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24 दिसंबर 2010

गुर्जर आरक्षण आंदोलन पर अख़बारों की राय

राजस्थान का गूजर आरक्षण आंदोलन एक बार फिर चिंताजनक रूप ले चुका है। मुंबई और दिल्ली का सीधा ट्रेन यातायात पिछले कई दिनों से ठप है। कुछ गाड़ियों का रास्ता बदलकर उनका आना-जाना सुनिश्चित करने की कोशिश जरूर की गई है, लेकिन इससे यात्रियों को भारी असुविधा का सामना करना पड़ रहा है। देश के लिए यह बात जितनी परेशानी का सबब बनी हुई है, उससे कहीं ज्यादा परेशानी आने वाले समय में ऐसे जोर-जबर्दस्ती वाले हथकंडों को मिसाल मान लिए जाने से पैदा होने वाली है। नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में अपने लिए मौके बनाने की चिंता राजस्थान के गूजर समुदाय के लिए बिल्कुल वाजिब हो सकती है, लेकिन इसके लिए रेल पटरियों पर धरना देकर बैठ जाना बेतुकी बात है। एक सीधा-सादा खेतिहर समुदाय इससे देश की नजरों में खलनायक बन रहा है और फायदा इससे किसी को कुछ भी नहीं होने वाला है।

राजस्थान सरकार अपनी तरफ से एक कानून बनाकर गूजर और राज्य के तीन अन्य अति पिछड़े समुदायों के लिए 5 प्रतिशत के विशेष आरक्षण कोटे की व्यवस्था कर चुकी है। इस कानून के खिलाफ राजस्थान हाई कोर्ट में दाखिल याचिका पर सुनवाई के बाद अदालत ने इसे 50 प्रतिशत की आरक्षण सीमा का अतिक्रमण मानते हुए कहा कि राजस्थान सरकार अगर तमिलनाडु की तरह राज्य की विशेष सामाजिक बनावट के तर्क से संवैधानिक आरक्षण सीमा के पार जाना जरूरी मानती है, तो इसके लिए उसे एक साल के अंदर संबंधित समुदायों की आबादी के आंकड़े पेश करने होंगे। इस फैसले के जवाब में गूजर नेताओं का कहना है कि उनकी लड़ाई अदालत से नहीं, राज्य सरकार से है। सरकार जब एक बार उन्हें 5 प्रतिशत आरक्षण देने का वादा कर चुकी है तो यह उसका सिरदर्द है कि इसकी व्यवस्था वह कैसे करती है। बच्चों की जिद जैसी यह दलील कई मायनों में खतरनाक है और गूजर नेताओं को इसके औचित्य पर ठंडे दिमाग से विचार करना चाहिए।


हाल तक गूजरों की गिनती राज्य के पिछड़े समुदायों में की जाती थी और वे इससे पूरी तरह संतुष्ट थे। उनकी समस्या तब शुरू हुई जब बीजेपी की वसुंधरा राजे सरकार ने शुद्ध चुनावी गणित के तहत पिछड़ा कोटा का विस्तार राज्य की जाट बिरादरी तक कर दिया और सरकारी नौकरियों में गूजरों का जाना अचानक बंद हो गया। कितना अजीब है कि गूजर हितों के सबसे बड़े प्रवक्ता किरोड़ी सिंह बैंसला को उसी बीजेपी के चुनाव चिह्न पर पिछले साल लोकसभा चुनाव लड़ने में कोई हिचक नहीं हुई। इस पूरे खेल में गूजरों के साथ हुए अन्याय का अंदाजा देश को है, लिहाजा बेहतर यही होगा कि वे देश की न्यायप्रियता पर भरोसा रखें और रेल रोकने जैसे हथकंडों में शामिल हुए बगैर शांतिपूर्वक अपनी बात कहते रहें(नवभारत टाइम्स,दिल्ली,24.12.2010)।
