महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्र्वविद्यालय में आवासी लेखक के रूप में समय बिताते हुए मेरे मन में एक बात बहुत शिद्दत के साथ उभर रही है। हाल ही में पता चला कि अमेरिकी शिक्षा संस्थानों में सभी छात्रों के लिए यह अनिवार्य है कि वे सप्ताह में कुछ समय सामुदायिक सेवा को दें। वास्तव में यह उनके पाठ्यक्रम का अंग है। इस पर उन्हें अंक भी मिलते हैं। इस तरह विद्यार्थियों को समाज के साथ जोड़ा जाता है। वे समाज की स्थितियों से परिचित होते हैं और समाज भी उनकी सक्रियता से लाभान्वित होता है। शिक्षा व्यवस्था समाज से कट कर नहीं, बल्कि उसके एक उपयोगी अंग के रूप में काम करती है। मुझे लगता है कि हमारे शिक्षा संस्थान भी यह भूमिका बहुत कारगर ढंग से निभा सकते हैं, बल्कि भारतीय समाज को इसकी ज्यादा जरूरत है। भारतीय समाज में स्वैच्छिक श्रम को उसका उचित स्थान नहीं मिल पाया है। जब गांवों में आज के जैसा सौहार्दहीन वातावरण नहीं था, लोग एक-दूसरे के काम आते थे। एक का घर बनता था, तो दूसरे भी उसमें लग जाते थे, लेकिन सार्वजनिक जीवन में सामूहिक सहयोग की यह भावना कम दिखाई देती थी। रईस लोग जरूर कुएं, धर्मशाला आदि बनवा देते थे। अब यह प्रवृत्ति भी नष्ट हो चली है।
बड़ी-बड़ी कंपनियों द्वारा समाज सेवा के लिए जो थोड़ा-बहुत काम किया जाता है, वह महज टैक्स बचाने के लिए, न कि समाज की पीड़ा से द्रवित हो कर। इधर एनजीओ नाम की एक नई चीज आई है, लेकिन इसकी तुलना समाज सेवा से नहीं की जा सकती। यह समाज सेवा नहीं, बल्कि समाज सेवा का उद्योग है। देशी-विदेशी संस्थाओं से जो पैसा आता है, उसके एक बड़े हिस्से का उपयोग अपनी सुख-सुविधाएं बढ़ाने के लिए किया जाता है। कुछ स्वैच्छिक संस्थाएं जरूर गंभीरता से काम कर रही हैं, पर अधिक संख्या उनकी है जिनके वास्तविक लक्ष्य सामाजिक न होकर व्यावसायिक हैं। अत: इनसे कोई बड़ी उम्मीद नहीं की जा सकती।
यह उम्मीद शिक्षा संस्थाओं से भी नहीं की जा सकती, लेकिन चूंकि उन पर सरकार का कुछ या ज्यादा नियंत्रण होता है इसलिए इन संस्थानों को समाज सेवा में लगाया जा सकता है। इसके दो रूप हो सकते हैं। एक रूप तो समाज सेवा को पाठ्यक्रम का अंग बनाना है। इसके लिए 20 या 25 प्रतिशत अंक निश्चित किए जा सकते हैं। इसकी शुरुआत कक्षा एक से ही की जा सकती है। बच्चे पहले स्कूल की साफ-सफाई का काम संभालें, फिर आसपास की समस्याओं पर ध्यान दें। विद्यार्थियों से बहुत तरह के सामाजिक काम कराए जा सकते हैं, जैसे उन बच्चों को पढ़ाना जो स्कूल नहीं जा पाते, अस्पतालों में रोगियों की सेवा करना, गलियों और सड़कों की सफाई, बच्चों की देखभाल, स्ति्रयों की स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं पर ध्यान देना, बचत बैंक चलाना आदि-आदि। इससे बच्चों को न केवल अपने आसपास की सामाजिक समस्याओं का ज्ञान होगा, बल्कि उनके भीतर सामाजिक संवेदनशीलता भी विकसित हो सकेगी।आज शिक्षित वर्ग समाज से कटा हुआ है। वह हमेशा अपने और अपने परिवार के बारे में ही सोचता रहता है। वह समाज की निंदा जरूर करता रहता है, पर समाज की स्थिति बेहतर बनाने के लिए आगे आना नहीं चाहता। इसका एक बड़ा कारण जाति प्रथा है।
भारत का समाज इतनी ऊंची-नीची जातियों में बंटा हुआ है कि पूरे समाज के साथ किसी का तादात्म्य नहीं बन पाता। इसलिए समाज सेवा की कोई अवधारणा विकसित नहीं हो पाती। यह छोटी जातियों का काम है कि वे बड़ी जातियों की सेवा करें। ऊंची जाति का बच्चा नीची जातियों की सेवा कैसे कर सकता है? उसकी इज्जत नहीं चली जाएगी? अमेरिका में यह समस्या नहीं है। गरीब-अमीर वाली विषमता जरूर है और अच्छी-खासी है, पर पूरा समाज एक इकाई भी है। रंगभेद है पर छात्रों की भावनाओं को रंगभेद के विरुद्ध प्रशिक्षित भी किया जाता है। सबसे बड़ी बात यह है कि सामाजिक स्तर पर समानता का वातावरण है। यदि हम सामुदायिक सेवा को शिक्षा व्यवस्था में प्राइमरी से लेकर विश्र्वविद्यालय तक अनिवार्य अंग बना दें तो भारतीय समाज में भी ये गुण पैदा हो सकते हैं। दूसरा रूप यह है कि स्कूलों, कॉलेजों और विश्र्वविद्यालयों के लिए यह अनिवार्य कर दिया जाए कि वे अपने आसपास के किसी मुहल्ले या गांव को गोद लें और उसे एक आदर्श क्षेत्र के रूप में विकसित करने की कोशिश करें। इसके लिए उन्हें अलग से कुछ अनुदान भी दिया जा सकता है। किसी कॉलेज को उसके आसपास की मलिन बस्तियों की हालत सुधारने की जिम्मेदारी दी जा सकती है तो कोई स्वास्थ्य केंद्रों के संचालन में सहयोग कर सकता है। इस तरह के काम शिक्षा संस्थान कर सकते हैं।
इसी सिलसिले में मैं सोचता हूं कि अगर महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्र्वविद्यालय वर्धा जिले के एक हिस्से को गोद ले ले, तो कितना अच्छा हो। देश भर के छात्र यहां पढ़ रहे हैं। शिक्षकों की संख्या भी काफी है। क्या इन्हें यह जिम्मेदारी नहीं सौंपी जा सकती कि वे वर्धा के किसी एक इलाके को आदर्श इलाके के रूप में विकसित करने का काम करें? दिन-रात किताबें घोखना ही पढ़ाई नहीं है। पढ़ाई यह भी है कि आप अपने आसपास के समाज को जानें, उसके विकास में सहयोगी बनें, उसके लिए श्रमदान करें। यह मत भूलिए कि समाज के पैसे से ही आपकी पढ़ाई चल रही है। उसे इसके बदले में कुछ मिलना भी चाहिए(दैनिक जागरण,21.11.2010)।
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