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22 जुलाई 2010

झारखंड की लुप्तप्राय जनजातियों में महज 16.87 प्रतिशत शिक्षित

आजादी के बासठ साल बाद भी लुप्त होती जनजातियों की शिक्षा के लिए सरकार महकमा, खासकर कल्याण विभाग खास चिंतित नजर नहीं आता। यदि चिंतित होता तो इन जातियों के कल्याण के लिए कागजी नहीं ठोस काम करता। इनकी शिक्षा, रोजगार की व्यवस्था करता। पलायन को रोकता। पर, झारखंड में ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा। ऐसे में इनके लिए सिवाय मजदूरी के कोई विकल्प नहीं है। राज्य में लुप्त होती नौ जनजातियों बिरहोर, परहिया, माल पहाडि़या, सावर, सौरिया पहाडि़या, हिल खडि़या, कोरवा, असुर, बिरजिया की कुल आबादी 1,92,425 है। इनमें अशिक्षित जनजातियों की आबादी 159960 है और शिक्षित जनजातियों की संख्या महज 32465। यानी राज्य में शिक्षा दर 44.48 की तुलना में इन नौ जनजातियों का शिक्षा दर महज 16.87 है। राष्ट्रीय वन अधिकार संयुक्त समिति की सदस्य वासवी किड़ो कहती हैं कि मातृभाषा में शिक्षा न देने के कारण भी यह स्थिति पैदा हुई है। अधिकतर ये जनजातियां पहाड़ों पर रहती हैं। इनके बच्चों को हिंदी पढ़ने में बहुत कठिनाई होती है। आवासीय विद्यालयों में जो शिक्षक हैं, उन्हें भी क्षेत्रीय भाषा नहीं आती और पढ़ाई का स्तर भी बहुत निम्न है। झारखंड जनजातीय कल्याण शोध संस्थान ने अपने अध्ययन में इनकी समस्याओं को रेखांकित किया हैं। इन जनजातियों सोलह समस्याएं गिनाई, जिनमें मुख्य रूप से शिक्षा, कृषि, भोजन का संकट, स्वच्छ पानी, स्वास्थ्य, बेरोजगारी, गरीबी, बिचौलिया, बिजली आदि हैं। गांवों में न स्वच्छ पानी की व्यवस्था है न विद्यालयों की। भोजन का जुगाड़ भी समस्या है। सो, रोजगार की तलाश में दूसरे राज्यों में पलायन इनकी मजबूरी है। जंगल आधारित कई रोजगार सरकार इन्हें मुहैया करा सकती है इनकी आर्थिक स्थिति में सुधार हो सकता है, लेकिन सरकार के पास इच्छाशक्ति नहीं है। वन अधिकार कानून को ठीक से लागू नहीं किया जा रहा है। वासवी कहती हैं कि वन अधिकार कानून है और इसे लागू करने का जिम्मा कल्याण विभाग को है पर वन विभाग लागू नहीं होने देता। इससे आदिवासियों को वाजिब हक नहीं मिल पा रहा है। इस स्थिति में शिक्षा का स्तर कैसे सुधरे?(दैनिक जागरण,रांची,22.7.2010)

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