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राजस्थान हाई कोर्ट ने गुर्जर समुदाय के लोगों को एक अलग श्रेणी में दिए गए ५ प्रतिशत आरक्षण को अमान्य करार कर दिया है। वैसे भी इस आरक्षण पर हाई कोर्ट ने रोक लगा रखी थी। गुर्जरों के हिंसक आंदोलन के बाद राज्य सरकार ने २००८ में अलग श्रेणी में आरक्षण देने का अधिनियम पारित कराया था, लेकिन इस व्यवस्था से चूँकि कुल आरक्षण ५० फीसद से ज्यादा हो जाता था, इसलिए कोर्ट ने इस पर रोक लगा रखी थी। अब हाई कोर्ट ने यह कहा है कि सरकार के पास ऐसे विश्वसनीय आँकड़े नहीं हैं जो इस आरक्षण का औचित्य सिद्ध कर सकें। कोर्ट ने राज्य सरकार को एक साल के अंदर-अंदर गुर्जर, रायका, रायबारी और गाड़िया लुहार जैसे समुदायों के शिक्षा और सरकारी नौकरियों में पिछड़ेपन का पता लगाने के लिए निर्देश दिया है। अतः गुर्जर समुदाय को तत्काल अपना आंदोलन वापस ले लेना चाहिए था, मगर ऐसी कोई सूरत नजर नहीं आ रही है और गुर्जर नेता सरकार पर आरोप लगा रहे हैं कि उसने उनका पक्ष ठीक तरह से नहीं रखा। उनके आंदोलन के कारण कई ट्रेनें रद्द करनी पड़ी हैं और लोग जगह-जगह फँसे हुए हैं। कई जगह पटरियाँ उखाड़ दी गई हैं और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुँचाया जा रहा है। अब तो कई जगह राजमार्ग भी रोकने शुरू कर दिए गए हैं। लेकिन इस तरह की हिंसा और ब्लैकमेलिंग को आखिर कब तक बर्दाश्त किया जाता रहेगा? इसमें कोई शक नहीं है कि आरक्षण से देश में कई जातियों की हालत सुधरी है, लेकिन इसने कई जातियों में नई महत्वाकांक्षाएँ और वैमनस्य भी पैदा किए हैं। राजस्थान में गुर्जरों को "अन्य पिछड़ा वर्ग" में पहले से आरक्षण प्राप्त था। वसुंधरा राजे की सरकार ने भाजपा का वोट बैंक बढ़ाने के लिए "जाटों" को भी "अन्य पिछड़ा वर्ग" में शामिल कर लिया। जाट दबंग जाति के लोग हैं और समाज में उनकी हैसियत भी गुर्जरों से बेहतर मानी जाती है। गुर्जरों को लगा कि जाट उन्हें आरक्षण का पूरा लाभ उठाने नहीं देंगे। उन्होंने यह भी देखा कि "मीणा" समुदाय को अनुसूचित जनजाति (एस.टी) की श्रेणी में शामिल किए जाने से इस जाति के लोगों को बहुत फायदा पहुँचा है और जम्मू और कश्मीर तथा हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों में गुर्जर समुदाय को एस.टी. का दर्जा प्राप्त है। इसलिए वे राजस्थान में भी यह माँग करने लगे। लेकिन मीणा समुदाय एस.टी. का अपना कोटा गुर्जरों के साथ बाँटने के लिए तैयार नहीं है। उधर जाट और अन्य पिछड़ी जातियाँ २७ प्रतिशत के अपने कोटे के अंतर्गत गुर्जरों का कोई निश्चित कोटा देने को तैयार नहीं हैं। इससे गुर्जरों की हालत विषम हो गई है। सभी पार्टियों के नेताओं को मिल बैठकर इसका कोई हल तो निकालना ही पड़ेगा, मगर गुर्जरों को भी बंदूक की नोक पर फैसला कराने की अपनी मौजूदा रणनीति को छोड़ना पड़ेगा और जब तक फैसला नहीं हो जाता, सरकारी भर्तियों को रुकवाने की अपनी मुहिम को छोड़ना होगा। उन्हें यह समझना होगा कि जातियों और समुदायों के बीच तनाव और वैमनस्य पैदा होना न देश के हित में है, न राज्य के और न खुद उनके(नई दुनिया,23.12.2010)।
