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20 जून 2010

सुधारों से दूर शैक्षिक ढांचाःसंजय गुप्त

इससे शायद ही कोई असहमत हो कि देश के समुचित और समग्र विकास में शिक्षा क्षेत्र की भूमिका महत्वपूर्ण है। विकसित देशों ने अपने शिक्षा ढांचे को दुरुस्त कर ही उल्लेखनीय सफलता हासिल की है। भारत सरकार ने भी शिक्षा की महत्ता को समझते हुए जो सर्वशिक्षा अभियान शुरू किया उसके नतीजे देश के अनेक हिस्सों में तो संतोषजनक नजर आते हैं, लेकिन अनेक हिस्सों में असंतोषजनक। आम धारणा है कि छह से चौदह वर्ष की आयु के बच्चों को अनिवार्य एवं मुफ्त शिक्षा के कानून पर अमल से इस अभियान को और अधिक गति मिलेगी तथा सभी स्कूल जाने लायक बच्चों को शिक्षित करने में सहूलियत होगी, लेकिन शिक्षा ढांचे की वास्तविक स्थिति इस धारणा को खारिज करने वाली है। ज्यादातर राज्य सरकारें इस कानून पर अमल के लिए केंद्र से धन की मांग कर रही हैं। कुछ राज्य तो यह चाहते हैं कि पूरी की पूरी राशि केंद्र सरकार वहन करे। मजबूरी में केंद्र सरकार अपना अंशदान बढ़ाने पर विचार कर रही है, लेकिन एक नया संकट शिक्षकों की कमी का आ खड़ा हुआ है। एक अनुमान के तहत विभिन्न राज्यों में करीब 13 लाख शिक्षकों के पद रिक्त हैं। इतने अधिक पद इसलिए रिक्त हैं, क्योंकि कुछ राज्यों में सर्वशिक्षा अभियान के कोटे के भी शिक्षकों के पद अभी तक नहीं भरे जा सके हैं। विडंबना यह है कि अनेक समर्थ माने जाने वाले राज्यों में भी शिक्षकों के लाखों पद रिक्त हैं। इससे यही पता चलता है कि शिक्षा के बुनियादी ढांचे को दुरुस्त करने के प्रति सत्तारुढ़ राजनेताओं ने ढीला-ढाला रवैया अपना रखा है। वैसे तो हर राजनेता शिक्षा और विशेष रूप से प्राथमिक शिक्षा की महत्ता का गुणगान करता है, लेकिन देखने में यह आ रहा है कि उनके द्वारा इस संदर्भ में अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करने से इनकार किया जा रहा है। यह ठीक नहीं कि राज्य सरकारें यह आभास करा रही हैं कि मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा के कानून को लागू करने की जिम्मेदारी केंद्र की है। आखिर क्या कारण है कि कुछ मुख्यमंत्री इस कानून के अमल में खर्च होने वाली पूरी राशि केंद्र से मांग रहे हैं? यह प्राथमिक शिक्षा के ढांचे को ठीक करने के मामले में राज्य सरकारों की ढिलाई का ही परिणाम है कि अनेक राज्यों में सर्वशिक्षा अभियान सही तरह से आगे नहीं बढ़ रहा। यह अभियान अव्यवस्था और घपले-घोटालों से भी ग्रस्त है। अब तो इस अभियान में व्याप्त खामियों की चर्चा विदेशों तक में हो रही है। ज्यादातर राज्यों में प्राथमिक शिक्षा का ढांचा बहुत ही गया-गुजरा है। स्कूलों के भवन जर्जर अवस्था में तो हैं ही, वे संसाधनों के अभाव का भी सामना कर रहे हैं। सर्वशिक्षा अभियान से जुड़े शिक्षकों का एक बड़ा तबका बच्चों की पढ़ाई में ध्यान नहीं दे रहा। परिणाम यह है कि बच्चों को नाममात्र की शिक्षा मिल रही है। कहीं-कहीं तो वे बस किसी तरह साक्षर हो रहे हैं। इसी तरह कहीं-कहीं तो वे बस स्कूल पहुंच भर रहे हैं। इस सच्चाई को स्वीकार किया जाना चाहिए कि सर्वशिक्षा अभियान शिक्षा की गुणवत्ता से कोसों दूर है। यदि सर्वशिक्षा अभियान को वास्तव में सफल बनाना है और मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा के कानून पर सही तरह से अमल करना है तो केवल शिक्षकों के रिक्त पद भरने से काम चलने वाला नहीं है। सर्वशिक्षा अभियान को सफल बनाया जा सकता है, इसका उदाहरण हैं दक्षिण भारत के राज्य और विशेष रूप से केरल। यदि केरल प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल कर सकता है तो अन्य राज्य क्यों