सरकार की लाख कोशिशों के बावजूद गरीब और जरूरतमंद छात्रों के लिए शैक्षणिक ऋण उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। सरकार पिछले कई वर्षो से लगातार मुनादी पीट रही है कि धनाभाव के कारण कोई भी छात्र शिक्षा से वंचित नहीं होगा। उसे सरकारी मदद से बैंकों के जरिए कम ब्याज दर पर शैक्षणिक ऋण मुहैया कराया जाएगा, लेकिन सरकार की यह कोशिश रंग लाती नहीं दिख रही है और न ही शैक्षणिक ऋण की मदद से सुनहरे भविष्य का ताना-बाना बुनने वाले गरीब और जरूरतमंद छात्रों के सपनों को पंख ही लग पा रहे हैं। इसके लिए कहीं न कहीं सरकार की शैक्षणिक ऋण नीति में व्याप्त खामियां जिम्मेदार हैं। बिचौलियों का खेल वर्तमान समय में मात्र 0.9 प्रतिशत लोग ही उच्च शिक्षा के लिए शैक्षणिक ऋण की मांग कर रहे हैं। आर्थिक उदारीकरण के दौर में यह आंकड़ा बेहद ही कमजोर और शैक्षणिक विकास की रफ्तार को कम करने वाला है। यह आंकड़ा कम होने का तात्पर्य यह कतई नहीं है कि छात्र शैक्षणिक ऋण की मदद की गुहार नहीं लगा लगा रहे हैं। और न ही इसका मतलब यह हुआ कि छात्रों के पास इतना धन है कि सरकारी मदद के बिना ही उनका काम चल जाएगा। सच यह है कि बैंकों की शैक्षणिक ऋण उपलब्ध कराने के प्रति घोर उदासीनता, लापरवाही, भ्रष्टाचार और अधिकारियों व कर्मचारियों का निष्ठुर व्यवहार जरूरतमंद छात्रों को बैंकों के चौखट तक फटकने नहीं देता। लोगों में यह आम अवधारणा बन चुकी है कि बैंकों से कोई भी ऋण आसानी से मिलने वाला नहीं है। इसके लिए या तो विचौलियों की मदद लेनी होगी या फिर बैंक अधिकारियों के समक्ष भीख मांगने तुल्य अनुनय-विनय करनी होगी। विडंबना यह है कि बिचौलिए या फिर बैंक कर्मी कई बार अपना कमीशन भी मांगते हैं। कठिन प्रक्रिया दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि बैंकों की जटिल ऋण प्रक्ति्रया और ढेरों कागजी कार्यवाही की पेचीदगियां भी छात्रों में शैक्षणिक ऋण के प्रति निराशा पैदा करती है। ऐसे में स्वाभाविक है कि शैक्षणिक ऋण की मदद की आस लगाने वाले छात्रों की संख्या तो कम होगी ही। तीसरी सबसे मुख्य वजह यह है कि आर्थिक रूप से कमजोर छात्रों के पास ऋण प्राप्त करने के लिए बैंकों में गारंटी धन रखने की क्षमता का न होना, जिसकी वजह से उन्हें आसानी से ऋण नहीं मिल पाता। गांव और पिछड़े क्षेत्रों में शिक्षा प्राप्त कर रहे छात्रों के समक्ष तो बैंकों से ऋण प्राप्त करने की और भी दुश्वारियां हैं। उन्हें ऋण लेने के लिए शहरों की ओर दौड़भाग करनी पड़ती है। कारण इसका यह है कि आज भी देश के लगभग साढ़े छह लाख गांव बैकिंग सुविधा से वंचित हैं। देश में महज 87,000 बैंकों की ही शाखाएं उपलब्ध हैं, जो आज जरूरत के लिहाज से काफी कम हैं। यही नहीं, गांव के छात्र सरकार से मिलने वाले शैक्षणिक ऋण की मदद से भी अनजान हैं। गांव का अभिभावक अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाने के लिए बैंकों से ऋण लेने के बजाय महाजनों से ऋण लेना ज्यादा मुनासिब समझता है। वह बैंकों से ऋण लेने में डरता है। इस डर के पीछे की मूल वजह क्या है, सबको पता है। इसका दुष्परिणाम यह होता है कि महाजनों के चंगुल में फंसने से लोगों की ऋणग्रस्तता तो बढ़ती ही है, उनके द्वारा आत्महत्या