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दैनिक ट्रिब्यून(23.12.2010) का संपादकीयः
गुर्जरों को दिये गये पांच प्रतिशत विशेष आरक्षण को राजस्थान हाईकोर्ट द्वारा रद्द कर दिये जाने पर शायद ही किसी को आश्चर्य हुआ होगा। भारत के संविधान के मुताबिक 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण नहीं दिया जा सकता। इसलिए यह मानना गलत नहीं कहा जा सकता कि राजस्थान की पूर्ववर्ती वसुंधरा राजे सरकार को भी गुर्जरों से यह वादा करते समय यह अहसास रहा होगा कि केंद्र सरकार संविधान संशोधन नहीं करती तो यह वादा वफा होने वाला नहीं है। आंदोलनकारी गुर्जरों में भी कई पढ़े-लिखे हैं। इसलिए यह मान लेना भी उचित नहीं होगा कि उन्हें अपने साथ हो रहे धोखे का अहसास नहीं था। दरअसल पिछली बार अपने हिंसक आंदोलन से राजस्थान के साथ-साथ निकटवर्ती राज्यों में भी व्यापक धन-जन हानि के चलते देश भर में आलोचना का पात्र बने गुर्जरों को शांत कर समस्या को केंद्र सरकार के गले में डालने का वसुंधरा राजे को यही सबसे आसान उपाय लगा होगा कि पांच प्रतिशत विशेष आरक्षण का वादा कर दे। हमारी सरकारें जिस अल्पकालीन और क्षुद्र राजनीतिक सोच से संचालित होती हैं, उसके मद्देन•ार वसुंधरा राजे सरकार की उस सोच पर •यादा हैरानी नहीं होती, पर सवाल यह है कि गुर्जर आंदोलन का नेतृत्व कर रहे नेता कैसे मान गये? क्या उनके भी अपने कोई अल्पकालीन राजनीतिक स्वार्थ और उद्देश्य थे? ये सवाल तब भी उठे थे, लेकिन अब जबकि इस बार भी गुर्जर आरक्षण आंदोलन की कमान उन्हीं कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला के हाथों में है, इस सवाल का जवाब बहुत आसान भी नहीं है।
ऐसा नहीं है कि गुर्जरों को आरक्षण का लाभ हासिल नहीं है। उन्हें अभी भी अन्य पिछड़ा वर्ग यानी कि ओबीसी में आरक्षण मिला हुआ है, लेकिन वे अब अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में आरक्षण चाहते हैं। उनका तर्क है कि वे सर्वाधिक पिछड़े हुए आदिवासियों जैसे हैं, इसलिए उन्हें इसी श्रेणी में आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए। हालांकि यह स्वाभाविक सवाल अनुत्तरित है कि उन्हें अपने इस पिछड़ेपन का अहसास अचानक कब हुआ, लेकिन राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि गुर्जर समुदाय दरअसल राजस्थान के ही मीणा समुदाय की प्रगति से ईष्र्यावश यह मांग कर रहा है। इसमें दो राय नहीं कि गुर्जर और मीणा, दोनों ही समुदाय शैक्षणिक , सामाजिक व आर्थिक रूप से बेहद पिछड़े हुए हैं। दोनों को ही आरक्षण का लाभ भी हासिल है। फर्क सिर्फ इतना है कि मीणा