पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी की एक रिपोर्ट में पंजाब में किसानी के पतन का कारण ज्यादा जरूरत न होने के बावजूद भी कर्जा लेकर ट्रैक्टरों को खरीदना बताया गया है। कुछ ऐसा ही हाल सर्व शिक्षा अभियान का है। राज्य में करोड़ों रुपए लगाकर बच्चों को रेडियो से शिक्षा देने का प्रोजेक्ट 2 सालों में मात्र साढ़े 5 महीने चलाकर डिब्बा बंद कर दिया गया। उसके बाद न तो किसी ने इसका फीड बैक लिया और न ही इसकी सफलता जानने की कोशिश की। लापरवाही इतनी कि करोड़ों से खरीदे हजारों रेडियो की तारों को आज चूहे कुतर रहे हैं।
उधर डीजीएसई कृष्ण कुमार अब अगस्त में इन रेडियो से एक बार फिर राज्य में बच्चों को शिक्षा देने का सपना देख रहे हैं।
ये था रेडियो एजूकेशन का ड्रीम प्रोजेक्ट
सर्व शिक्षा अभियान ने बच्चों को रेडियो के जरिए एजूकेशन देने की अति महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट की घोषणा अगस्त 2008 में की थी। इसके तहत राज्य के सभी 13 हजार 449 सरकारी प्राइमरी स्कूलों को 1500 रुपए की ग्रांट जारी की गई थी। मतलब कुल 2 करोड़ 1 लाख 73 हजार 500 रुपए स्कूलों को भेजे गए थे। पहले यह कार्यक्रम 27 अगस्त 2008 से लकेर 5 दिसंबर 2008 तक चला।
उसके बाद इसे बंद करके दूसरे चरण में इसे 23 नवंबर 2009 को शुरू करके 10 फरवरी 2010 को बंद कर दिया गया। पहले चरण में सुबह 11:40 मिनट से लेकर 12:15 तक कार्यक्रम चलता था, जबकि दूसरे चरण में इसका समय बदल कर 1 बज कर 10 मिनट से लेकर 1 बजकर 30 मिनट तक कर दिया गया।
इस दौरान पहले सिर्फ प्रसारण जालंधर अकाशवाणी से होता था, लेकिन बाद में फिरोजपुर, बठिंडा और पटियाला से भी इसका प्रसारण शुरू कर दिया गया। इन प्रसारण केंद्रों को प्रतिमाह साढ़े 6 लाख रुपए के करीब एसएसए की ओर से दिए जाते थे।
एजूकेशन के नाम पर हुई सिर्फ खानापूर्ति
उधर इन 5 महीनों की रेडियो एजूकेशन के नाम पर बेशक डीजीएसई अपने कुछ अधिकारियों के ‘फील गुड’ देने के बाद आंखें मूंद कर बैठे हों, लेकिन असलियत कुछ और ही है। वैसे तो प्रोजेक्ट के मुताबिक एक्सपर्ट टीचर्ज का एक पैनल छात्रों के जनरल टॉपिक्स की एक स्क्रिप्ट तय करता था। उसे क्लास वाइज ‘सुनो—सुनाओ’ नामक कार्यक्रम के जरिए छात्रों को सुनाया जाना था। रेडियो से सारा टॉपिक सुनने के बाद संबंधित अध्यापक उसी विषय पर विस्तार से छात्रों को पढ़ाता था। लेकिन ज्यादा स्कूलों में रेडियो सिग्नल कमजोर होने के कारण छात्र एजूकेशन कार्यक्रम न सुनकर फिल्मी गाने सुनकर ही घर दौड़ जाते थे।
अध्यापकों को भी आधे से एक घंटे तक छात्रों से माथापच्ची से छुटकारा मिल जाता था। रेडियो ऑन किया, उसके बाद छात्र किस स्टेशन पर सिग्नल सैट करते हैं, इससे किसी कोई लेना देना नहीं। विभाग ने भी बाद में यह जानने की कोशिश में कोई सर्वे या रिपोर्ट तैयार नहीं करवाई कि इस प्रोजेक्ट से किसी छात्र को कोई फायदा हुआ भी या नहीं।
उधर,डायरेक्टर जनरल आफ स्कूल एजूकेशन कृष्ण कुमार कहते है कि हमने बच्चों की परीक्षाओं के कारण यह प्रोजेक्ट बंद कर दिया था। अब अगस्त में दोबारा शुरू कर देंगे। जहां तक फीड बैक लेने का सवाल है तो हमारे जिला शिक्षा कार्यालय के अधिकारियों ने हमें समय समय पर बताया था कि यह स्कीम बेहद सफल रही है और इसके काफी अच्छे फायदे सामने आ रहे हैं।
हां, इस संबंध में कोई सर्वे या लिखित रिपोर्ट हमने तैयार नहीं करवाई है। जहां तक रेडियो को संभालने का सवाल है तो हमने तो सभी स्कूलों को आदेश दिए थे कि वो डिब्बों में अच्छी तरह बंद करके इन्हें सुरक्षित रखें। अगर कहीं ऐसा नहीं है तो हम इसका दोबारा रिव्यू कर लेंगे(राणा रणधीर,दैनिक भास्कर,पटियाला,26.7.2010)।
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