नहीं? दक्षिण भारत के राज्यों में सामाजिक और आर्थिक विकास के बेहतर आंकड़े इसकी गवाही दे रहे हैं कि इन राज्यों ने शिक्षा के ढांचे में सुधार के लिए ठोस कदम उठाए हैं। यह समय की मांग है कि देश के अन्य राज्य शिक्षा के ढांचे में सुधार के मामले में दक्षिण भारत के राज्यों से प्रेरित हों। देश में शिक्षा का कमजोर ढांचा इस धारणा को पुष्ट करता है कि राजनेताओं ने जानबूझकर शिक्षा के तंत्र को सुधारने की कोशिश नहीं की ताकि वे आम जनता को आसानी से बरगला सकें। यह सर्वविदित है कि अशिक्षित जनता के बीच राजनेता जैसी चाहे वैसी बातें कर सकते हैं। वे न केवल ऐसा करते रहे, बल्कि उसे वर्षो तक आश्वासन की घुट्टी पिलाते रहे। आखिर देश के नीति-नियंताओं के पास इस सवाल का क्या जवाब है कि मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का कानून स्वतंत्रता के इतने वर्षो बाद क्यों लागू किया गया? वर्तमान में जाति, मजहब और रूढि़यों की दीवारें जिस तरह मजबूत हो रही हैं उसके लिए कहीं न कहीं शिक्षा प्रणाली भी दोषी है। चूंकि राजनेताओं को ऐसी दीवारें सुहाती हैं इसलिए वे उन्हें गिराने वाली शिक्षा व्यवस्था का निर्माण करने के प्रति प्रतिबद्ध नहीं। मनमोहन सिंह सरकार को इसके लिए धन्यवाद कि देर से सही, उसने छह से चौदह वर्ष की उम्र के बच्चों को मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का कानून बनाया। यह भी स्वागत योग्य है कि केंद्र सरकार इस कानून के अमल में खर्च होने वाली धनराशि में अपना हिस्सा बढ़ाने जा रही है, लेकिन बात तब बनेगी जब इस धन का सदुपयोग हो और बच्चों को वास्तव में गुणवत्ता प्रधान शिक्षा मिले। क्या केंद्र अथवा राज्य सरकारें इसकी गारंटी देने के लिए तैयार हैं कि इस कानून के अमल में वैसी धांधलियां नहीं होंगी जैसी सर्वशिक्षा अभियान में नजर आती रहती हैं? पिछले दिनों ब्रिटेन ने इस अभियान की खामियों को लेकर जो नाराजगी जताई उससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की किरकिरी हुई है। इसमें संदेह है कि ब्रिटेन की चेतावनी को गंभीरता से लिया जाएगा और उन खामियों को दूर किया जाएगा जिन पर उसने ऐतराज जताया। केंद्र और राज्यों को यह समझने की जरूरत है कि नौनिहालों को उपयुक्त शिक्षा देने का काम तभी हो सकता है जब शिक्षा के ढांचे में आमूलचूल परिवर्तन किया जाएगा। इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि शिक्षा के ढांचे में सुधार के प्रयास हो रहे हैं। सुधार के छिटपुट प्रयास समग्र सुधार का विकल्प नहीं बन सकते। यह सही समय है कि पाठ्यक्रम, पठन-पाठन के तौर तरीकों और परीक्षा प्रणाली में व्यापक बदलाव लाएं जाएं। इसके साथ ही शिक्षकों की भर्ती की व्यवस्था को भी दुरुस्त करना होगा। हमारे देश में शिक्षा के क्षेत्र में अन्य विकसित देशों की तुलना में बहुत कम धन खर्च किया जा रहा है। इसके चलते शिक्षकों को उतना वेतन नहीं मिल पा रहा है जितना वांछित है। बेहतर हो कि संप्रग सरकार शिक्षा ढांचे में सुधार के वे सभी कदम उठाए जो बहुत पहले उठाए जाने चाहिए थे। इसका कोई औचित्य नहीं कि एक ओर तो हमारे नीति-नियंताओं की ओर से भारत को महाशक्ति बनाने के दावे किए जाते रहें और दूसरी ओर यह सामने आए कि शिक्षा की पहली सीढ़ी ही जर्जर और अव्यवस्थित होने के साथ-साथ अभावों से भी ग्रस्त है। प्राथमिक शिक्षा के ढांचे को सशक्त बनाने के मामले में पहले ही बहुत देरी हो चुकी है और यदि अब भी आवश्यक कदम उठाने से इनकार किया जाता रहा तो इसका अर्थ होगा देश की अगली पीढ़ी की शिक्षा की जड़ों को जानबूझकर कमजोर बना देना(दैनिक जागरण,20.6.2010)।

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