देशभर के एफएम रेडियो पर इन दिनों "बैंड बजाने" या "मुर्गा बनाने" जैसे कार्यक्रमों का प्रसारण हो रहा है जिनमें निजता में घुसपैठ से ले कर किसी की कमजोरी तक का मजाक उड़ाया जाता है।
"आपने जो विजिटिंग कार्ड छपने को दिए थे वे छप गए हैं। लेकिन उसमें कुछ गलती हो गई है।" एक पुरुष एक भद्र महिला को फोन कर रहा है। महिला गलती के बारे में पूछती है। पुरुष कहता है कि एक तो कार्ड गलती से पंद्रह सौ की जगह पंद्रह हजार छप गए हैं और सभी कार्डों में नाम के आगे श्रीमती की जगह विधवा छप गया है। महिला लगभग फट पड़ती है, फोन करने वाले को लानत भेजने लगती है। पुरुष शांत स्वर में कहता है कि इस गलती को सुधारने का एक तरीका है कि यदि महिला यह बता दे कि उसके पति घर से कितने बजे निकलते हैं तो उनका एक्सीडेंट किया जा सकता है। इससे पंद्रह हजार कार्ड खराब नहीं होंगे। अब तो हंगामा मच जाता है। आखिर में बताया जाता है कि ऐसा करने के लिए उक्त महिला के पति ने ही फोन नंबर दिया था। क्या इस तरह के वार्तालाप को मजाक कहा जा सकता है ? देशभर के एफएम रेडियो पर इन दिनों कुछ इसी तरह के "बैंड बजाने" या "मुर्गा बनाने" या फिर घंटा सिंह के कार्यक्रमों का प्रसारण हो रहा है, जिनमें निजता में गहरे तक घुसपैठ से लेकर किसी की कमजोरी का मजाक बनाने तक के काम बगैर किसी खर्चे के, बगैर डर के और बिना अंकुश के खुलेआम हो रहे हैं।
याद करें दो साल पहले सोनी टीवी के कार्यक्रम "इंडियन आइडल" के एक प्रतियोगी प्रशांत तमांग के बारे में एफएम पर कुछ ऐसी ही टिप्पणी कर दी गई थी, जिससे दार्जीलिंग के आसपास हिंसा फैल गई थी। उस घटना से न तो सरकार ने सबक लिया और न ही रेडियो वालों ने। इंदौर जैसे शहर के एक एफएम स्टेशन का उद्घोषक हर घंटे दुहराता है - "सावधान! रेडियो को बंद न करना वरना "कान" में डंडा कर दिया जाएगा।" मैंने तो बड़ी गंभीरता से सुन कर इसे "कान" लिखा है, वैसे आम सुनने वालों को यह पुलिस वालों की प्रिय गाली ही सुनाई देता है। दिल्ली का एक स्टेशन दिन में दसियों बार आपके पूर्वजों को गरियाता हुआ दावा करता है कि "यह आपके जमाने का स्टेशन है, बाप के जमाने का नहीं।" लगता है कि बाप का जमाना बेहद पिछड़ा, बेकार था। यही स्टेशन डॉक्टर, इंजीनियर बनने का सपना देखने वालों को भी "कट कर" जाने की सीख देता है। जाहिर है कि इसे केवल लंपट, दिशाहीन और आवारा ही सुन सकते हैं।
हमारे मुल्क में एफएम रेडियो का प्रसार कम्यूनिटी-रेडियो के तौर पर हुआ, जाहिर है कि उसकी सामाजिक जिम्मेदारियां भी होतीं। पहले हवा महल जैसे कार्यक्रम युद्ध, बाढ़, भूकंप जैसी विपदाओं के समय मनोरंजन के साथ-साथ लोगों को संदेश देते थे और एक सकारात्मक जनमानस तैयार करते थे। लेकिन आज अधिकांश कार्यक्रम लड़के-लड़कियों को प्रेम के रूप में देह की भाषा के संस्कार देते हैं। ऐसे में रेडियो की वाचाल लंपटता पर विराम नहीं लगाया गया तो स्थिति हाथ से निकल सकती है(पंकज चतुर्वेदी,नई दुनिया,दिल्ली,2.9.2010)।
इन चैनलों पर जो जोकर बैठे हैं वे विदेशी कार्यक्रमों की भौंडी नक़ल करने से नहीं चूकते बिना यह याद रखे कि विदेशी कार्यक्रमों में प्रायोजक सहते हैं (अपवादों को छोड़कर) यहां, श्रोता को सहना होता हैं और ये ख़ुद दांत फाड़ते हैं
जवाब देंहटाएं