लगभग तीन दशक से व्यंग्य विधा में सक्रिय गोपाल चतुर्वेदी हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, रवींद्रनाथ त्यागी और ज्ञान चतुर्वेदी की परंपरा में शामिल हैं। उनके दर्जन भर से ज्यादा व्यंग्य संग्रहों में से चुनिंदा 51 श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएं में शामिल हैं। गोपाल चतुर्वेदी मानते हैं कि व्यंग्य पढ़े-लिखे और सभ्य इंसान की प्रतिक्रिया है, सभ्य समाज की विभिन्न असभ्यताओं के बारे में। व्यंग्य के लिए भाषा की शालीनता एक कारगर हथियार है। उनकी व्यंग्य रचनाओं में ये दोनों बातें देखी जा सकती हैं। वे अपने व्यंग्य से समाज की असभ्यताओं पर चोट करते हैं, परंतु शालीन भाषा के साथ। इस पुस्तक में शामिल व्यंग्य रचनाओं का मुख्य विषय राजनीति और राजनीतिज्ञ हैं। खास बात यह है कि सरकारी सेवा में रहते हुए गोपाल चतुर्वेदी ने ऐसे व्यंग्यों की सर्जना की है। वे ऐसा कैसे कर सके, इसका जवाब भी उनके पास है। वह अपने व्यंग्यात्मक लहजे में कहते हैं, सरकार में हिंदी पढ़ता कौन है? यूं कहें कि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सरकारी नीति की नब्ज पर हाथ रखते हैं। 51 श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएं में राजनीति के साथ समाज, संस्कृति, पुलिस, वकील, खेल, विद्यालय से लेकर साहित्य तक मौजूद है। पुस्तक के कई रोचक व्यंग्य हैं, जो आपको सोचने के लिए मजबूर करते हैं और साथ ही गुदगुदाते भी हैं। दांत में फंसी कुर्सी, खंभातंत्र बनाम प्रजातंत्र, हम वकील क्यों न हुए, सेहत के गुर, अच्छे पड़ोस के लाभ, बारात बनाम राजनीति, पेट और पुरस्कार, आजाद भारत में कालू, उल्लू न होने का दुख, रेत में खेत और साहित्य के स्थापित ऐसी ही व्यंग्य रचनाएं हैं। गोपाल चतुर्वेदी अपने व्यंग्य में अक्सर हास्य को भी शामिल होने देते हैं और यह सायास नहीं होता। इसलिए गुदगुदाता है। उनकी शैली सरल और सहज है। उनके राजनीतिक व्यंग्य परसाई जी की याद दिलाते हैं। ये व्यंग्य रेल से खेल तक और बाजार से सरकार तक सब सिमटे हुए हैं। व्यंग्य की प्रखरता यहां है। हास्य की सहजता यहां है। पाठकों के लिए 51 श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएं गोपाल चतुर्वेदी की प्रतिनिधि पुस्तक हो सकती है(रवि बुले,दैनिक जागरण,20.6.2010)।
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