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12 सितंबर 2010

'नई दुनिया ' की "भाषा नीति" श्रृंखला -9

दोहराव की समस्या

अनावश्यक शब्दों का प्रयोग करना हिन्दी भाषा का उपयोग करने वालों में एक आम दोष है। इससे न केवल अर्थ अस्पष्ट हो जाता है, बल्कि ऊर्जा और समय की बर्बादी भी होती है। कम शब्दों में कही जा सकने वाली बात को अनावश्यक अतिरिक्त शब्दों में व्यक्त करने से भाषा क्लिष्ट हो जाती है। इस दोष के अनेक उदाहरण रोजमर्रा के अनुभवों में मिलते हैं। "समाचार पत्र छापने की व्यवस्था का प्रबंध करें" में "की व्यवस्था" और "का प्रबंध" में से किसी एक की ही आवश्यकता है। "परिणाम सुनकर शिक्षक का शरीर गद्गद हो गया" में "का शरीर" अनावश्यक है। "प्रातःकाल के समय में" में "के समय" की आवश्यकता नहीं है। "माली जल से पौधों को सींचता है" में "जल से" कहना आवश्यक नहीं है। इसी तरह "अपनी ताकत के बल पर" कहना ठीक नहीं है। "ताकत के भरोसे" या "ताकत से" कहने से ही अर्थ स्पष्ट हो जाता है। "बल" शब्द दोहराव है। "थाह" मिलती है या नहीं मिलती है। "थाह का पता चलना" या "थाह का पता नहीं चलना" दोषपूर्ण कथन है। अनावश्यक शब्दों के साथ-साथ अनुपयुक्त शब्दों का उपयोग भी खेल बिगाड़ देता है। कई बार दो शब्दों का तालमेल नहीं बैठता है। "गले में गुलामी की बेड़ियां..." में ऐसा ही हुआ है। बेड़ियां पैरों में डाली जाती हैं। "औषध" रोग की होती है, समस्या का हल या समाधान होता है। अतः "इस समस्या की औषध..." या "इस बीमारी का समाधान..." कहना अनुचित है। "प्यार करना तलवार की नोक पर चलना है" में "नोक" नहीं "धार" सही शब्द है। गोलियों की "बाढ़" नहीं "बौछार" होती है। "सफल होने की निराशा है" नहीं "सफल होने की आशा नहीं है" प्रयोग उचित है(दिल्ली संस्करण,११.९.२०१०)।

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