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08 नवंबर 2010

रूरल मार्केटिंग में करिअर

कॉर्पोरेट सेक्टर का समूचा ध्यान इस वक्त देश के ग्रामीण क्षेत्रों में बसने वाली अधिसंख्य आबादी के रूप में उपलब्ध बाजार पर कब्जा जमाने में लगा हुआ है। इस स्पर्धा में सरकारी, प्राइवेट और विदेशी कंपनियों की तादाद दिन-प्रतिदिन बढ़ती देखी जा सकती है और देखा जाए तो यह कोई गलत रणनीति भी तो नहीं है क्योंकि शहरी बाजार तो पहले से ही स्पर्धा एवं प्रतियोगिता के चरम स्तर पर पहुंच गया है, मुनाफा सिकुड़ता जा रहा है और ड्रेडिशनल (परंपरागत) उत्पादों के बजाय महज लेटेस्ट उत्पादों के बाजार की वृद्धि दर ही सिर्फ बढ़ती हुई देखी जा सकती है। दूसरी ओर, लगातार आठवें वर्ष बेहतर मानसून, न्यूनतम समर्थन मूल्यों में सरकारी तौर पर साल दर साल वृद्धि आदि से ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति आय में बढ़ोतरी हुई है। इतना ही नहीं, सड़कों, दूरसंचार सेवा तथा बिजली सहित अन्य बुनियादी ढांचे में भी काफी सुधार आया है जिसके कारण तमाम तरह की आर्थिक और व्यावसायिक गतिविधियों में उल्लेखनीय तेजी का माहौल देखा जा सकता है। इन सबका परिणाम, ग्रामीण आबादी की क्रय-शक्ति (पर्चेजिंग पावर) में गत दशकों के मुकाबले कहीं अधिक वृद्धि के तौर पर सामने आ रहा है। इसी कारणवश तमाम उपभोक्ता उत्पादक कंपनियां इस अछूते बाजार का बड़ा से बड़ा हिस्सा हथियाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है। ग्रामीण मार्केटिंग नेटवर्क को मजबूत करना आज इन सबकी मजबूरी सी बन गई है। विश्वास नहीं होगा लेकिन यह सच है कि आज एफएमसीजी (फास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स) उत्पादों का ५४ प्रतिशत बाजार तथा ड्यूरेबल उत्पादों फ्रिज, टीवी आदि का ६० प्रतिशत से अधिक बाजार ग्रामीण भारत में है। देश की कुल जीडीसी (सकल घरेलू उत्पाद) का ५० प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा ग्रामीण आबादी की ही देन है। हिंदुस्तान यूनीलीवर, आईटीसी, कोलगेट, फिलिप्स जैसी कंपनियां ने गत ५० वर्षों से ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी जड़ें मजबूत की हैं।

आजकल एलजी, एशियन पेंट्स, नोकिया, डाबर सरीखी कंपनियों ने भी इस ओर रुख किया है। प्राइवेट बैंकों और अन्य वित्तीय कंपनियों का लक्ष्य भी यही बाजार है। अब ये अपनी मार्केटिंग टीम के साथ ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यरत एनजीओ तथा को-ऑपरेटिव फेडरेशनों के नेटवर्क का भी विस्तार के लिए सहारा ले रही है। देश के ३२ लाख किलोमीटर क्षेत्रफल में फैले ६,३८,३६५ गांवों में ७५ प्रतिशत आबादी का निवास है और मध्यवर्ग का लगभग ४१ प्रतिशत हिस्सा भी यहीं हैं। इस विशाल बाजार में उत्पादों की मांग बनाना, रिपोटिंग श्रृंखला तैयार करना तथा उपभोक्ताओं को रिझाते हुए माल बेचने का काम बड़ी से बड़ी कंपनी के लिए भी आसान नहीं है। विभिन्न प्रदेशों में प्रचलित १६ भाषाओं और ८५० बोलियों में सभी को एक साथ समझाना एवं आकर्षित करना भी कम बड़ी चुनौती नहीं है। इन्हीं सबके कारण स्थानीय एवं प्रादेशिक भाषाओं के जानकार युवाओं को बड़ी संख्या में बतौर मार्केटिंग टीम नामी कंपनियों द्वारा आकर्षक सैलरी+कमीशन आधारित पैकेज पर नियुक्त करने का नया ट्रेंड सामने देखने को मिल रहा है। मार्केटिंग की ट्रेनिंग के साथ कार्यानुभव रखने वाले स्थानीय लोगों को अधिक प्राथमिकता दी जा रही है। हालांकि, १०+२ पास अथवा सिर्फ ग्रेजुएशन की डिग्री वाले युवाओं को भी अपेक्षाकृत कम सैलरी पर रखने का दौर जारी है। इसका सबसे बड़ा फायदा ऐसे बहुसंख्यक युवाओं के लिए है जो अंग्रेजी के जानकर न होने या फर्राटेदार अंग्रेजी न जानने के कारण आमतौर से बड़ी कंपनियों की चयन प्रक्रिया में बाहर कर दिए जाते थे। इसके अलावा मार्केटिंग नेटवर्क से जुड़े अनुभवी लोगों की भी इस क्रय में काफी मांग बढ़ गई है।

कमोबेश यही स्थिति विज्ञापन की दुनिया में भी देखी जा सकती है जहां स्थानीय संस्कृति, भाषा एवं रहन-सहन के जानकार कर्मियों को ऐसे विज्ञापनों के निर्माण कार्यों में संलग्न करने का ट्रेंड देखा जा सकता है(अशोक सिंह,मेट्रो रंग,नई दुनिया,दिल्ली,8.11.2010)।

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