बायोसांइस और केमेस्ट्री को छोड़कर प्री-एमफिल की परीक्षा औपचारिक होकर रह गई है। विभागों में उतने भी छात्र नहीं आए जितनी सीटें हैं। इसी वजह से माना जा रहा है कि परीक्षा में शामिल होना तो औपचारिकता मात्र है, प्रवेश तय है।
परीक्षार्थियों की संख्या कम होने की वजह ज्यादातर परीक्षार्थियों के आवेदन निरस्त होना और एमफिल के प्रति छात्रों का घटता रुझान है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के नियमों का पालन करते हुए पं.रविशंकर शुक्ल यूनिवर्सिटी में पहली बार एमफिल की प्रवेश परीक्षा हुई। परीक्षा के लिए 430 छात्रों ने आवेदन किया था जिसमें ९क् फीसदी छात्र उपस्थित हुए। गौरतलब है कि प्री-एमफिल टेस्ट को लेकर पिछले साल से कश्मकश की स्थिति बनी हुई थी।
हर तरफ से यूनिवर्सिटी को विरोध का सामना करना पड़ा। सीट के हिसाब से छात्रों की संख्या कम होने से परीक्षा में मात्र औपचारिकता ही पूरी की गई। न तो छात्रों में सफलता के लिए कोई उत्साह दिखा और न ही उन्हें फेल होने का कोई डर था। सभी छात्रों के दिमाग में एक बात साफ हो गई थी कि परीक्षा में शामिल होने पर एमफिल में उन्हें प्रवेश मिल ही जाएगा। दर्शन, मनोविज्ञान, भूगोल, जियोलॉजी सहित ज्यादातर विषयों में सीट से भी कम आवेदन आए। एमफिल के लिए निर्धारित 10 सीटों पर सबसे ज्यादा मारामारी बायोसाइंस और केमेस्ट्री में रही।
250 रुपए की चपत
15 जून को प्री-एमफिल के लिए यूनिवर्सिटी में आवेदन फार्म बिकना शुरू हो गया था। कई छात्रों ने 250 रुपए देकर आवेदन फार्म खरीदा और जमा कर दिया। जुलाई की शुरूआत में प्री-एमफिल के लिए नया ऑर्डिनेंस बना जिसके तहत स्नातक में ५क् अंक और स्नातकोत्तर में 55 अंक अनिवार्य कर दिया गया।
योग्यता नहीं रखने के कारण बहुत से छात्रों का आवेदन फार्म निरस्त कर दिए गए। इसलिए कम हुआ रुझान: यूजीसी ने 2009 में लेक्चरर बनने के लिए नेट को अनिवार्य कर दिया। कॉलेजों में अध्यापन वाले किसी भी पद के लिए पीएचडी या नेट होना जरूरी कर दिया गया। एमफिल करने में एक साल का समय लगता है। इस डिग्री का महत्व पीएचडी की प्रवेश परीक्षा में छूट दिलाने तक ही रह गया है। फलत: छात्रों का रुझान इस ओर से कम हो गया(दैनिक भास्कर,रायपुर,6.8.2010)।
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