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27 नवंबर 2010

मम्मी, हमें अच्छे स्कूल में भेजना

प्यारी मम्मी,
हम पांच साल के हो गए हैं, वक्त आ गया है कि हम स्कूल जाएं। लेकिन कौन-सा स्कूल? कैसा स्कूल? पिछले कुछ सालों में हमने तुम से, पापा से और पड़ोस के संगी-साथियों से बहुत कुछ सीखा है। हमने 'ए' फॉर ऐपल और 'बी' फॉर बैट वाला लेसन नहीं पढ़ा, न ही 'उ' से उल्लू और 'ग' से गधा वाला पाठ। लेकिन हमें 'ए' से लेकर 'जैड' और 'अ' से लेकर 'ह' तक सभी अक्षरों की पहचान है। जब हम ढाई साल के थे, पापा ने सुबह का अखबार पढ़ते वक्त हमें अपनी गोद में बिठा कर कहा था- यह गोल-गोल अक्षर 'ओ' है, यह भी 'ओ' है, अब इस पन्ने पर सभी हैडलाइनों में 'ओ' की तलाश करो। उस दिन हमने बीसियों 'ओ' ढूंढे, पापा को दिखाए और तुम्हें भी। बड़ा मजा आया था। अगले दिन हमने 'टी' की पहचान की, फिर 'एल' की और फिर 'एच' की। कुछ ही हफ्ते-महीने में हम छोटे-बड़े सभी अंग्रेजी अक्षरों को पहचान गए। इसी तरह हिंदी की वर्णमाला। हां, अगर हमसे पूछो कि 'ऐच' पहले होता है या 'डी', या पूछो, 'च' पहले होता है या 'ग' तो हम नहीं बता पाएंगे। और जरूरत भी क्या है, हमें आजकल में कौन सी डिक्शनरी या डायरेक्टरी बांचनी है। इसी तरह, मम्मी तुमने अच्छा किया जो हमें गिनती रटने के लिए नहीं कहा। तुमने हमें गिनती सिखाने से पहले हिसाब करना सिखाया था। सिखाया भी नहीं, दिखाया था। लेकिन, अब स्कूल कैसा होगा?


सब से पहले, स्कूल ऐसा हो जहां एजुकेशन फ्री में न मिलती हो। हमें भिक्षा में मिली शिक्षा नहीं चाहिए। भिक्षा में मिली शिक्षा से हमें नहीं, केवल भिक्षा देने वाले को लाभ होता है। भिक्षा देने वाले बात-बात पर अहसान जताते हैं। बिना कसूर के डांटते रहते हैं, मारते-पीटते हैं। स्कूल से निकाल देंगे, यह धमकी देते रहते हैं। और अगर कभी उनको पलट कर जवाब दो, तो सचमुच स्कूल से निकाल देते हैं। हमेशा डर-डर कर रहना पड़ता है। मम्मी, जिस स्कूल में मास्टरों का खौफ रहता हो और जहां हेडमास्टर का हौवा दिखा कर बच्चों को आतंकित किया जाता हो, उस स्कूल में हमें नहीं भेजना। 

या फिर ऐसा स्कूल हो, जहां टीचर को उसकी तनख्वाह और उसकी प्रमोशन तुम्हारी, पापा की और हमारी - यानी हम तीनों की मंजूरी के बगैर न मिले। जहां टीचर हमारा आदर करे। जब-जब हमारे जूतों के फीते खुल जाएं तब-तब वे हमें कुर्सी पर बिठा कर और खुद जमीन पर बैठकर उन्हेंं बांधे। तुम्हारी तरह प्यार न सही, कम-से-कम मदद तो करंे। उस स्कूल में कोई टीचर कभी भी किसी बच्चे पर हाथ नहीं उठाए। देश में आज जो करोड़ों अनपढ़ जवान और बूढ़े लोग हैं, उनमें से बहुत इसलिए अनपढ़ रह गए क्योंकि वे बेचारे जब पांच-छह साल की उम्र में स्कूल पढ़ने के लिए गए थे तब मास्टरों ने उन्हें मार-मार कर गधों से इंसान बनाना चाहा था। पर वे मूर्ख भाग गए। मम्मी तुम से बेहतर कौन जानता है कि बच्चे जिस-जिस विषय पर डांट या मार खाते हैं वे उस-उस विषय से नफरत करने लगते हैं। अगर मार-मार कर संस्कृत या अरबी पढ़ाओगे तो बच्चे इन अबूझ भाषाओं से नफरत करने लगेंगे। वे स्कूल से ही नफरत करने लगेंगे। 

