ए. राजा के बाद दूरसंचार मंत्रालय की जिम्मेदारी कपिल सिब्बल के पास आ गई, लेकिन उम्मीद है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय का कामकाज इससे प्रभावित नहीं होगा। बेशक दूरसंचार मंत्रालय बहुत महत्वपूर्ण है, खासतौर से तब जब आजकल यह विवादों के घेरे में है, लेकिन मानव संसाधन विकास मंत्रालय का काम उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है, क्योंकि उससे देश की तकदीर तय होती है। शिक्षा एक ऐसी चीज है जो किसी राष्ट्र को बना सकती है, किसी व्यक्ति को ऊपर पहुंचा सकती है। पीढियों तक इसका असर रहता है। आज यदि भारत का नाम पूरे विश्व में हुआ है तो उसका बहुत बड़ा कारण भारतीय इंजीनियर, डॉक्टर, वैज्ञानिक, प्रोफेसर और कंप्यूटर विशेषज्ञ हैं। आज चीन हमसे तमाम क्षेत्रों में आगे है, लेकिन सिर्फ एक जगह मार खाता है और वह है शिक्षा। शिक्षा में भी अंगे्रजी भाषा की शिक्षा में चीनी लोग विश्व में भारत से पिछड़ जाते हैं। इसीलिए दूसरे देश भी चीनियों के मुकाबले अंग्रेजी के कारण भारतीयों को प्राथमिकता देते हैं। यह तब है छात्र को एबीसीडी तब पढ़ाई जाती है जब वह कक्षा 6 में पहुंच जाता है। यह पांच साल का फासला उस छात्र को उसकी पूरी जिंदगी में पीछे धकेल देता है। उत्तर भारत में कॉन्वेंट स्कूलों में तो शुरू से अंग्रेजी पढ़ाई जाती है, लेकिन जितने सरकारी स्कूल हैं सब कक्षा 6 से अंग्रेजी पढ़ाना शुरू करते हैं। दिल्ली समेत उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश और गुजरात ऐसे राज्य हैं जहां के सरकारी प्राइमरी स्कूलों में पांचवीं तक अंग्रेजी की शिक्षा नहीं दी जाती है। कोई कुछ भी कहे, कितना भी विरोध करे, असलियत यह है कि इस देश में क्या दुनिया में कहीं भी यदि तरक्की करनी है तो अंग्रेजी की जरूरत पड़ती ही है, बिना अंग्रेजी काम नहीं चलता है। अंग्रेजी जानने वाले हिंदी भी जानते हैं और उसका फायदा ले जाते हैं, लेकिन यदि हिंदी जानने वाले को अंग्रेजी नहीं आती है तो वे कोई फायदा नहीं उठा पाता है। बॉलीवुड के जितने बड़े स्टार हैं, सब अंग्रेजी में बोलते, सोचते, पढ़ते-लिखते हैं। कहानी भी अंग्रेजी में सुनते हैं और हिंदी का डॉयलाग रट लेते हैं, लेकिन आज वे सब करोड़पति हिंदी फिल्मों की वजह से बने हैं। हमारे कुछ राजनेता अंग्रेजी को आदर्शवाद का मुल्लमा चढ़ाकर पेश करते हैं कि अंग्रेजी अंग्रेजों की भाषा है और हमें इसका विरोध करना है। इस सिलसिले में वे राम मनोहर लोहिया का उदाहरण देते हैं। वे यह नहीं जानते हैं कि डॉ. लोहिया की अंग्रेजी बहुत अच्छी थी और वह विदेश में पढ़े थे। इससे बड़े ताज्जुब की बात क्या हो सकती है कि भारत के जितने बड़े नेता हुए वे ज्यादातर विदेश में पढ़े हुए थे। महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, ज्योति बसु इंदिरा गांधी-सभी ने विदेश में शिक्षा ग्रहण की। सरदार पटेल, चौधरी चरण सिंह