सीआईआई द्वारा छोटे और मझोले उद्योगों के सर्वे में यह बात सामने आई है कि बुनियादी ढांचे का अभाव तथा श्रम कानूनों की पेचीदगी इनके विकास में सबसे बड़ी बाधा है। प्रधानमंत्री ने भी कहा है कि मौजूदा श्रम कानून से श्रम बाजार का लचीलापन समाप्त हो रहा है। खांडसारी या टूरिज्म जैसे कई उद्योग सीजनल होते हैं। श्रमिकों की जरूरत साल में कुछ माह की होती है परंतु श्रम कानूनों के कारण उद्यमी को पूरे साल उन्हें रखना पड़ता है।
इससे उद्यमी का खर्च बढ़ता है और वह प्रयास करता है कि अधिकाधिक कार्य मशीन से करा लिया जाए। सत्तर के दशक में सामान्य चीनी मिल में 2000 श्रमिक काम करते थे। आज प्लांट की क्षमता दोगुनी हो जाने के बावजूद केवल 500 श्रमिक कार्य करते हैं। ट्रक से गन्ने को अनलोड करना, खोई को बॉयलर में डालना या चीनी के बोरे सिलना अब आटोमेटिक मशीनों से होने लगा है।
क्यों घटे रोजगार
यही कारण है कि संगठित क्षेत्र में कार्यरत श्रमिकों की संख्या 1997 में 2 करोड़ 82 लाख से घटकर 2005 में 2 करोड़ 64 लाख रह गई है। इस अवधि में आर्थिक विकास की दर बढ़ी है, लेकिन संगठित रोजगार घटे हैं। आर्थिक प्रगति और रोजगार का यह अंतर्विरोध विकास की प्रक्त्रिया में निहित है। अर्थिक प्रगति का अर्थ है पूंजी की वृद्धि। अधिक मात्रा में उपलब्ध होने से पूंजी सस्ती हो जाती है। बिल्कुल उसी तरह जैसे मंडी में आलू ज्यादा आने से सस्ता हो जाता है।
विकसित देशों में ब्याज दर 3-4 प्रतिशत है जबकि विकासशील देशों में 10-12 प्रतिशत। आर्थिक प्रगति के साथ-साथ श्रम का मूल्य भी बढ़ता है। अमेरिका में श्रमिक कार से फैक्ट्री आते हैं। उनके घर में सेन्ट्रलाइज्ड एसी लगा होता है। वे ऊंचे वेतन की अपेक्षा करते हैं। वहां अकुशल श्रमिक की दिहाड़ी 80 डॉलर या 3500 रु. है, जबकि भारत में 200 रु.। पूंजी सस्ती और श्रम महंगा होने के कारण उद्यमी मशीनों का उपयोग अधिक और श्रमिकों का कम करते हैं।
मजदूर की बेबसी
ऐसे में रोजगार घटना स्वाभाविक है। छंटनी आम तौर पर अकुशल श्रमिकों की होती है, जबकि हाई टेक श्रमिकों की मांग बढ़ती है। जैसे मेट्रो आने से आटो रिक्शा की मांग घटती है जबकि इंजीनियरों की मांग बढ़ती है। इसीलिए अभी अपने यहां आईआईटी ग्रैजुएटों के वेतन आसमान छू रहे हैं जबकि आम श्रमिक बेहाल है। इसका असर बढ़ते हुए नक्सलवादी, भूमिपुत्र और जातिवादी आंदोलनों में दिखता है। रोजगार क्षरण से श्रमिक बेबस हो जाता है।
बड़ी फैक्ट्रियों में उत्पादन होने से वह पुन: कमजोर पड़ता है। पहले गांवों में गुड़ बनाने के छोटे-छोटे कारखाने लगते थे। श्रमिक के लिये संभव होता था कि कठोर उद्यमी को छोड़कर वह नरम उद्यमी की नौकरी कर ले। परंतु वर्तमान में एक ही चीनी मिल 40-50 किलोमीटर के क्षेत्र का सारा गन्ना पेरती है और सिर्फ 500 श्रमिकों को रोजगार देती है। हालत बुरी होने के बावजूद श्रमिकों के लिए नौकरी बदलना भी संभव नहीं होता।
