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07 अगस्त 2010

हिंदी विश्वविद्यालय का अस्तित्व आखिर क्यों हैं?

चौदह जनवरी 1975 को यानी कोई पच्चीस साल पहले नागपुर में पहला विश्व हिंदी सम्मेलन हुआ था। यहां दो बड़े प्रस्ताव पारित हुए। पहले प्रस्ताव में कहा गया था कि संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी को आधिकारिक भाषा बनाने के लिए भारत सरकार को कोशिश करनी चाहिए और हिंदी के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय विश्व विद्यालय की स्थापना होनी चाहिए जिसका मुख्यालय इस प्रस्ताव के अनुसार गांधी की कर्मभूमि वर्धा में हो।

अगले साल यानी 1976 के अगस्त महीने में अगला विश्व हिंदी सम्मेलन मॉरीशस में हुआ और फिर हिंदी विश्व विद्यालय का प्रस्ताव पारित किया गया। मॉरीशस में एक विश्व हिंदी केंद्र की स्थापना की बात भी कही गई। दरअसल भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपने अखबार में बहुत पहले लिख दिया था कि अपने उद्यम से शुद्व हिंदी का विश्वविद्यालय बनाना हर हिंदी भाषी का कर्तव्य है। भारत की संसद ने 1997 में हिंदी के लिए आवासीय विश्वविद्यालय की स्थापना की और कल्पना यह थी कि दुनिया की सारी भाषाएं यहां हिंदी माध्यम से पढ़ाई जाए। इसके अलावा क्षेत्रीय भाषाओं को भी विश्व की प्रमुख भाषाओं में शामिल करवाया जाए।

जमाना तकनीक का है इसलिए विश्वविद्यालय की एक वेबसाइट भी हेै और इस वेबसाइट पर समकालीन रचनाकाराें में जो ज्यादातर नाम दर्ज हैं वे तथाकथित छंद रहित कविता लिखने वाले और अपने आपको वामपंथी का तमगा पहनाने वाले लोगों का नाम है। कई नाम तो ऐसे हैं जिन बेचारों का साहित्य से कोई लेना देना नहीं है। दरअसल सूची इतनी हड़बड़ी में बनाई गई है कि वर्णमाला में अ से आगे जिन लेखकों का नाम हैं वे सूची में शामिल ही नहीं हुए। एक लाख पृष्ठों की जो ग्रंथावली ऑनलाइन बनाई जानी है उसमें सिर्फ एक ही पन्ना शामिल है। बाकी पन्ने पता नहीं कब जुड़ेंगे। भाषा, साहित्य, अनुवाद और संस्कृति आदि में एमए से ले कर पीएचडी तक की डिग्रियां देने वाले या कम से कम डिग्री देने का दावा करने वाले इस विश्वविद्यालय में साल में ज्यादा से ज्यादा पांच हजार रुपए तक की फीस लगती है मगर सैकड़ों करोड़ की लागत से स्थापित इस विश्वविद्यालय में कई पाठयक्रम ऐसे हैं जिनमें कोई छात्र ही नहीं है। यह खुद विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर दर्ज हैं।

यह संयोग नहीं हैं कि इसी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय का साहित्य विमर्श का कैनवास इतना बड़ा है कि वे ज्यादातर मुखर हिंदी लेखिकाओं को छिनाल तक कहने में संकोच नहीं करते। उसके बाद जब साहित्य प्रेमियों के जूते पड़ते हैं और केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल नौकरी से निकालने की धमकी देते हैं तो कुलपति महोदय सिर्फ कुलपति की हैसियत से माफी मांगते है। यह माफी अधूरी इसलिए हैं क्योंकि लेखक विभूति नारायण राय की धारणा अब भी यही है कि मुखर पुरुष लेखक वीर होता है मगर मुखर लेखिकाएं छिनाल होती है। दुनिया के अकेले हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति का भाषा ज्ञान इतना गजब का है कि वे छिनाल जैसी गाली का शब्दकोष वाला अर्थ ही बदलने पर तुल गए।