जैसा कठोर कदम भी उठा लिया जाता है। सरकार का रवैया आज उच्च शिक्षा की नामांकन दर भारत में सिर्फ 12.4 फीसदी है, जबकि दुनिया के विकसित देशों में यह दर 40 फीसदी से कम नहीं है। आज दुनिया के विकसित देशों में प्रति 10 लाख में 4500 छात्र शोध कार्य में संलग्न हैं। स्कैंडिनेवियाई देशों में तो यह संख्या 6700 है, जबकि भारत में यह संख्या महज 156 है। यह उच्च शिक्षा के लिए अत्यंत ही गंभीर प्रश्न है। सवाल यह उठता है कि जब उच्च शिक्षा में नामांकन ही नहीं होगा या कम होगा तो शोध कार्य किस बिनाह पर किए जाएंगे। पिछले दिनों केंद्र सरकार द्वारा यह भी कहा गया कि गरीब घर के छात्रों को अब बैंकों से सालाना 4 फीसदी की निम्न ब्याज दर पर शैक्षणिक ऋण सुलभ कराया जाएगा। सरकार का यह कदम स्वागत योग्य है। इसके लिए सरकार संस्थागत व्यवस्था करने की भी तैयारी में है। सरकार उन्हीं छात्रों को चार फीसदी ब्याज दर पर ऋण उपलब्ध कराने की बात कर रही है, जिनके माता-पिता की औसत आय 4.50 लाख रुपये से कम है। बाकी छात्रों को सात फीसदी ब्याज दर पर ऋण उपलब्ध कराएगी। गौर करने वाली बात यह है कि सरकार द्वारा शैक्षणिक मदद के नाम पर अभी तक छात्रों को बैंकों द्वारा महज 35000 करोड़ रुपये ही वितरित किए गए हैं, जो लक्ष्य से काफी कम है। इन आंकड़ों से सरकार की लचर शिक्षा ऋण नीति की खामियां ही उजागर होती हैं। सरकार अब इस कोशिश में जुटी है कि शिक्षा ऋण को 2017 तक बढ़ाकर 1,22,883 करोड़ और 2020 तक 1,66,541 करोड़ कर दिया जाए। लेकिन जब तक बैंकों द्वारा ऋण प्रदान करने की प्रक्ति्रया का सरलीकरण नहीं किया जाएगा, तब तक अच्छे नतीजों की उम्मीद नहीं की जा सकती है। जरूरतमंद को कैसे मिले लोन सरकार द्वारा शैक्षणिक ऋण नीति में काफी बदलाव किए जाने की जरूरत है। सरकार और बैंकों को मिलकर शैक्षणिक ऋण के संदर्भ में शिक्षण संस्थाओं में जाकर जागरूकता कार्यक्रम चलाना चाहिए ताकि अधिक से अधिक छात्र लाभान्वित हो सकें। गरीब छात्रों के लिए ब्याज दर न्यूनतम रखी जाए। आर्थिक रूप से कमजोर छात्रों के लिए बैंकों में जरूरी गारंटी धन रखने की बाध्यता को सिरे से खत्म किया जाए। कोशिश तो यह भी होनी चाहिए की गांव स्तर पर भले ही न सही, लेकिन कम से कम तहसील स्तर पर ही सही बैंकों द्वारा ऋण शिविर लगाकर जरूरतमंद छात्रों को ऋण प्रदान किया जाए। ऋण देते समय बैंक अधिकारियों का कर्तव्य बनता है कि वे छात्रों एवं उनके अभिभावकों को विश्वास में जरूर लें और कम से कम कागजी कार्यवाही सुनिश्चित करें। छात्रों के भरोसे को जीते बिना लक्ष्य की पूर्ति संभव नहीं है। शिक्षा के उपरांत रोजगार प्राप्ति तक छात्रों को ऋण की देनदारी के लिए परेशान न किया जाए। अक्सर सुनने-देखने को मिलता है कि बैंक अधिकारियों द्वारा ऋण प्रदान करने के एवज में सुविधा शुल्क की मांग की जाती है। सरकार को चाहिए कि ऐसे भ्रष्ट अधिकारियों-कर्मचारियों से निपटने के लिए एक निगरानी कमेटी का गठन करे और उन्हें चिह्नित करके कठोर दंड का प्रावधान सुनिश्चित करे। अन्यथा, सरकार का शैक्षणिक ऋण का लक्ष्य सफेद हाथी ही साबित होगा(अरविंद जयतिलक,दैनिक जागरण,राष्ट्रीय संसकरण,28.6.2010)।
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