हिंदी वैश्विक भाषा का रूप ले चुकी है। केंद्रीय हिंदी संस्थान इसे दुनिया भर में जन-जन से जोड़ने के लिए इनसाइक्लोपीडिया की तर्ज पर लघु विश्व हिंदी कोष बना रहा है। संस्थान के उपाध्यक्ष और देश के ख्यातिलब्ध कवि अशोक चक्रधर ने मंगलवार को नगर प्रवास के दौरान दैनिक जागरण से बातचीत में कहा कि हिंदी की समृद्धि दुनिया भर में साबित हो चुकी है। हिंदी संस्थान ने डॉ. इंद्रनाथ चौधरी के संपादकत्व में लघु विश्व हिंदी कोष बनाने की पहल की है। यह ऑनलाइन भी उपलब्ध होगा। इसके साथ ही हिंदी कॉर्पस का सृजन भी किया जा रहा है, जिसमें भारतीय बोलियों को भी जोड़ा जाएगा। चक्रधर ने कहा कि हिंदी कतई मरती हुई भाषा नहीं है। यह प्रतिदिन फैल रही है। दुनिया भर में हिंदी ने सिक्का जमाया है और इसी का परिणाम है कि ऑक्सफोर्ड ने दस लाखवें शब्द के रूप में जय हो को मान्यता दी है। भारत में भी हमें संकीर्णतावाद से मुक्ति पाकर बदलते हुए समाज के साथ सोच बदलनी होगी। भारतीय युवा सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं, उन्हें हम वह परोसें जो उन्हें हजम हो। इसमें यह भी ध्यान रखना होगा कि अति न हो और अवांछित रूप से अंग्रेजी का प्रयोग न होने लगे। कुल मिलाकर हमें शुद्धतावाद व क्रुद्धतावाद की जगह प्रबुद्धतावाद अपनाकर समझदारी से अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग करना चाहिए। उन्होंने बताया कि अब हर राज्य में संस्थान के केंद्र बनाने की तैयारी है। इनके माध्यम से हम हिंदी को रोजगार की भाषा बनाएंगे और समाज को ज्ञानोत्पादन का साहित्य सुलभ करायेंगे। चक्रधर बोले कि अच्छा साहित्य जीवित रखना चुनौती बन गयाहै। साहित्यिक पत्रिकाएं मर रही हैं। लेखन से आजीविका चलाना अब संभव नहीं है। इस अंधकारपूर्ण माहौल में रोशनी की किरण इंटरनेट से आ रही है, जहां नवलेखन स्थान पा रहा है। लेखन पर बाजार का असर बढ़ा है। पहले मकसद को लेकर लिखा जाता था और लेखक अंदर के आवेग को महसूस करते थे। साहित्य की प्रासंगिकता सरोकारों से न जुड़ने के कारण अब विमर्श अलग हो गये हैं। नए हिंदी अध्यापकों में ज्ञान तो है, पर संवेदना नहीं(संजीव मिश्र,दैनिक जागरण,कानपुर,9.12.2010)।
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