों के अतिरिक्त रोज़गार के और क्या अवसर उपलब्ध करवाए जा सकते हैं। विद्यार्थी भी अपनी योग्यताओं को इस तरह से तराशें कि बाजार को उनकी योग्यताओं की आवश्यकता महसूस हो। एक से अधिक विषयों में निपुणता हासिल कर अपने लिये काम खोजना अधिक आसान हो सकता है। मसलन साहित्य के साथ-साथ पत्रकारिता के क्षेत्र में काम की संभावना। ऐसे ही साहित्य के साथ-साथ मनोविज्ञान की दुनिया में अथवा विधि के क्षेत्र में डिग्री या डिप्लोमा। इस प्रकार अंतर्विषयक शिक्षा डिग्री छात्रों के लिये रोज़गार के नये द्वार खोल सकती है।

देखने में आ रहा है कि जैसे-जैसे किसी भी क्षेत्र में विशेषज्ञों की संख्या बढ़ रही है, इन विशेषज्ञों का अध्ययन, लेखन व दृष्टिï सिकुड़कर अपने ही विषय पर, बल्कि एक ही बिन्दु पर केंद्रित होती जा रही है। इस संकुचन को रोकने के लिये, क्या ही अच्छा हो, यदि रोज़गारपकर विषयों के साथ-साथ अंतर्विषयक शिक्षा को भी समाहित किया जा सके उदाहरणतया इलैक्ट्रोनिक्स के छात्र को गीत-संगीत अथवा राजनीतिशास्त्र के मुख्य बिन्दुओं के बारे में जानकारी दी जाये। इसी प्रकार वाणिज्य संकाय के विद्यार्थी को समाजशास्त्र, संगीत अथवा चित्रकारी के कुछ गिने चुने अध्याय पढ़ाने से न केवल उनके ज्ञान में विस्तार होगा अपितु अपने पाठ्यक्रम में नवीनता का बोध भी होगा।

इस विशाल सृष्टि में, विराट आकाश के तले, सभी के लिये स्थान है। इस सदी में हम सबका यह कर्तव्य बनता है कि हमें अपने पूर्वजों से जो ज्ञान मिला है, उसमें अपनी-अपनी रुचि और रुझान अनुसार, यथाशक्ति संवर्धन कर, उसे सहेजकर, आने वाली पीढ़ी को थमाएं। इतना तो हम सब मानवता के लिये कर ही सकते हैं(गीता डावर,दैनिक ट्रिब्यून,3.11.2010)।

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