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09 सितंबर 2010

'नई दुनिया' की "भाषा नीति" श्रृंखला-6

'टूट गया दिल!'

लेखन में, और बोलने में भी, प्रभाव पैदा करने की इच्छा से वाक्य रचना के साथ बहुत छेड़छाड़ की जाती है। कर्ता, कर्म, क्रिया को वाक्य रचना में उनके नियत स्थानों से हटाकर मनमर्जी से कहीं और रखकर समझा जाता है कि इससे बात दमदार लगेगी, लेकिन ऐसा होता नहीं है। उल्टे, ऐसे प्रयोग पढ़ने, समझने में उलझन ही पैदा करते हैं। "क्या तुम समझते हो कि मैं मूर्ख हूं?" इसे यदि इस तरह लिखा जाए तो क्या परेशानी है- "क्या तुम मुझे मूर्ख समझते हो?" भाषा विज्ञान ने लिखने, पढ़ने, बोलने की दिक्कतों को ध्यान में रखकर कई सुधार किए हैं। वे उपयोग करने वाले की मदद के लिए और भाषा के स्वरूप को शुद्ध एवं अनुशासित बनाए रखने के लिए ही हैं। उनका पालन करने में एतराज क्यों होना चाहिए? "जब शीत ऋतु होती है, तब दिन छोटे होते हैं" ऐसा ही एक उदाहरण है। इसका सरल एवं सीधा विकल्प है, "शीत ऋतु में दिन छोटे होते हैं।" इस तरह वाक्य की रचना करने में एतराज क्यों होना चाहिए? "दिल टूट गया" को "टूट गया दिल" लिखने से कितना प्रभाव बढ़ गया? कविता तथा साहित्य के अन्य विशेष हिस्से में ऐसे प्रयोग करने की आजादी है, लेकिन आम उपयोग में, खासतौर से समाचार-पत्रों में, ऐसे प्रयोगों से बचा जाना चाहिए। सच यह है कि लिखने, बोलने में भाषा के लिए आवश्यक सतर्कता पर लापरवाही और कई बार आदत भारी पड़ जाती है। "यदि यह पत्र आपको न मिले तो मुझे सूचित कर दीजिएगा।" यह कैसे संभव होगा? पत्र नहीं मिलेगा तो यह सलाह उसे कैसे मिलेगी? "साहित्य समाज का दर्पण है, जिससे उसे प्रेरणा मिलती है।" प्रेरणा किससे किसे मिल रही है? दर्पण तो छवि दिखाता है। ऐसा ही भ्रम "द्वारा" पैदा कर देता है। "पुलिस द्वारा बलात्कार की पीड़ित महिला..." अर्थ का अनुमान लगाने के लिए पाठक स्वतंत्र हैं(दिल्ली संस्करण,8.9.2010)।

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