छात्रों व शिक्षण संस्थानों की राह में धन की कमी को दूर करने की मानव संसाधन विकास मंत्रालय की कोशिश पर योजना आयोग ने पानी फेर दिया है। आयोग ने राष्ट्रीय शिक्षा वित्त निगम बनाने के औचित्य पर ही सवाल उठा दिया है। आयोग की नजर में पूर्व में भी जब कभी ऐसे प्रयास हुए वे व्यर्थ साबित हुए। लिहाजा ऐसे किसी निगम की जरूरत ही नहीं है। मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल लगभग साल भर से इस निगम को बनाने की पैरवी कर रहे हैं। सूत्रों के मुताबिक योजना आयोग राष्ट्रीय शिक्षा वित्त निगम बनाने की सोच से ही सहमत नहीं है। लिहाजा उसने मंत्रालय को दो टूक जवाब दे दिया है। आयोग का तर्क है कि प्रस्तावित निगम के पास तमाम तरह के बहुत सारे काम होंगे। उस स्थिति में उसका एक वित्तीय संस्थान के रूप में काम कर पाना मुश्किल होगा। ऐसे प्रयोग पूर्व में भी जब कभी हुए, वे सफल नहीं रहे। अतीत का अनुभव भी यही बताता है कि ऐसे संस्थान शुरू में कुछ साल चलते हैं। उसके बाद कुछ वर्षो में उनका धन खत्म होने के साथ ही वे बेमकसद हो जाते हैं। आयोग का यह भी कहना है कि सरकार का मकसद यदि छात्रों के लिए शिक्षा ऋण को और आसान बनाना ही है, तो उसे अभी भी बड़े पैमाने पर उपलब्ध शिक्षा ऋण को प्राथमिकता क्षेत्र के कर्ज के दायरे में लाना चाहिए। एक बार ऐसा तय हो जाए तो रिजर्व बैंक आफ इंडिया और जिले का लीड बैंक खुद ही छात्रों को शिक्षा ऋण का एक निश्चित प्रतिशत सुनिश्चित कर सकता है। जहां तक शिक्षा कर्ज लेने में छात्रों की दिक्कत का सवाल है तो उसके निदान के लिए तंत्र बनाया जा सकता है। निगम को बनाने के पीछे मंत्रालय का एक तर्क यह है कि इससे उच्च शिक्षा की राह आसान करने में मदद मिलेगी। योजना आयोग का कहना है कि यह काम तो शिक्षा ऋण के ब्याज में छूट देकर मंत्रालय किसी भी वित्तीय संस्थान के जरिए करा सकता है। उसके लिए अलग से राष्ट्रीय शिक्षा वित्त निगम जैसी संस्था बनाने की जरूरत ही क्या है? गौरतलब है कि मंत्रालय ने इस निगम के जरिए शिक्षण संस्थानों को भी कर्ज देने की योजना बनाई थी। साथ ही शिक्षा में निवेश के नजरिए को ध्यान में रखते हुए निगम से कर्ज लेने वाले संस्थानों को आयकर से छूट देने का प्रस्ताव किया गया था। योजना आयोग ने इस मामले में यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लिया है कि यह वित्त मंत्रालय का काम है(राजकेश्वर सिंह,दैनिक जागरण,राष्ट्रीय संस्करण,24.12.2010)।
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