आदि की अंग्रेजी बहुत अच्छी थी और उनकी किताबें अंग्रेजी में हैं। चरण सिंह के बेटे चौधरी अजीत सिंह भी अमेरिका के पढे़ हैं। अंग्रेजी भाषा को लेकर एक झूठी सियासत होती है, जिसमें आप अपनी कमजोरी का गुस्सा आगे आने वाली पीढियों के बच्चों पर उतारते हैं। ऐसे मुख्यमंत्री जिन्हें खुद अंग्रेजी नहीं आती है, अंग्रेजी का विरोध करते हैं। यह उनकी कंुठा और हीनभावना है। यदि वे इतने बड़े अंग्रेजी के विरोधी हैं तो यह विरोध अपने घर से क्यों नहीं शुरू करते हैं? ये लोग विरोध का एक तर्क और देते हैं कि अंग्रेजी के शिक्षक उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए प्राइमरी स्कूलों में अंग्रेजी पढ़ाना मुश्किल है। कपिल सिब्बल ने मेरे सवाल के जवाब में संसद में बताया कि 5 लाख से ज्यादा शिक्षकों की जगह खाली है और सबसे ज्यादा रिक्त पद बिहार व उत्तर प्रदेश में हैं। यदि हम इन्हीं पदों पर हर प्राइमरी स्कूल में एक-एक अंग्रेजी का शिक्षक रख लें तो क्या बुरी बात है? यदि अंग्रेजी के शिक्षक कम मिलते हैं तो हम दक्षिण भारत से ले सकते हैं। सोचिए यदि उत्तर भारत में एक गांव में एक घर दक्षिण भारतीय का होगा तो लोग दक्षिण भारत की संस्कृति, खानपान, भाषा सब कुछ समझेंगे और देश को एक करने में मदद मिलेगी। मैंने संसद में एक अभियान छेड़ रखा है कि केंद्र सरकार उत्तर भारत की सभी राज्य सरकारों पर दबाव डाले कि वे प्राइमरी स्कूलों में कक्षा एक से अंग्रेजी को वैकल्पिक विषय के रूप में रखें। जो बच्चा अंग्रेजी पढ़ना चाहता है वह अंग्रेजी पढ़े और जो नहीं पढ़ना चाहता है वह न पढ़े, लेकिन अंग्रेजी पढ़ाने की सुविधा जरूर होनी चाहिए। कपिल सिब्बल इस बात से पूरी तरह सहमत हैं और राज्यों में भी लोगों को आंदोलन चलाकर मुख्यमंत्रियों और शिक्षा मंत्रियों पर यह दबाव बनाना चाहिए कि अंग्रेजी को वैकल्पिक विषय के रूप में प्राइमरी स्कूलों में शुरू किया जाए, खासतौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में। विधायक अपनी-अपनी विधानसभाओं में यह यह मांग उठा सकते हैं। झुग्गी-झोपडि़यों में रहने वाले बच्चे भी पढ़ने के लिए बहुत बेताब हैं। उनके मां-बाप भी उन्हें पढ़ा लिखाकर झुग्गी झोपडि़यों की जिंदगी से बाहर ले जाना चाहते हैं, लेकिन उन्हें न सस्ते स्कूल मिलते हैं और न ही जल्दी प्रवेश मिलता है। यदि हम इनके लिए सुविधाएं तैयार कर सकें तो बहुत बड़ा काम होगा। गांवों में 80 प्रतिशत बच्चे प्राइमरी स्कूलों से ही पढ़ाई छोड़ देते हैं। ऐसे बच्चों के लिए भी हमें विशेष व्यवस्था करनी होगी कि वे अपनी पढ़ाई जारी रखें। दलित परिवारों के बच्चों और लड़कियों को पढ़ाने के लिए हमें विशेष प्रोत्साहन देना होगा। हमें प्रौढ़ शिक्षा जैसी फर्जी योजनाओं पर पैसा बंद करके इन सब बातों पर पैसा खर्च करना होगा(राजीव शुक्ला,दैनिक जागरण,२७.११.२०१०)।
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