समुदाय को अनुसचित जनजाति श्रेणी में आरक्षण मिला हुआ है, जबकि गुर्जरों को ओबीसी में। यह भी सच है कि पिछले कुछ दशकों में मीणा समुदाय ने काफी प्रगति की है। अन्य सरकारी नौकरियों के अलावा आईएएस और आईपीएस में भी उनका प्रतिनिधित्व ते•ाी से बढ़ा है। गुर्जरों की प्रगति अपेक्षाकृत धीमी है। ऐसे में गुर्जरों को लगता है कि मीणा समुदाय की प्रगति का मुख्य आधार उन्हें अनुसूचित जनजाति श्रेणी में हासिल आरक्षण ही है। हालांकि यह पूरा सच नहीं है। अगर सिर्फ आरक्षण के सहारे आईएएस-आईपीएस बना जा सकता होता तो इन शानदार नौकरियों में सर्वाधिक प्रतिशत आरक्षित वर्ग का ही होता। जाहिर है, ऐसी प्रतियोगी परीक्षाओं में आरक्षण मददगार जरूर होता है, पर बिना कड़ी मेहनत, प्रतिभा-क्षमता के बात नहीं बनती।
इसके बावजूद गुर्जर नेताओं को लगता है कि हर तरह के पिछड़ेपन का अनुसूचित जनजाति श्रेणी में आरक्षण ही रामबाण इलाज है तो इसलिए कि मेहनत, प्रतिभा-क्षमता की बातों से नेतागिरी नहीं चमकती, जबकि आरक्षण के नारे से राजनीति की दुकान अच्छी चल निकलती है। संभव है, गुर्जरों का अनुसूचित जनजाति श्रेणी में आरक्षण का दावा तर्कसम्मत हो, पर उसकी भी तो एक निर्धारित प्रक्रिया है। गुर्जर आबादी के साथ-साथ उसके शैक्षणिक, सामाजिक, आर्थिक स्तर के आंकड़ों के आधार पर ही सही तस्वीर सामने आ सकती है। इस प्रक्रिया में समय लगेगा, लेकिन राजस्थान उच्च न्यायालय के बुधवार के फैसले पर गुर्जर नेताओं की प्रतिक्रिया और दिल्ली को दूध की आपूर्ति बंद करने की धमकी बताती है कि वे किसी नियम, कानून प्रक्रिया का पालन करने को तैयार नहीं हैं। पिछली बार गुर्जरों द्वारा आरक्षण आंदोलन के नाम पर न सिर्फ सड़क व रेल यातायात रोके जाने, बल्कि सरकारी व सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाये जाने पर अदालतों ने भी कड़ी नाराराज़गी जतायी थी। इसके बावजूद इस बार भी गुर्जर आंदोलन की शुरुआत रेल यातायात ठप्प करने से ही हुई। ओबीसी के तहत केंद्रीय तथा बाकी रह गये राज्यों में आरक्षण मांग रहे जाट समुदाय के नेताओं ने भी गुर्जर आंदोलन का समर्थन करने का ऐलान किया है। यह एक खतरनाक प्रवृत्ति है। हर किसी को अपनी मांग जायज लगती है, पर असल में क्या जायज है और क्या नहीं, इसका फैसला तो संविधान और नियम-कानून के दायरे में ही होगा। इसलिए गुर्जर आंदोलनकारियों तथा राजस्थान की अशोक गहलोत सरकार को चाहिए कि अहम् को त्याग कर वार्ता के ज़रिये इस मामले का समयबद्ध तार्किक समाधान खोजे।
