मुख्य समाचारः

सम्पर्कःeduployment@gmail.com

14 सितंबर 2011

पश्चिम बंगालःघोटालों और राजनीति में खंडहर बनी हिंदी अकादमी

जहां से हिंदी का पहला अखबार निकला और जहां निराला जैसे साहित्य मनीषियों ने अपनी रचना को धार दी, वहां हिंदी के नाम पर राजनीतिक हितसाधन और घपलों-घोटालों का खेल अबाध चलता रहा है। दो दशक पहले हिंदी अकादमी का गठन जरूर किया गया लेकिन आम हिंदीभाषी और हिंदी के बुद्धिजीवियों की अकादमी तक कभी पहुंच नहीं बनी। वाममोर्चा के राज में माकपा के सदस्य हिंदी अकादमी में मनमानी करते रहे। अब बंगाल में ममता बनर्जी की सरकार बनी है तो अकादमी के पुनर्गठन की पूरी कवायद पर ही सवाल उठ रहे हैं। वजह, मुख्यमंत्री द्वारा गठित १२ सदस्यों की कमेटी में अध्यक्ष हिंदी के एक स्थानीय अखबार के मालिक हैं और सात सदस्य कारोबारी। महज तीन नाम, प्रो.रूपा गुप्ता, प्रो. मंजुरानी सिंह और कुसुम खेमानी हिंदी शिक्षा और साहित्य से जु़ड़े हैं।


कमेटी की अब तक हुई दो बैठकों में हिंदी अकादमी में कुछ कमेटियों के गठन के प्रस्ताव आए हैं। प्रो. रूपा गुप्ता के अनुसार, "हिंदी अकादमी को रोजगार मूलक कार्यक्रमों से जो़ड़ने की कोशिश की जा रही है।" हालांकि सरकार की उपेक्षा का आलम यह है कि राज्य सरकार ने अभी तक हिंदी अकादमी के लिए बजट जारी नहीं किया है, जबकि बांग्ला-उर्दू और अन्य अकादमियों के लिए बजट जारी किया जा चुका है। बंगाल में हिंदी अकादमी का गठन १९९० में किया गया। अकादमी का अतीत खंगालने से साफ हो जाता है कि यहां हिंदी को मजदूरों की भाषा समझने की मानसिकता हावी रही। हिंदी अकादमी के लिए कोलकाता के संस्कृत कॉलेज के एक कमरे में जगह दी गई। बंगाल की हिंदी अकादमी का औसत बजट साल में चार से १० लाख रुपए के बीच का रहा, जबकि बांग्ला, उर्दू से लेकर अन्य भाषाई और सांस्कृतिक अकादमियों का बजट एक से २० करो़ड़ रुपए के बीच है। शुरुआती दौर में यहां की हिंदी अकादमी ने दो पुरस्कार- राहुल पुरस्कार और प्रेमचंद पुरस्कार शुरू किए लेकिन कमेटी के सदस्यों के बीच ही पुरस्कारों के बंटवारे और पुस्तकों के प्रकाशन को लेकर हुए विवाद से अकादमी की विश्वसनीयता खत्म हो गई। ९० से ९७ के बीच यहां के दो प्रकाशनों का लोकार्पण सिर्फ पुस्तकों के जिल्द दिखाकर किया गया। यहां के दो मासिक प्रकाशन थे जिनके दो-तीन अंक छपे। वे पत्रिकाएं अकादमी के कमरे से बाहर नहीं आईं। 
सरकारी स्तर पर सिर्फ एक दफा हिंदी के बुद्धिजीवियों की बैठक बुलाई गई है। १९९७ की उस बैठक में बुद्धदेव भट्टाचार्य (तब सूचना और संस्कृति मंत्री) ने यह टिप्पणी की कि हिंदी वालों को भाषा और साहित्य से कोई मतलब नहीं। तब से कमेटी का पुनर्गठन हुआ ही नहीं। अकादमी के लिए रखे गए छह अस्थाई कर्मचारी अपने हिसाब से अकादमी चलाते रहे हैं। अब ममता बनर्जी ने जो कमेटी बनाई है, उसके स्वरूप पर सवाल उठ रहे हैं। पश्चिमबंग हिंदीभाषी समाज के सचिव अशोक सिंह के अनुसार, "माकपा ने हिंदी अकादमी की बेहद क्षति की। हमेशा पार्टी का नियंत्रण बनाए रखा लेकिन ममता बनर्जी ने तो किसी साहित्यकार या बुद्धिजीवी को इसका अध्यक्ष न बनाकर हिंदीभाषियों का अपमान किया है। ऐसा भी नहीं है कि काबिल लोगों की कमी है। हिंदी की साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता अलका सरावगी कोलकाता की साहित्यकार हैं। ऊषा गांगुली हिंदी और बांग्ला नाटकों के मंचन के लिए चर्चित हैं। कोलकाता के कई हिंदी साहित्यकार राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हैं।"

साहित्यकार गीतेश शर्मा के अनुसार, "उपेक्षा का आलम यह है कि उर्दू अकादमी तक का अपना भवन है लेकिन हिंदी के लिए सोचा ही नहीं गया।"शर्मा कहते हैं कि ६७ में बंगाल में १७ विधायक हिंदीभाषी थे। आज दो भी नहीं। साफ है कि राजनीतिक स्तर पर ब़ड़े सधे रूप में हिंदी-विरोधी काम हो रहा है(दीपक रस्तोगी,नई दुनिया,दिल्ली,हिंदी दिवस,2011)।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

टिप्पणी के बगैर भी इस ब्लॉग पर सृजन जारी रहेगा। फिर भी,सुझाव और आलोचनाएं आमंत्रित हैं।