अक्सर स्कूल विशेष रूप से सरकारी स्कूल या सरकार के अनुदान पर चलने वाले स्कूल नियमों का कड़ाई से पालन करते हैं। केवल नियमों को लागू करना ही वे स्कूल का परम उद्देश्य मानते हैं। ये एडमिशन करते वक्त बच्चे की उम्र का प्रमाण मांगते हैंं , योग्यता नहीं पूछते। एक स्कूल से दूसरे स्कूल में माइग्रेशन के लिए पिछले स्कूल के दस्तावेजों पर इतना जोर देते हैं मानो खतरनाक कैदियों का एक जेल से दूसरी जेल में तबादला हो रहा हो। ऐसे स्कूलों को शिक्षा से ज्यादा अपने रूल प्यारे होते हैं। एडमिशन होने के बाद एक क्लास से दूसरी क्लास में प्रमोट करते वक्त केवल पढ़ाई के पूरे किए साल या वार्षिक परीक्षा का परिणाम देखते हैं , बच्चे की प्रतिभा नहीं , उसकी लगन नहीं , उसकी रुचि नहीं। 

मम्मी , हमारा एडमिशन ऐसे स्कूल में कराना जिसमें टीचर हो न हो उसमें लाइब्रेरी होनी चाहिए , उसमें ढेरों किताबें होनी चाहिए , रेडियो , टीवी और पीसी होने चाहिए , अखबार और पत्रिकाएं होनी चाहिए , साइंस के सामान होने चाहिए। मीटर , लीटर के पैमाने , तोलने के बाट - तराजू और थर्मामीटर होने चाहिए , धूप - छांह से वक्त देखने के लिए एक पोल गड़ा हुआ रहना चाहिए , नल होना चाहिए , पेड़ - पौधे होने चाहिए , खेती के लिए थोड़ी - सी जमीन होनी चाहिए। झूले होने चाहिए , कैरम और ताश होने चाहिए , बांसुरी , तानपूरा और ढोलक होना चाहिए। रेत , मिट्टी और पत्थर होने चाहिए। उसमें ऊंची क्लास के बच्चों की यह जिम्मेदारी होनी चाहिए कि वे कुछ वक्त निकाल कर छोटी क्लास के बच्चों को पढ़ाएं। छोटी क्लास के होशियार बच्चों को ऊंची क्लास के बच्चों के साथ बैठकर पाठ पढ़ने के मौके मिलने चाहिए। एक साल में एक से ज्यादा क्लासें जम्प करने की मनाही नहीं होनी चाहिए। जो बच्चे आज सुबह का अखबार पढ़कर स्कूल आए हों उन्हें मौका मिलना चाहिए कि वे अपने वयोवृद्ध अध्यापकों को ताजा समाचारों से और नई रोशनी से परिचित करें। 

मम्मी , हमें स्कूल भेज कर तुम यह मत समझना कि हमारी शिक्षा - दीक्षा अब मास्टरजी के हवाले है। नहीं , मम्मी नहीं। हम अब भी लगभग सारा वक्त घर पर ही होते हैं। हमारी असली शिक्षा अभी भी घर पर ही होती है। घर पर हम किताबें पढ़ा करेंगे। अखबार पढ़ा करेंगे। टीवी पर जो - जो नॉन फिक्शन प्रोग्राम होंगे उन्हें देखा करेंगे। दुनिया भर की खबर रखेंगे। मोबाइल पर अपने दोस्तों से बातें करेंगे। अगर घर पर पीसी है तो उसमें सीडी लगा कर या इंटरनेट पर जाकर ज्ञान - विज्ञान की चीजें देखा करेंगे। पापा ने बताया था कि संविधान में सरकारी खर्चे पर धर्म प्रचार की मनाही है। लेकिन दिल्ली जैसे शहर में भी आलम यह है कि कमेटी के स्कूलों में , खुलेआम , सुबह - सुबह बच्चों को पंक्तियों में खड़ा किया जाता है जहां वे हाथ जोड़कर और आकाश की ओर देखकर गाते हैं - तुम्ही हो माता , पिता तुम्ही हो , तुम्ही हो बंधु , सखा तुम्ही हो ... । मम्मी , हम तो केवल तुम्हें अपनी माता और केवल पापा को ही अपना पिता मानते हैं और मानते रहेंगे। हमें ऐसे स्कूल में नहीं भेजना जहां इस तरह के परिवार विरोधी , समाज विरोधी और संसार विरोधी विचारों को हमारे दिमाग में ठूंस - ठूंस कर भरा जाए। अगर स्कूल से कभी कोई प्रस्ताव आए कि बच्चों की एक टोली को बाहर घुमाने के लिए ले जा रहे हैं और उसमें हमारे शामिल होने की व्यवस्था हो सकती है तो ऐसे मौके को हाथ से न निकलने देना। हमारे लिए वह मौज - मस्ती के साथ - साथ साइंस और प्रकृति को समझने और जानकारी हासिल करने का अवसर होगा(बलदेव राज दावर,नवभारत टाइम्स,27.11.2010)। 

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