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28 मई 2010

केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा देना बना गले की फांस

राज्य विश्वविद्यालयों को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा देने का फैसला अब केंद्र सरकार के गले की फांस बनता जा रहा है। इन विश्वविद्यालयों में हर रोज नए विवाद, पुराने ढांचे को बदलने की अनिच्छा और बैक डोर से नियुक्तियां आदि के चलते पैदा होने वाले संकट को देखकर केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय में यह विचार चल रहा है कि इससे बेहतर तो यही रहता कि नए केंद्रीय विश्वविद्यालयों की ही स्थापना कर ली जाती।

केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने पिछले साल १५ केंद्रीय विश्वविद्यालयों की स्थापना की घोषणा की थी, जिनमें से तीन राज्य विश्वविद्यालयों का दर्जा बढ़ाकर उन्हें केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा दिया गया था। इससे पहले अलग-अलग चरणों में कई विश्वविद्यालयों को केंद्रीय विश्वविद्यालय बनाया गया था। आज स्थिति यह है कि पिछले साल जिन तीन राज्य विश्वविद्यालयों को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा दिया गया, उनके समेत पहले के संस्थान भी किसी न किसी विवाद में फंसे हुए हैं। पिछले साल मध्य प्रदेश के सागर जिले के हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, छत्तीसगढ़ के गुरु घासीदास विश्वविद्यालय और उत्तराखंड के हेमवती नंदन बहुगुणा विश्वविद्यालय को दर्जा तो केंद्रीय विश्वविद्यालय का मिल गया, लेकिन उनके प्रशासन से लेकर पाठ्यक्रम में तब्दीली की रफ्तार बहुत धीमी है।

मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि केंद्र के सख्त निर्देशों के बावजूद इनमें बैक डोर से नियुक्तियां की गईं। ऐसा तब हुआ जब केंद्र ने इन विश्वविद्यालयों को दर्जा बढ़ाने की सूचना के साथ ही यह नोटिस भी भेज दिया था कि बिना विज्ञापित किए तथा घोषित चयन प्रक्रिया अपनाए कोई भी नियुक्ति इनके लिए अमान्य होगी। अधिकारी का कहना है कि मध्य प्रदेश, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ से ये शिकायतें मंत्रालय के पास आई हैं कि गलत तरीके से नियुक्तियां की गई हैं। इसी तरह से पाठ्यक्रम और ढांचागत परिवर्तन के लिए संस्थान के प्रमुख तैयार नहीं हो रहे हैं।

इसके चलते इन केंद्रीय विश्वविद्यालयों का कामकाज सही ढंग से शुरू ही नहीं हो पा रहा है। कई वरिष्ठ अधिकारियों का मानना है कि इन संस्थानों में नए कुलपति को बैठाने भर से समस्या हल नहीं हो जाएगी। ऐसा अरुणाचल प्रदेश के मामले में देखा जा चुका है जहां केसी बलियप्पा को कुलपति बनाने के बाद से विवाद ठंडा नहीं पड़ा। अधिकारियों का मानना है कि इसके पीछे कहीं स्थानीय ठेकेदारों, विश्वविद्यालय के स्थानीय अधिकारियों और नेताओं का गठजोड़ शामिल है जो निर्माण कार्य के ठेके को हासिल करना चाहते हैं। ठेके की यह समस्या कमोबेश हर उस विश्वविद्यालय में आ रही है जिन्हें केंद्रीय बनाया गया है(नई दुनिया,दिल्ली,26.5.2010 में भाषा सिंह की रिपोर्ट)।

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