उद्यमी द्वारा निरीह श्रमिक का शोषण - उत्पीड़न न हो , इसलिए सरकार ने ट्रेड यूनियन कानून बनाया है। संगठन के माध्यम से श्रमिक अपने हितों की रक्षा कर पाते हैं , वेतन वृद्धि और कैंटीन जैसी सुविधा मांग पाते हैं। श्रम कानून के कारण उद्यमी के लिये श्रमिक को मुअत्तल करना कठिन हो गया है। श्रमिक द्वारा विवाद को श्रम न्यायालय ले जाना संभव हो पाया है। उचित वेतन के लिए न्यूनतम वेतन कानून बनाया गया है। सरकार द्वारा विशेष उद्योगों के लिये अलग - अलग वेतनमान निर्धारित किए जाते हैं।
ऐसे अन्य कानूनों के माध्यम से छुट्टियों की संख्या , यूनिफार्म , प्रॉविडेंट फंड आदि की व्यवस्था की जाती है। परंतु इन कानूनों के कारण श्रम का मूल्य बढ़ जाने के कारण उद्यमी हमेशा रोजगार घटाने की कोशिश में जुटा रहता है।
श्रम कानूनों के दो परस्पर विरोधी प्रभाव दिखते हैं। संगठित क्षेत्र के 3 करोड़ श्रमिकों के लिये ये वरदान हैं। उन्हें वेतन , जॉब सिक्युरिटी और पीएफ जैसी सुविधाएं मिल जाती हैं। परंतु देश के साठ करोड़ असंगठित श्रमिकों के लिये ये हानिप्रद हैं। इनकी अनुपस्थिति में जो रोजगार उत्पन्न हो सकते थे , उनसे ये वंचित हो जाते हैं।
इस परिस्थिति में यदि श्रम कानूनों को नरम बनाया जाता है तो संगठित क्षेत्र के श्रमिकों का नुकसान होगा , लेकिन इन्हें यथावत रखा जाता है तो रोजगार सृजन धीमा पड़ेगा और बेरोजगारी की समस्या विकट होती जाएगी। हमारे एक तरफ कुआं है तो दूसरी तरफ खाई। इनके बीच रास्ता निकालना है।
इस विषय पर कोलंबिया युनिवर्सिटी के नोबेल पुरस्कार प्राप्त प्रोफेसर एडमंड फेल्प्स कहते हैं कि श्रम सुधार में ' समस्या यह है कि इससे बेरोजगारी दूर नहीं हो सकती। इससे न्यून वेतन प्राप्त करने वाले अकुशल श्रमिकों को ऊंचे वेतन प्राप्त करने वाले कुशल श्रमिकों में परिणित नहीं किया जा सकता है। ' श्री फेल्प्स के अनुसार श्रम बाजार में वेतन पहले ही इतने न्यून हैं कि श्रमिकों के लिये जीवनयापन कठिन हो रहा है और उनका मनोबल टूट रहा है।
ऐसे में उद्यमियों को श्रमिकों को बर्खास्त करने का अधिकार देने अथवा न्यूनतम कानून समाप्त करने से श्रमिकों की स्थिति और बिगड़ेगी। डॉ . मनमोहन सिंह श्रमिकों के हितैषी हैं। उन्हें श्री फेल्प्स के विचारों पर ध्यान देना चाहिए। श्रम सुधारों की उपयोगिता है , किंतु यह बेरोजगारी दूर करने वाला अस्त्र नहीं है। इसके साथ - साथ ऐसी नीतियां लागू करनी होंगी , जिनसे उद्यमी के लिये बड़ी संख्या में रोजगार बनाना लाभप्रद हो जाए।
रोजगार और सब्सिडी
प्रोफेसर फेल्प्स का मूल सुझाव यह है कि अकुशल श्रमिकों को रोजगार देने के लिये उद्योगों को सब्सिडी दी जाए। कम वेतन वाले रोजगार पर सब्सिडी अधिक और ऊंचे वेतन वाले रोजगार पर सब्सिडी शून्य होनी चाहिए। ऐसा करने से उद्यमों के लिये कम क्षमता वाले गरीब श्रमिकों को रोजगार देना लाभप्रद हो जाएगा। इससे ज्यादा संख्या में रोजगार बनेंगे। लगभग यही बात गांधीजी ने 1921 के यंग इंडिया में कही थी कि वे नंगे गरीब को कपड़े के स्थान पर रोजगार देना चाहते हैं।
