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21 जनवरी 2011

क्या पटना हाईकोर्ट के फैसले से बदलेगी स्कूलों की तकदीर?

बीसवीं सदी के आखिरी दशक की शुरुआत थी। बिहार के सरकारी स्कूलों में बच्चे नहीं दिखाई देते थे। तब लालू प्रसाद यादव ने चरवाहा विद्यालय जैसी शुरुआत की थी। असर भी हुआ। बच्चों को खाने के साथ-साथ रुपए भी मिलते थे। बच्चों की संख्या बढ़ने लगी थी। समय तेजी से बदला। शहरवासियों के साथ-साथ ग्रामीणों की सोच में भी बदलाव आया। बच्चों को पढ़ाने को प्राथमिकता दी जाने लगी। चाहे पेट काटकर ही सही, गरीब से गरीब किसान भी बच्चों को पढ़ाने के बारे में सोचने लगा। बच्चे स्कूल जाने लगे। जो प्राइवेट स्कूलों में नहीं भेज सकते थे उन्होंने सरकारी स्कूलों की ही शरण ली लेकिन सरकारी तंत्र और इसकी कार्यप्रणाली अपनी ही बनाई लीक पर चलती है। पहले स्कूलों में बच्चे नहीं थे तो कोई बात नहीं थी लेकिन जब बच्चे आए तो पढ़ाने के लिए शिक्षक नहीं मिले। उनके पास दूसरे भी काम थे। ट्यूशन लेना, खेती-बाड़ी करना और साथ-साथ राशन की दुकान भी चलाना। यानी नौकरी के अलावा दूसरे पार्ट टाइम जॉब थे जिसमें वे व्यस्त रहते। स्कूल जाकर हाजिरी लगाने के बाद स्कूल और देश के भविष्य के प्रति उनकी जिम्मेदारी खत्म हो जाती थी लेकिन थे तो वे सरकारी नौकर ही। इसलिए सरकारी काम भी करने होते थे। चुनाव कार्य, जनगणना, पल्स पोलियो जैसे कितने ही अभियान इन स्कूलों के शिक्षकों के भरोसे ही चलते हैं लेकिन पिछले दिनों पटना हाईकोर्ट के फैसले से उम्मीद है कि एक बार फिर देश का भविष्य उन्हीं प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च विद्यालयों में निखरेगा जहां पढ़ाई को दोयम दर्जे का काम समझा जाता था। कोर्ट ने एक याचिका पर सुनवाई के दौरान फैसला दिया है कि अब प्राथमिक विद्यालयों के शिक्षकों को अध्ययन-अध्यापन के समय में गैर शैक्षणिक कार्यों में नहीं लगाया जाएगा। यानी जब स्कूल खुले हों तो पढ़ाई को बाधित कर शिक्षकों को चुनाव कार्य, जनगणना, पल्स पोलियो या ऐसी अन्य जिम्मेदारियां नहीं दी जाएंगी। २००८ में सुप्रीम कोर्ट ने भी सेंट मेरी बनाम एमसीडी मामले का हवाला देते हुए प्राथमिक स्कूलों के शिक्षकों की गैर शैक्षणिक कार्यों में प्रतिनियुक्ति करने पर रोक लगाई थी। स्कूल खुला रहने पर शिक्षक गैर शैक्षणिक कार्यों में नहीं लगाए जाएंगे। बिहार में तो वैसे भी शिक्षकों की कमी का रोना हमेशा रोया जाता है लेकिन नीतीश कुमार ने पहली बार बड़ी संख्या में शिक्षकों की बहाली करके एक बड़ा काम किया। यह अलग बात है कि उनके इस "बड़े काम" की बड़ी आलोचना भी हुई। लेकिन सच है कि शिक्षक "सरकारी कार्यों" के अलावा शिक्षण का काम कम ही करते हैं। ऐसे में हाईकोर्ट का यह फैसला निश्चित रूप से सराहनीय है(राजन कुमार अग्रवाल,नई दुनिया,21.1.11)।

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