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गूजर समुदाय के आरक्षण के मामले में एक बड़ापेच तब आ गया जब राजस्थान हाईकोर्ट ने गूजरों को विशेष आरक्षण देने की राजस्थान सरकारकी तजवीज ठुकरादी। हाईकोर्ट का कहना है कि जिन समुदायों को विशेष पिछड़े वर्ग के तहत पांच प्रतिशत आरक्षण सरकार देना चाहती है,उनके पिछड़े होने के बारे में पुख्ता प्रमाण नहीं हैं। अदालत ने सरकारसे कहा है कि एक साल में वह सर्वे करके आंकड़े प्रस्तुत करेऔर तब आरक्षण का मामला आगेबढ़ायाजाए। राजस्थान में गूजरों के आरक्षण का मामला यह बताता है कि समाज के वंचित वर्गों को आरक्षणदेने का सिद्धांत कि तना ही अच्छा हो,राजनीति उसे कितना व्यर्थ बनादेती है। मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद राजनैतिक पार्टियों को अचानक आरक्षणमेंवोट की संभावनाएं नए सिरे से दिखीं। ये पार्टियां विभिन्न समूहों को वोट के बदले आरक्षण का आश्वासन देने लगीं। इसराजनैतिक खेल में उनसमूहों का आर्थिक या शैक्षणिक स्तर पर पिछड़ाहोना नहीं, बल्कि राजनैतिक रूपसे फायदेमंद होना महत्वपूर्ण था। गूजरों को अनुसूचित जनजाति के तहत आरक्षण का आश्वासन भी चुनाव के वक्त वसुंधरा राजे सिंधिया ने दिया था। चुनाव के बाद यह मुद्दा भाजपा सरकारकेगले में फं स गया और अब कांग्रेस सरकारने यह उलझन विरासत में पाई है। गूजरों को अनुसूचित जनजाति के कोटे में आरक्षण दिए जाने का विरोध वे ताक तवर समूह,खासकर मीणा कर रहे थे, जो इस कोटे का अधिकतम फायदा उठा रहे थे। ओबीसी में गूजर इसलिए नहीं रहना चाहते क्योंकि उसमें पहले ही जाट जैसे ताकतवर समूह हैं।इसलिए सरकारने अन्य पिछड़ों की एक विशेष श्रेणी बनाई,लेकिन इसमें अदालत ने आपत्ति कर दी। अनुसूचित जाति, जनजाति या पिछड़े वर्ग के होने के या शैक्षणिक और आर्थिक स्तर पर पिछड़ा होने की किन्हीं वस्तुनिष्ठ कसौटियों का यहां कोई मतलब नहीं है। गूजरों को यह लग रहा है कि अगर मीणा अनुसूचित जनजाति में होने का इतना फायदा उठा सकते हैं तो फिर वे क्यों नहीं ऐसा करें। मीणाओं को अनुसूचित जनजाति में आरक्षण कैसे मिला, उसकीएकअलग ही कथा है,लेकिन एक गलती का खामियाजा दूसरीगलती से नहीं हो सकता और वोट की ताकत या बाहुबल आरक्षण का आधार नहीं होना चाहिए। गूजर आंदोलन लगातार हिंसा और रेल, सड़कयातायात रोककर अपनी ताकत दिखाता रहा है,लेकि न मामले को इतना उलझाने का दोष मूलत: राजनेताओं पर जाता है, जिन्होंने आरक्षण को रेवड़ीबांटने का खेल बना दिया। ऐसे में कईऐसी जातियां और समूह आरक्षण का लाभ ले उड़े, जो उसके हक दार नहीं थे। ऐसे कईवंचित और पिछड़े समूह रह गए जो संख्या बल या धन और बाहुबल के स्तर पर इतने कमजोर थे कि उनकीआवाज सुनना राजनैतिक रूपसे खास महत्वपूर्ण नहीं था। गूजर नेताओं पर उग्र और हिंसक आंदोलन चलाने का दोष जरूर लगाया जा सकता है,लेकिन अगर वे सोच रहे हैं कि उनके समुदाय को आगे बढ़ाने का यह एक तरीका है, तो उनका दोष नहीं है। राजनैतिक पार्टियों ने आरक्षण के पक्ष और विपक्ष को ऐसी उग्र और अतार्कि कबहस का रूपदेदिया है कि उसमें समझदारी, विवेक और न्याय की गुंजाइश कमबची है(हिंदुस्तान,दिल्ली,23.12.2010)।

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