शिक्षा का पहले राजनीतिकरण हुआ, फिर व्यवसायीकरण और अब उस पर भिन्न-भिन्न किस्म के संक्रमण हो रहे हैं। पाठ्य-पुस्तकों में सत्ताधारी दलों के विचारों और सुझावों की छाया पड़ना अब कोई चकित करने वाली बात नहीं रही। उधर विद्यालयों में ज्ञान के प्रति उदासीनता और परीक्षोन्मुख पाठ्यक्रमों को तरजीह देने की मानसिकता ने विद्यार्थियों को एकांगी सूचनाओं का गट्ठर तो बना दिया किंतु वे सर्वांगीण विकास के लक्ष्य की पटरी से उतार दिए गए। शिक्षकों को वेतनभोगी कर्मचारी मानने की मानसिकता ने उनके प्रति जिस उपेक्षा का सृजन किया, उससे समाज में उनकी स्थिति का भी क्षरण हुआ। अभिभावकों ने महंगे विद्यालयों की निजता को सरकारी व्यवस्थाओं की तुलना में तरजीह दी और भारत दो प्रकार के नागरिकों को गढ़ने वाला देश बन गया। सरकारी स्कूल शासित होने वालों का उत्पादन करने लगे और निजी स्कूल अपने ताम-झाम की बिना पर शासक पीढ़ियों का।
यह एक जाना-बूझा तथ्य है कि शिक्षा जैसे व्यापक कार्यक्रम को अकेले सरकार नहीं चला सकती, इसलिए उसमें समाज की भूमिका और संस्थाओं का सहयोग एक बड़ी साझीदारी के रूप में सामने आना ही चाहिए था, जो स्वाधीनता से पहले और बाद में तेजी से बढ़ा। अंतर इतना ही है कि स्वाधीनता के पूर्व संस्थाओं ने सेवा और त्याग की भावनाओं से शिक्षा के क्षेत्र को चुना था जबकि स्वाधीनता के बाद मूल्य बदलने लगे और इस शताब्दी के अंतिम वर्षों तक तो उनका पूर्णतः व्यवसायीकरण हो गया। आखिर खुली बाजार व्यवस्था के झोंके के साथ यह तो होना ही था।
व्यवसायीकरण ने शिक्षालयों को रसहीन बना दिया। यहां से प्रेम, वात्सल्य, सेवा, सहयोग, त्याग, उपकार, सद्भाव, करुणा जैसे मानवीय गुण और मूल्य लापता हो गए और नफा नुकसान, आमदनी तथा अट्टालिकाओं की भव्यता के प्रति आकर्षण बढ़ गया। बैलेंस शीट पर दृष्टि ठहर गई है और मनुष्य गढ़ने के चरम लक्ष्य को उन्होंने आंखों से ओझल हो जाने दिया है। महंगे विद्यालय अभिभावकों को लुभाने में सफल रहे हैं। इन विद्यालयों में अपने बच्चों को दाखिला दिला देना उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा का एक और कारक बन चुका है।
विद्यालयों ने भी ऐसे-ऐसे स्वांग रचना सीख लिया है, जिसका शिक्षा के साथ कोई सीधा रिश्ता ही नहीं है। सरकारी से लेकर गैर सरकारी विद्यालयों तक गणवेश के प्रति भारी दबाव है। इसके पीछे उनका एक गढ़ा हुआ नकली तर्क यह है कि गणवेश विद्यार्थियों में समानता का भाव पैदा करता है। अमीर- गरीब और समुदायगत विभिन्नताएं इसके पीछे छिप जाती हैं। एकता ओर समानता का गुण पैदा होता है। यदि यह तर्क वास्तविक है, तो पूरे राष्ट्र को ही क्यों नहीं हम एक तरह की गणवेश पहनाकर राष्ट्रीय एकता स्थापित कर लेते। गणवेश के पीछे विद्यालय भिन्नताओं को भले ही स्थायी तौर पर ढंक न पाए हों, पर उन्होंने बच्चे की मौलिकता को जरूर ढंक दिया है और इस सत्य से आंखें फेर ली हैं कि प्रत्येक बालक ईश्वर की मौलिक कृति है। हमें उसकी मौलिकता को छीन लेने का अधिकार किसने दिया? विविधताओं से भरे देश में विविधता परहेज कहीं हमारे तथाकथित शिक्षाविदों की विपरीत दिशा में यात्रा का प्रस्थान बिंदु तो नहीं?