अत : सरकार को श्रम कानूनों का सरलीकरण करने के पहले रोजगार सब्सिडी योजना बनानी चाहिए। मसलन, उद्योगों द्वारा दिए गए वेतन पर 500 रु . प्रति माह सरकार द्वारा दिया जा सकता है। इससे उद्योगों के लिये मशीन के स्थान पर श्रमिकों से काम लेना लाभप्रद हो जाएगा। इस सब्सिडी को लागू करने के बाद ही श्रम कानून में सुधार करना चाहिए , ताकि संगठित श्रमिकों को होने वाले नुकसान की भरपाई असंगठित श्रमिकों को होने वाले लाभ से हो जाए।
(भरत झुनझुनवाला,नवभारत टाइम्स,दिल्ली,27.1.11)
इस विषय पर कोलंबिया युनिवर्सिटी के नोबेल पुरस्कार प्राप्त प्रोफेसर एडमंड फेल्प्स कहते हैं कि श्रम सुधार में ' समस्या यह है कि इससे बेरोजगारी दूर नहीं हो सकती। इससे न्यून वेतन प्राप्त करने वाले अकुशल श्रमिकों को ऊंचे वेतन प्राप्त करने वाले कुशल श्रमिकों में परिणित नहीं किया जा सकता है। ' श्री फेल्प्स के अनुसार श्रम बाजार में वेतन पहले ही इतने न्यून हैं कि श्रमिकों के लिये जीवनयापन कठिन हो रहा है और उनका मनोबल टूट रहा है।
ऐसे में उद्यमियों को श्रमिकों को बर्खास्त करने का अधिकार देने अथवा न्यूनतम कानून समाप्त करने से श्रमिकों की स्थिति और बिगड़ेगी। डॉ . मनमोहन सिंह श्रमिकों के हितैषी हैं। उन्हें श्री फेल्प्स के विचारों पर ध्यान देना चाहिए। श्रम सुधारों की उपयोगिता है , किंतु यह बेरोजगारी दूर करने वाला अस्त्र नहीं है। इसके साथ - साथ ऐसी नीतियां लागू करनी होंगी , जिनसे उद्यमी के लिये बड़ी संख्या में रोजगार बनाना लाभप्रद हो जाए।
रोजगार और सब्सिडी
प्रोफेसर फेल्प्स का मूल सुझाव यह है कि अकुशल श्रमिकों को रोजगार देने के लिये उद्योगों को सब्सिडी दी जाए। कम वेतन वाले रोजगार पर सब्सिडी अधिक और ऊंचे वेतन वाले रोजगार पर सब्सिडी शून्य होनी चाहिए। ऐसा करने से उद्यमों के लिये कम क्षमता वाले गरीब श्रमिकों को रोजगार देना लाभप्रद हो जाएगा। इससे ज्यादा संख्या में रोजगार बनेंगे। लगभग यही बात गांधीजी ने 1921 के यंग इंडिया में कही थी कि वे नंगे गरीब को कपड़े के स्थान पर रोजगार देना चाहते हैं।
अत : सरकार को श्रम कानूनों का सरलीकरण करने के पहले रोजगार सब्सिडी योजना बनानी चाहिए। मसलन, उद्योगों द्वारा दिए गए वेतन पर 500 रु . प्रति माह सरकार द्वारा दिया जा सकता है। इससे उद्योगों के लिये मशीन के स्थान पर श्रमिकों से काम लेना लाभप्रद हो जाएगा। इस सब्सिडी को लागू करने के बाद ही श्रम कानून में सुधार करना चाहिए , ताकि संगठित श्रमिकों को होने वाले नुकसान की भरपाई असंगठित श्रमिकों को होने वाले लाभ से हो जाए।
(भरत झुनझुनवाला,नवभारत टाइम्स,दिल्ली,27.1.11)
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