मराठी वर्चस्व से जूझ रही मुंबई यूनिवर्सिटी में राजभाषा हिंदी में पीएचडी करने की इच्छा 17 छात्रों को बहुत भारी पड़ी है। आवेदन किए डेढ़ साल बीत जाने के बावजूद यूनिवर्सिटी ने हरी झंडी नहीं दिखाई है। रिचर्स रिकग्नाइजेशन कमिटी ( आरआरसी ) ने , जो पीएचडी रजिस्ट्रेशन और अवार्ड करती है , चार महीने पहले अपनी मीटिंग में इन आवेदनों को अप्रूव या रिजेक्ट करने की जगह हिंदी के छात्रों के लिए नेट या एमफिल क्लियर करने का अड़ंगा डाल दिया है। इससे हिंदी विभाग सकते में है क्योंकि इसी कमिटी ने दूसरे विषयों के छात्रों को अप्रूवल दिया।
हिंदी विभाग के एक प्रफेसर के मुताबिक , 25 अगस्त 2010 की मीटिंग में आरआरसी के सामने हिंदी में शोध के 17 आवेदन थे। इसमें सुनीता शर्मा , हेतल डागा , उषा तिवारी , योगेंद्र कटारिया जैसे छात्रों के अलावा संतोष गायकवाड़ और सुशील गोरे जैसे कई मराठीभाषी छात्र भी थे जिन्होंने हिंदी प्रेम के चलते शोध का निर्णय लिया था। लेकिन किसी को अप्रूवल नहीं मिला।
इनमें अपराजिता वर्मा , संतोष सिंह , आशा दुबे , पवन पटेल और मनोहर मिश्रा जैसे पांच छात्र भी शामिल हैं जिनकी एमफिल थीसिस जमा हुए डेढ़ साल बीत चुका था , लेकिन आरआरसी की मीटिंग तक यूनिवर्सिटी इनके लिए एक्सटर्नल एग्जामिनर तय नहीं कर पाई थी। यूनिवर्सिटी की लापरवाही का खामियाजा इनको भुगतना पड़ा और वे पीएचडी के लिए एनरोल नहीं हो पाए।
अपने निर्णय में कमिटी ने इन नामों के आगे ' डिफर्ड फॉर नेक्स्ट मीटिंग ' लिखा है , इस पर हिंदी के शिक्षक आश्चर्य जता रहे हैं। मीटिंग में मौजूद एक प्रफेसर के मुताबिक , ' कमिटी या तो अप्रूव करती है या रिजेक्ट। इस दौरान साफ कहा गया कि इन छात्रों ने न ' नेट ' पास किया और न एमफिल किया है। हालांकि हमने कमिटी से कहा कि जिस वक्त ये आवेदन आए , यूजीसी का नेट या एमफिल वाला नियम नहीं था और इस बीच आरआसी की मीटिंग नहीं हुई। बावजूद इसके कमिटी ने ध्यान नहीं दिया। इसी दौरान दूसरे विषयों के छात्रों को अप्रूवल दिया गया जबकि उन्होंने नेट या एमफिल नहीं किया था। '
विवि के पक्षपातपूर्ण रवैए से हिंदी के शोधार्थी खासकर एमफिल छात्र खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। चूंकि डिजर्टेशन जमा होते ही छात्र यूनिवर्सिटी का हिस्सा नहीं रह जाता , लिहाजा इनका डेढ़ साल बर्बाद हो गया(नवभारत टाइम्स,मुंबई,7.1.11)।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
टिप्पणी के बगैर भी इस ब्लॉग पर सृजन जारी रहेगा। फिर भी,सुझाव और आलोचनाएं आमंत्रित हैं।