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28 नवंबर 2010

आईआईटी दिल्लीःहीमोफीलिया से जूझ रहे होनहार को मदद की दरकार

आईआईटी दिल्ली का एक होनहार छात्र इन दिनों मौत से जूझ रहा है। हीमोफीलिया से पीडि़त यह छात्र पिछले कई दिनों से अस्पताल में भर्ती है। वैसे तो अभी तक आईआईटी प्रशासन उसके महंगे इलाज का खर्च उठाता आ रहा था, लेकिन तय सीमा से कहीं ज्यादा खर्च होने के बावजूद छात्र की हालत में कोई खास सुधार नहीं हो पा रहा है। अपनी सीमाओं की वजह से आईआईटी प्रशासन भी अब इस छात्र की ज्यादा आर्थिक मदद नहीं कर पा रहा है। गरीब परिवार से ताल्लुक रखने वाला यह छात्र इन दिनों एम्स में भर्ती है और उसके दोस्तों का कहना है कि अगर जल्दी ही उसके इलाज के लिए पैसों की व्यवस्था नहीं हुई, तो उसकी जान बचाना मुश्किल हो जाएगा। यही वजह है कि अब छात्र के दोस्त उसके लिए मददगार तलाश रहे हैं।

मूल रूप से झारखंड के रहने वाले नीरज केसरी (20) को इसी साल आईआईटी दिल्ली में एडमिशन मिला है। वह अभी प्रेप कोर्स कर रहा है। नीरज के दोस्त मनीष चौहान और प्रिया शर्मा ने बताया कि नीरज बचपन से ही हीमोफीलिया से पीडि़त है। इस साल अगस्त से वह आईआईटी कैंपस में रह रहा है। करीब एक महीने पहले उसे अचानक इंटरनल ब्लीडिंग शुरू हो गई और उसकी हालत बिगड़ने लगी, जिसके बाद उसे साकेत स्थित मैक्स हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया। वहां करीब 10-12 दिन उसका इलाज चला लेकिन जब उसकी हालत में कोई खास सुधार नहीं हुआ तो उसे राजेंद्र प्लेस स्थित बी.एल. कपूर हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया। थोड़े सुधार के बाद फिर उसे इंटरनल ब्लीडिंग होने लगी। करीब 10 दिन पहले पता चला कि उसे अल्सर हो गया है और इसी वजह से उसकी हालत और बिगड़ने लगी। यह देखते हुए उसे एम्स में भर्ती कराया गया।मनीष और प्रिया ने बताया कि नीरज के इलाज के लिए काफी सारे पैसों की जरूरत है और उसका परिवार इतना खर्च उठाने की हालत में नहीं है। इसी वजह से हम उसके लिए ऐसा कोई मददगार तलाश रहे हैं, जो उसके इलाज में आर्थिक मदद कर सके। इन दोनों छात्रों के मुताबिक, डॉक्टरों का कहना है कि नीरज की हालत में तभी सुधार होगा, जब उसे आरएच फैक्टर-7 चढ़ाया जाएगा, जिसे इंपोर्ट करना पड़ता है और उसमें काफी खर्च होता है। उसके एक डोज की कीमत करीब सवा लाख रुपये है। डॉक्टरों का कहना है कि अगर जल्दी ही नीरज को आरएच फैक्टर-7 नहीं चढ़ाया गया, तो उसकी जान बचाना मुश्किल हो जाएगा। 



दोस्तों का कहना है कि नीरज एक जीनियस स्टूडेंट और क्लास के टॉपर्स में से एक है। उसे पढ़ने के अलावा और कोई शौक नहीं है। वह चाहते हैं कि कोई स्वयंसेवी संस्था अगर मदद के लिए आगे आती है, तो नीरज की जिंदगी और भविष्य दोनों बचाए जा सकते हैं। दुनियाभर में हर पांच हजार मेल बच्चों पर एक को हीमोफीलिया है। अपने देश में यह संख्या और ज्यादा है, लेकिन यहां 90 पर्सेंट मरीजों को सही इलाज नहीं मिल पाता। हीमोफीलिया एक जेनेटिक बीमारी है। यह एक्स क्रोमोजोम यानी मां की तरफ से बच्चों में आती है। यह बीमारी 99 प्रतिशत लड़कों में होती है। इससे पीडि़त लोगों में ब्लड को जमाने वाला प्रोटीन फैक्टर मिसिंग होता है। किसी व्यक्ति में यह माइल्ड होता है, किसी में मॉडरेट तो किसी में सीवियर भी हो सकता है। ऐसे लोगों को चोट लगने पर खून लगातार बहता रहता है। ऐसे में अगर इलाज न किया जाए तो समस्या गंभीर हो सकती है। सबसे खतरनाक हालत अंदरूनी ब्लीडिंग के मामले में होती है। यदि घाव जोड़ों में हुआ है, तो यह अपंगता की वजह भी बन सकता है। हीमोफीलिया का कोई परमानेंट इलाज नहीं है, इसे सिर्फ दवाओं से मैनेज किया जा सकता है। इसके लिए मरीजों को नियमित रूप से प्रोटीन फैक्टर देना होता है। इससे खून में प्रोटीन की कमी पूरी होती रहती है, इसलिए समस्या नहीं होती। लेकिन यहां यह फैक्टर काफी महंगा मिलता है। ऐसे में ज्यादातर मरीज बदतर हालत में जीने को मजबूर हैं। विकसित देशोंे में ऐसी बीमारियों का पता लगाने के लिए गर्भावस्था में कैरियर डिटेक्शन एंड प्री नेटल टेस्ट किए जाते हैं और बीमारी का पता लगने पर अबॉर्शन कर दिया जाता है, लेकिन जागरूकता की कमी और संसाधनों के अभाव में यहां ऐसा नहीं हो पाता।
(नवभारत टाइम्स,दिल्ली,28.11.2010)।

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