इस गर्म और शुष्क जलवायु वाले देश में नेक टाई पहनाकर हमने ठंडे और नम पश्चिम की शर्मनाक नकल तो कर ली परंतु बंद गले के भीतर छटपटाते विद्यार्थी की दशा को हम देख पाने में असमर्थ हो गए। असल में गणवेश विद्यालयों के इश्तहार हैं और उन्होंने जीवित शिक्षार्थियों को अपनी मृत आकांक्षाओं का विज्ञापन बना डाला है। विद्यालय शुल्क वसूली के पैसे क्रूर आगार तक बनने से नहीं चूके, जहां राजस्व वसूली की दंड प्रक्रिया से भी ज्यादा भयावह वातावरण निर्मित कर दिया गया है।
शिक्षार्थियों की तरह ही शिक्षकों की दुर्दशा भी कर दी गई है। पहले तो राज्य सरकार ने ही इस दिशा में कदम बढ़ाया और शिक्षकों के अनेक पदनाम और वेतनमान रच डाले। सबके पीछे एक ही दृष्टि रही - वेतन घटाकर, कम-से-कम पर शिक्षकों की बहाली कर उनका वैधानिक शोषण करना। जब सरकार ने शोषण के वैध तरीके निकाल लिए तो फिर अशासकीय स्तर पर तो मानों उन्हें इसका खुला अनुमति पत्र ही हासिल हो गया। अनुदान प्राप्त अशासकीय विद्यालयों और महाविद्यालयों का एक सरकार ने अनुदान समाप्त किया तो दूसरी सरकार ने विपक्ष में रहने तक तो उसे दिलाने का वचन दिया, किंतु सत्ता में आते ही उनका राग बदल गया। क्या इस पर विश्वास किया जा सकता है कि आज अनुदान प्राप्त शिक्षक दो और तीन हजार रुपए मासिक पर गुजारा कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर छठवें वेतनमान की घोषणाएं हो चुकी हैं।
असल में राज्य ने अपनी कल्याणकारी भूमिका से मुंह मोड़ लिया है। राज्य अब उस नियामक की भूमिका में नहीं है, जो एक "मॉडल स्कूल" स्थापित कर उसे ऐसा मॉडल बनाता था, जिसके हमराह बनकर निजी क्षेत्र में दूसरे विद्यालय प्रेरणा ग्रहण कर सकें। सरकारें इस विषय से लगभग पिंड छुड़ाने की मुद्रा अख्तियार कर चुकी हैं। यह अनुचित और गलत रास्ता है। शिक्षा को उन्हें अपनी राजनैतिक इच्छाशक्ति की प्राथमिकता सूची में रखना ही पड़ेगा। पीढ़ियों का भविष्य ताक पर नहीं रखा जा सकता। इसी तरह अध्यापकों को वेतनभोगी कर्मचारी बना डालने की प्रवृत्ति को बदलकर उनके प्रति आदर-सम्मान और राजकीय कृतज्ञता का भाव स्थायी बनाना होगा। बजट के सैकड़ों गैर जरूरी खर्चों को घटाकर शिक्षा-व्यय को रक्षा-व्यय के समान मानने की उदारता दिखानी होगी।
"सबके लिए शिक्षा का अधिकार" अधिनियम तो बन गया। इसमें केंद्र सरकार ने स्पष्टतः प्रावधान किया है कि राज्य सरकारें पुस्तकालय, कक्षा-कक्ष और खेल के मैदान उपलब्ध कराएंगी, देश में पंद्रह लाख शिक्षकों की भर्ती होगी और विद्यालयीन व्यवस्थाएं चुस्त तथा कठोर की जाएंगी। राज्य सरकार ने शिक्षकों की भर्ती पर मौन साध लिया है और नई इमारतों के निर्माण की उसकी मंशा ही नहीं है। वेतन विसंगतियों ने शिक्षकों को मानसिक रूप से इतना क्षुब्ध कर रखा है कि शिक्षा की धुरी ही खिसक रही है।
मध्यप्रदेश शासन के अधिकारियों ने अधिनियम लागू होने के अगले दिन एक अखबार में कह दिया था कि इस अधिनियम के तहत शिक्षकों की आवश्यकता शुरू के तीन या चार साल ही रहेगी। इस अवधि में निजी स्कूलों की संख्या बढ़ेगी और सरकार पर दबाव कम होगा। इसे देखते हुए,वर्तमान शिक्षकों की आयु सीमा में वृद्धि कर शिक्षकों की कमी को पूरा कर लिया जाएगा। परन्तु इससे वांछित नतीजा तो हासिल नहीं हो सकता।
असल में,एक ऐसा समय हमारे आगे दर पेश है जब एक नए राज्य शिक्षा आयोग के गठन की अनिवार्यता महसूस की जा रही है ताकि शिक्षा,शिक्षार्थी,शिक्षक औऱ शिक्षालयों की नई व्याख्याएं करते हुए उनके स्वरूप और सृजन के ऐतिहासिक काम को अंजाम दिया जा सके(नई दुनिया,दिल्ली,3.9.2010)
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