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31 मई 2010

जम्मू-कश्मीर में स्कूल का रास्ता भूल गई शिक्षा

राष्ट्र के भविष्य की नींव शिक्षा के द्वारा ही बनाई या बिगाड़ी जा सकती है। यही कारण है कि तालिबान स्कूलों पर हमले करते हैं और यही कारण है कि केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल से लेकर राज्य सरकार के शिक्षा मंत्री पीरजादा मोहम्मद सईद तक शिक्षा में सुधार के लिए लगातार माथापच्ची कर रहे हैं। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भी गद्दी संभालने के बाद शिक्षा को अपनी प्राथमिकताओं में रखा। पर क्या इतनी माथापच्ची के बावजूद हम विद्यार्थियों को उच्च स्तर की शिक्षा मुहैया करवा पा रहे हैं। शायद नहीं! क्योंकि हर बार की तरह राज्य स्कूली शिक्षा बोर्ड के परीक्षा परिणामों में सरकारी स्कूल कहीं भी नहीं ठहरते। संभले हुए जो आंकड़ें हम देख रहे हैं वे निजी स्कूलों को मिलाकर हैं। सरकारी स्कूलों का परिणाम जहां मात्र 39 प्रतिशत रहा वहीं प्राइवेट स्कूलों का परिणाम 65 प्रतिशत दर्ज किया गया। स्थिति में इतना सुधार जरूर हुआ है कि इस बार सरकारी स्कूलों ने पिछले वर्ष की तुलना में मेरिट लिस्ट में अधिक उपस्थिति दर्ज करवाई है। विशेषकर आ‌र्ट्स विषय में जहां पहले दस स्थानों में से आठ पर सरकारी स्कूलों का कब्जा ने किया। पिछले वर्ष जहां सभी विषयों में 11 सरकारी स्कूलों के बच्चे मेरिट सूची में थे वहीं इस बार यह संख्या 16 है। इस समय राज्य में 14,820 प्राइमरी स्कूल (13,516 सरकारी और 1,304 प्राइवेट), 8300 मिडिल स्कूल (6,264 सरकारी और 2036 प्राइवेट), 1901 हाई स्कूल (1156 सरकारी और 745 प्राइवेट) और 786 हायर सेकेंडरी स्कूल(597 सरकारी और 189 प्राइवेट) हैं। नि:संदेह सरकार ने इतनी बड़ी संख्या में स्कूल खोल कर बच्चों को उनके द्वार पर शिक्षा मुहैया करवाने का प्रयास किया है। मगर आधारभूत ढांचे मजबूत बनाने में राज्य सरकार अब भी सफल नहीं हो पाई है। बच्चों को उनके द्वार पर शिक्षा तो मिल रही है मगर उसमें गुणवत्ता नहीं है। सरकार भी गुणवत्ता बढ़ाने के स्थान पर केवल संख्या बढ़ाने पर जोर दे रही है। कम रिजल्ट दिखाने वाले शिक्षकों की इंक्रीमेंट रोककर और स्कूलों में शिक्षकों की हाजिरी को सुनिश्चित बनाने और लोगों की वाहवाही लूटने के लिए मंत्रियों के औचक दौरे शिक्षा में सुधार की राह में सिर्फ एक छोटी सी कोशिश ही कहे जा सकते हैं। अभी तक राज्य सरकार ने शिक्षा की कोई भी पुख्ता नीति नहीं बनाई है। शिक्षा नीति के अभाव में राज्य में इस क्षेत्र में उन्नति महसूस नहीं हो रही है। अब हाल यह हो गया है कि आठ वर्ष पहले जहां 12वीं का परीक्षा परिणाम 42 प्रतिशत था, वह इस वर्ष 45 प्रतिशत तक ही पहुंच पाया है। वर्ष 2002-03 में जब राज्य में मुफ्ती मोहम्मद सईद ने सत्ता