विश्व के इस अकेले हिंदी विश्व विद्यालय के पहले कुलपति अशोक वाजपेयी थे और मध्य प्रदेश में बुंदेलखंड इलाके के सागर के रहने वाले अशोक वाजपेयी के बारे में यह कहना मुश्किल है कि उनकी हिंदी ज्यादा विलक्षण है या अंग्रेजी ज्यादा चमकदार है। हिंदी के सबसे अच्छे कवियों में वाजपेयी की गिनती होती है और गद्य तो वे तीर की तरह तीखा लिखते हैं। अगर गालियों से हिंदी का उद्वार होता तो अशोक वाजपेयी जिस बुंदेलखंड के हैं वहां गाली कोष बहुत समृध्द हैं और बुंदेलखंडी लोगों की एक प्रतिभा यह भी है कि वे गालियों का अविष्कार भी कर भी डालते है। मगर अशोक वाजपेयी को कभी जरूरी नहीं लगा कि वे गालियां दे कर अपने आपको हिंदी साहित्य की न्यायमूर्ति की भूमिका में लाएं।

हिंदी दुनिया की सबसे बड़ी भाषाओ में से एक हैं मगर संयुक्त राष्ट्र हमारी भोजपुरी से भी कम बोली जाने वाली फ्रेंच तक को आधिकारिक भाषा के रुप में मान्यता दे सकता है मगर हिंदी वहां सम्मान पाने की स्थिति में नहीं है। इसके लिए हम हिंदी वाले ज्यादा कसूरवार है। जब अशोक वाजपेयी जैसे हिंदी और भारतीय संस्कृति के लिए विख्यात व्यक्ति के बाद अगर उत्तर प्रदेश पुलिस का एक विवादास्पद आईपीएस अधिकारी दुनिया के इस अकेले हिंदी विश्वविद्यालय का कुलपति बना कर लाया जाएगा तो जाहिर है कि वह वही भाषा बोलेगा जो हवालात में हवलदार बोलते है।

हिंदी विश्वविद्यालय का कबाड़ा करने के लिए विभूति नारायण राय का यह बयान ही काफी नहीं था। पिछले बहुत समय से इस विश्वविद्यालय में बहुत जिम्मेदार पदों पर ऐसे ऐसे महारथी बैठे हैं जिन्होंने इंटरनेट का सबसे रचनात्मक इस्तेमाल कर के एक साल में बारह बारह किताबें नकल टीप कर लिख डाली है और इनके बारे में खबरे छपी हैं। टीवी पर बाकायदा पूरे कार्यक्रम प्रसारित हुए हैं मगर आज तक इनकी चोरी के बारे में जांच शुरू नहीं की गई। इसे आप चाहे तो संयोग मान सकते हैं कि ज्यादातर चोरी के अभियुक्त खुद कुलपति के कुल कुटुंब और जाति के हैं।

जिन लोगों ने हिंदी विश्वविद्यालय के काम और सरोकार पर सवाल खड़ा किया उन्हें या तो लांछन का शिकार होना पड़ा या फिर कुलपति महोदय ने नौकरियों और लिखा पढ़ी के ठेको के जरिए उन्हें खरीद लिया और जो बिके नहीं उन्हें खरीदने की कोशिश की। कई लोग जो अब भी नैतिकता में विश्वास रखते हैं, विश्वविद्यालय छोड़ कर चले आए और इससे मौका मिल गया कि दूसरे दुश्मनो को उपकार कर के मित्र या दास बनाया जा सके।

इसके अलावा अचानक विश्वविद्यालय में वामपंथ का नाटक शुरू हो गया और पहली बार पता चला कि हिंदी दो तरह की होती है, एक वामपंथी और दूसरी दक्षिणपंथी। वामपंथी दुनिया के सबसे प्रतिभाशाली लोग होते हैं और जिन बेचारों को भारत की संस्कृति और संस्कार में जरा भी भरोसा होता है उनके माथे पर दक्षिणपंथी और हाफ पैंट पहनने वाले होने का ठप्पा लगा दिया जाता है। भाषा का यह राजनैतिक धुवीकरण हिंदी का और कबाड़ा कर रहा है। विभूति नारायण राय अपने दो उपन्यासों में कुछ दर्जन कहानियों की वजह से चर्चित रहे हैं। मगर हिंदी का व्याकरण उनकी समझ में नहीं आया। जब हिंदी विश्वविद्यालय के कुलाधिपति नामवर सिंह उन्हें बोध नहीं दे पाए तो उन बेचारे हिंदी वालों की क्या विशात जिनके बारे में माना जाता है कि वे एक बार जहाज में बैठ कर और एयरकंडीशन कमरो में ठहर कर धन्य हो जाते हैं। वैसे अलग से हिंदी विश्वविद्यालय बनाने का अर्थ क्या यह नहीं हैं कि देश के बाकी विश्वविद्यालयों के हिंदी विभाग निकम्मे और नालायक हैं?(आलोक तोमर,डेट लाइन इंडिया,7.8.2010)

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