संपूर्ण भारत में राजभाषा हिन्दी सहज रूप से कामकाजी भाषा बन सके, इस विषय में सदा ही विविध तरह के रोड़े अटकाए जाते रहे हैं, जबकि हमारे देश के महान, विभिन्न भाषाओं के विद्वानों ने भी हिन्दी को देश की सर्वेसर्वा भाषा के रूप में स्वीकारा है। महात्मा गांधी सौराष्ट्र में जन्में, ब्रिटेन में पढ़े तथा कार्यभूमि दक्षिण अफ्रीका को बनाया, किन्तु जब वे भारत आए तो उन्होंने जनता को प्रोत्साहित करने के लिए हिन्दी को ही कांग्रेस की भाषा बनाया और हिन्दी भाषा को स्वनात्मक कार्यो से जोड़ा। हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाने के बारे में कई तरह की गलत धारणाएं फैलायी जाती ही हैं। जैसे कि हिन्दी संबंधी अध्याय, हिन्दी समर्थकों के आग्रह पर संविधान में जोड़ा गया। समय-समय पर इस झूठ का प्रचार विभिन्न दलों ने धड़ल्ले से किया, जबकि संविधान निर्माण के लिए जो मसौदा समिति बनी थी, उसमें डॉ. आंबेडकर, सर अल्लाड़ी कृष्णास्वामी अय्यर, कन्हैयालाल मणिकलाल मुंशी, गोपालस्वामी अय्यंगार, एन माधवराव, सैय्यैद मुहम्मद सादुल्ला और सर बिजेन्द्रलाल मित्तर जैसे महानुभाव थे। इनमें से एक भी हिन्दी भाषी नहीं थे, किन्तु सभी हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के पक्ष में थे। यहां तक कि संविधान सभा के सभी अहिन्दी भाषी नेताओं ने भी हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने में अपनी सहमति सहज रूप से दी, बस उनका सिर्फ इतना ही आग्रह था कि प्रांतीय भाषाओं के ऊपर हिन्दी को रखकर अंग्रेजी हटाने के लिए, कानून बनाने का बंधन नहीं लगना चाहिए। इसी उद्देश्य से त्रिभाषी फार्मूला अपनाया गया। प्रथम प्रांतीय भाषा, फिर राष्ट्रभाषा और फिर अंग्रेजी या कोई भी दूसरी भाषा। इतनी सरल सार्थक विधा के पश्चात भी आज भी हमारे देश में हिन्दी की प्रगति नहीं हुई है, जैसी होनी चाहिए। आज भी देश के कई हिस्सों में हम जाएं तो या तो वहां की प्रांतीय भाषा में बोर्ड लगे होंगे, या फिर अंग्रेजी में, हिन्दी से इतनी उदासीनता लोगों के मन में क्यों व्याप्त हुई, यह एक गहरे षड्यंत्र की अंधेरी साजिश है। हम यदि इतिहास के पन्ने पलटें तो हम देखते हैं कि सिद्धनाथ पंथी साधुओं, सूफी-संतों, महाराष्ट्र के गुजरात के भक्तों, बंगाल और असम के वैष्णव संतों ने अपने विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम हिन्दी को ही बनाया था। जब अपना देश राजनीतिक स्तर पर भी एक नहीं था, तब उससे भी पहले पद्मचरित लिखा गया था। पश्चिम से आए मुस्लिम लेखक अब्दुल रहमान ने संदेशरासक लिखा था। मोहम्मद जायसी के द्वारा रचित पद्मावत को कौन नहीं जानता। महात्मा तुलसीदास जी द्वारा रचित रामचरितमानस जनता तक आध्यात्मिक विचारधारा तथा दर्शन की पहेलियों को आम जनता तक पहुंचाने के लिए हिन्दी का ही सहारा लिया गया। हम यदि समाचार पत्रों पर नजर डालें तो समाचार सुधावर्षन कलकत्ता से निकला जो हिन्दी का पहला दैनिक समाचार पत्र था। श्यामसुन्दर सेन जिसके संपादक थे। समाचार पत्रों के प्रारंभिक