की बागडोर संभाली थी, तो उस समय राज्य शिक्षा बोर्ड की 12वीं कक्षा का परिणाम 42 प्रतिशत आया था। उन्होंने इसे गंभीरता से लेते हुए कई कदम उठाने की घोषणा की। मगर इन कदमों और कार्रवाइयों का कोई फायदा महसूस नहीं हुआ क्योंकि अगले वर्ष परिणाम गिरकर मात्र 39 प्रतिशत रह गया। सरकार ने रहबर-ए-तालीम योजना के तहत हजारों शिक्षक नियुक्त किए, लेकिन परिणाम फिर वहीं ढाक के तीन पात। अगले वर्ष 2004-05 में परीक्षा परिणाम पांच प्रतिशत और घटकर 34 प्रतिशत रह गया। गुलाम नबी आजाद ने मुख्यमंत्री बनने के बाद कम रिजल्ट लाने वाले स्कूलों के शिक्षकों की इंक्रीमेंट बंद करने की चेतावनी दी। इस चेतावनी के चमत्कारिक परिणाम आए और रिजल्ट में छह प्रतिशत की बढ़ोतरी होकर यह 40 प्रतिशत तक पहंुच गया। इस बार के परीक्षा परिणामों में 5 प्रतिशत की बढ़ोतरी के अलावा चौंकाने वाली बात यह भी है कि ग्रामीण क्षेत्रों के सरकारी स्कूलों की तुलना में शहरी क्षेत्रों के सरकारी स्कूलों का हाल बहुत बुरा है। क्या वजह है कि उच्च शिक्षा प्राप्त और अनुभवी शिक्षक होने के बावजूद शहरी क्षेत्रों में स्थित सरकारी स्कूलों का एक बच्चा भी पास नहीं हो सका। नि:संदेह इस बार सरकारी स्कूलों में थोड़ा सुधार जरूर हुआ है। नतीजतन सांइस, कामर्स और आ‌र्ट्स की पहली दस पोजीशनों पर सरकारी स्कूलों के 16 विद्यार्थियों ने जगह बनाई। परंतु मात्र इन 16 के आधार पर हम यह नहीं कह सकते कि सरकारी स्कूलों में शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति आ गई है। 10वीं के परीक्षा परिणाम में सरकारी स्कूलों की पोल फिर से खुल गई। वर्ष 2006-07 में परीक्षा परिणाम जहां 60 प्रतिशत था वह वर्ष 2008-09 में पांच प्रतिशत कम होकर मात्र 55 प्रतिशत रह गया। इस बार थोड़ा सा सुधार जरूर हुआ है और परिणाम 56.52 प्रतिशत हो गया। मगर सरकारी दावों की हवा यहां काम नहीं आई। 12वीं कक्षा में सरकारी स्कूलों के बच्चों ने मेरिट सूची में स्थान हासिल कर जो कीर्तिमान कायम किया वह दसवीं के परिणाम आने के बाद धराशायी हो गया। इनमें एक भी सरकारी स्कूल का विद्यार्थी मेरिट सूची में अपना नाम दर्ज नहीं करवा पाया। इसका कारण स्कूलों में मूलभूत सुविधाओं की कमी भी है। स्कूलों में रिक्तपड़े छह हजार शिक्षकों के पद यह बताते हैं कि सरकार की करनी और कथनी में बहुत बड़ा अंतर है। सरकारी स्कूलों में बुनियादी ढांचा ही नहीं है। कुछ प्राइमरी स्कूलों में पांच कक्षाओं को पढ़ाने के लिए एक शिक्षक है, तो कुछ मिडिल स्कूलों में आठ कक्षाओं को पढ़ाने के लिए चालीस टीचर। अभिभावकों का सरकारी स्कूलों पर से विश्र्वास कम होता जा रहा है। सरकार को चाहिए कि वह एक ऐसी पुख्ता नीति बनाए जिससे शिक्षा का स्तर सुधरे(दैनिक जागरण,जम्मू,30.5.2010)।

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