संपादक ज्यादातर बंगाली, मराठी भाषी ही रहे हैं। हिन्दी टाइप का आविष्कार भी (पश्चिम बंगाल) के पंचानन कार्मकार ने किया। अंग्रेजी विद्वान गिल क्राइस्ट ने हिन्दी को अनेक प्रामाणिक ग्रंथ दिए, जिनके लिखने वाले गुजराती और उर्दू बोलने वाले थे। ईसाई धर्म के प्रचार के लिए भी हिन्दी माध्यम को ही अपनाया गया, इसी कारण हिन्दुस्तान में ईसाई धर्म का प्रचार इतनी सफलता के साथ हो पाया। स्वामी दयानंद जो गुजराती और संस्कृत के विद्वान थे, किन्तु धर्म प्रचार के लिए उन्होंने हिन्दी को ही माध्यम बनाया। गोपालस्वामी अय्यंगार ने 14 सितंबर 1949 को एक संशोधन रखा, जिसका उद्देश्य धारा 301 (क) के नाम से एक नया अध्याय जोड़ना था, किन्तु इस संशोधन के पक्ष और विपक्ष में संशोधनों पर संशोधन रखे गए, जो सभी बहस के बाद वापस लिए गए। बाबू पुरुषोत्तम दास टंडन और सेठ गोविंददास ने अंतर्राष्ट्रीय अंकों द्वारा हिन्दी के रूप को बिगाड़ा जाता महसूस किया था। फिर भी हिन्दी प्रचार-प्रसार का रास्ता निकलते देखकर राजेन्द्र बाबू ने प्रसन्नता जाहिर की और कहा था कि आज का दिन हमारे लिए बड़ा ही शुभ दिन है, जिसका दूरगामी प्रभाव पड़ेगा, वह दिन था हमारा प्रथम हिन्दी दिवस मनाना। हिन्दी को राष्ट्रभाषा की मान्यता दिलाने के लिए प्रस्ताव पेश किया गोपालस्वामी अय्यंगार ने और उसका समर्थन करने वाले महाराष्ट्र के शंकरराव देव, आंध्र की श्रीमती दुर्गाबाई, पश्चिम बंगाल के मौलाना अब्दुल कलाम आजाद, गुजरात के कन्हैयालाल मणिकलाल मुंशी और कर्नाटक के कृष्णिमूर्ति राव थे। तथापि और भी अनेकानेक अहिन्दी भाषी विद्वान थे, जो देश में एक राष्ट्रभाषा की आवश्यकता गहराई से महसूस करते थे। सभी हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के संबंध में सालों तक संघर्ष किया। आज आजादी के बासठ साल के बाद भी, पूरे देश ने हिन्दी को हृदय से राष्ट्रभाषा स्वीकार नहीं किया है। उच्चस्तर पर साधन-सम्पन्न लोग तो अक्सर ही अंग्रेजी माध्यम से ही अपने बच्चों को शिक्षा दिलाते हैं। उनके बच्चों को हिन्दी के साधारण व्यवहार में आने वाले शब्दों का अर्थ भी मालूम नहीं है। कुछ लोग तो अंग्रेजी के इतने दास हैं कि यदि उनके पास-पड़ोस में हिन्दी बोलने वाले कोई रहने आ जाएं, तब वे अजीबो-गरीब ढंग से उन पर नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं। इसका कारण है, राजनेताओं के द्वारा राष्ट्रभाषा के महत्व को उलझाए रखना। आज हम सभी देशवासियों को यह याद रखना चाहिए कि परे देश की एकता-प्रतिबद्धता आत्मीयता के सूत्र को जोड़ने के लिए अपनी एक भाषा हमें प्राणों से भी प्यारी होनी चाहिए। जिस दिन एक भाषा के सूत्र में हम, हृदय से बंध जाएंगे, उसी दिन से देश की एकता का गुलशन महक उठेगा और उस दिन भारत अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सबसे ऊपर होगा तथा हमें फिर कभी हिन्दी दिवस मनाने की जरूरत ही नहीं रहेगी(पूजाश्री,दैनिक जागरम,भोपाल,14.9.2010)।
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